Book Title: Sankshipta Padma Puran
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 14
________________ १४ • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् । [संक्षिप्त पयपुराण देवताओंके देखते-देखते श्रीहरिके वक्षःस्थलमें चली मग्न हो शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् गयीं और भगवानसे बोली-'देव ! आप कभी मेरा श्रीविष्णुको प्रणाम करके स्वर्गलोकको चले गये। परित्याग न करें। सम्पूर्ण जगत्के प्रियतम ! मैं सदा तबसे सूर्यदेवकी प्रभा स्वच्छ हो गयी। वे अपने आपके आदेशका पालन करती हुई आपके वक्षःस्थलमें मार्गसे चलने लगे। भगवान् अग्निदेव भी मनोहर दीप्तिसे निवास करूंगी।' यह कहकर लक्ष्मीजीने कृपापूर्ण युक्त हो प्रज्वलित होने लगे तथा सब प्राणियोंका मन दृष्टि से देवताओंकी ओर देखा, इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता धर्ममें संलग्न रहने लगा। भगवान् विष्णुसे सुरक्षित हुई। इधर लक्ष्मीसे परित्यक्त होनेपर दैत्योंको बड़ा उद्वेग होकर समस्त त्रिलोकी श्रीसम्पन्न हो गयी। उस समय हुआ। उन्होंने झपटकर धन्वन्तरिके हाथसे अमृतका पात्र समस्त लोकोंको धारण करनेवाले ब्रह्माजीने देवताओंसे छीन लिया। तब विष्णुने मायासे सुन्दरी स्त्रीका रूप कहा-देवगण ! मैंने तुम्हारी रक्षाके लिये भगवान् धारण करके दैत्योंको लुभाया और उनके निकट जाकर श्रीविष्णुको तथा देवताओंके स्वामी उमापति कहा-'यह अमृतका कमण्डलु मुझे दे दो।' उस महादेवजीको नियत किया है; वे दोनों तुम्हारे योगक्षेमका त्रिभुवनसुन्दरी रूपवती नारीको देखकर दैत्योंका चित्त निर्वाह करेंगे। तुम सदा उनकी उपासना करते रहना; कामके वशीभूत हो गया। उन्होंने चुपचाप वह अमृत क्योंकि वे तुम्हारा कल्याण करनेवाले हैं। उपासना उस सुन्दरीके हाथमें दे दिया और स्वयं उसका मुंह करनेसे ये दोनों महानुभाव सदा तुम्हारे क्षेमके साधक ताकने लगे। दानवोंसे अमृत लेकर भगवान्ने और वरदायक होंगे।' यों कहकर भगवान् ब्रह्मा अपने देवताओंको दे दिया और इन्द्र आदि देवता तत्काल उस धामको चले गये। उनके जानेके बाद इन्द्रने देवलोककी अमृतको पी गये। यह देख दैत्यगण भाँति-भांतिके राह ली। तत्पश्चात् श्रीहरि और शङ्करजी भी अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र और तलवारें हाथमें लेकर देवताओंपर टूट धाम-वैकुण्ठ एवं कैलासमें जा पहुँचे। तदनन्तर पड़े; परन्तु देवता अमृत पीकर बलवान् हो चुके थे, देवराज इन्द्र तीनों लोकोंकी रक्षा करने लगे। महाभाग ! उन्होंने दैत्य-सेनाको परास्त कर दिया। देवताओंकी मार इस प्रकार लक्ष्मीजी क्षीरसागरसे प्रकट हुई थीं। यद्यपि पड़नेपर दैत्योंने भागकर चारों दिशाओंकी शरण ली और वे सनातनी देवी है, तो भी एक समय भृगुकी पत्नी कितने ही पातालमें घुस गये। तब सम्पूर्ण देवता आनन्द- ख्यातिके गर्भसे भी उन्होंने जन्म ग्रहण किया था। सतीका देहत्याग और दक्ष-यज्ञ-विध्वंस भीष्मजीने पूछा-ब्रह्मन् ! दक्षकन्या सती तो प्राचेतस, अङ्गिरा तथा महातपस्वी वसिष्ठजी भी उपस्थित बड़ी शुभलक्षणा थीं, उन्होंने अपने शरीरका त्याग क्यों हुए। वहाँ सब ओरसे बराबर वेदी बनाकर उसके ऊपर किया? तथा भगवान् रुद्रने किस कारणसे दक्षके चातुर्होत्रकी* स्थापना हुई। उस यज्ञमें महर्षि वसिष्ठ यज्ञका विध्वंस किया? होता, अङ्गिरा अध्वर्यु, बृहस्पति उदाता तथा नारदजी पुलस्त्यजीने कहा-भीष्म ! प्राचीन कालकी ब्रह्मा हुए। जब यज्ञकर्म आरम्भ हुआ और अग्निमें हवन बात है, दक्षने गङ्गाद्वारमें यज्ञ किया। उसमें देवता, होने लगा, उस समयतक देवताओंके आनेका क्रम जारी असुर, पितर और महर्षि सब बड़ी प्रसन्नताके साथ रहा। स्थावर और जङ्गम-सभी प्रकारके प्राणी वहाँ पधारे। इन्द्रसहित देवता, नाग, यक्ष, गरुड, लताएँ, उपस्थित थे। इसी समय ब्रह्माजी अपने पुत्रोंके साथ ओषधियाँ, कश्यप, भगवान् अत्रि, मैं, पुलह, क्रतु, आकर यज्ञके सभासद् हुए तथा साक्षात् भगवान् • होता, अध्वर्यु, उद्माता और ब्रह्मा-इन चारोंके द्वारा सम्पन्न होनेवाले यज्ञको चातुोत्र कहते हैं।

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