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सृष्टिखण्ड ]
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लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र मन्थन और अमृत प्राप्ति •
गये। देव, दानव और दैत्य सब मिलकर सब प्रकारकी ओषधियाँ ले आये और उन्हें क्षीर सागरमें डालकर मन्दराचलको मथानी एवं वासुकि नागको नेती बनाकर बड़े वेग से मन्थन करने लगे। भगवान् विष्णुकी प्रेरणासे सब देवता एक साथ रहकर वासुकिकी पूँछकी ओर हो गये और दैत्योंको उन्होंने वासुकिके सिरकी ओर खड़ा कर दिया। भीष्मजी ! वासुकिके मुखकी साँस तथा विषानिसे झुलस जानेके कारण सब दैत्य निस्तेज हो गये। क्षीरसमुद्रके बीचमें ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ भगवान् ब्रह्मा तथा महातेजस्वी महादेवजी कच्छप रूपधारी श्रीविष्णुभगवान्की पीठपर खड़े हो अपनी भुजाओंसे कमलकी भाँति मन्दराचलको पकड़े हुए थे तथा स्वयं भगवान् श्रीहरि कूर्मरूप धारण करके क्षीर सागरके भीतर देवताओं और दैत्योंके बीचमें स्थित थे। [वे मन्दराचलको अपनी पीठपर लिये डूबनेसे बचाते थे।] तदनन्तर जब देवता और दानवोंने क्षीरसमुद्रका मन्थन आरम्भ किया, तब पहले-पहल उससे देवपूजित सुरभि (कामधेनु) का आविर्भाव हुआ, जो हविष्य (घी-दूध) की उत्पत्तिका स्थान मानी गयी है। तत्पश्चात् वारुणी (मदिरा) देवी प्रकट हुई, जिसके मदभरे नेत्र घूम रहे थे। वह पग-पगपर लड़खड़ाती चलती थी। उसे अपवित्र मानकर देवताओंने त्याग दिया। तब वह असुरोंके पास जाकर बोली- 'दानवो मैं बल प्रदान करनेवाली देवी हूँ, तुम मुझे ग्रहण करो।' दैत्योंने उसे ग्रहण कर लिया। इसके बाद पुनः मन्थन आरम्भ होनेपर पारिजात ( कल्पवृक्ष) उत्पन्न हुआ, जो अपनी शोभासे देवताओंका आनन्द बढ़ानेवाला था। तदनन्तर साठ करोड़ अप्सराएँ प्रकट हुईं, जो देवता और दानवोंकी सामान्यरूपसे भोग्या हैं। जो लोग पुण्यकर्म करके देवलोकमें जाते हैं, उनका भी उनके ऊपर समान अधिकार होता है। अप्सराओंके बाद शीतल किरणोंवाले चन्द्रमाका प्रादुर्भाव हुआ, जो देवताओंको आनन्द प्रदान करनेवाले थे। उन्हें भगवान् शङ्करने अपने लिये माँगते हुए कहा- 'देवताओ! ये चन्द्रमा मेरी जटाओंके आभूषण होंगे, अतः मैंने इन्हें ले लिया ।'
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ब्रह्माजीने 'बहुत अच्छा' कहकर शङ्करजीकी बातका अनुमोदन किया। तत्पश्चात् कालकूट नामक भयङ्कर विष प्रकट हुआ, उससे देवता और दानव सबको बड़ी पीड़ा हुई। तब महादेवजीने स्वेच्छासे उस विषको लेकर पी लिया। उसके पीनेसे उनके कण्ठमें काला दाग पड़ गया, तभीसे वे महेश्वर नीलकण्ठ कहलाने लगे। क्षीरसागरसे निकले हुए उस विषका जो अंश पीनेसे बच गया था, उसे नागों (सर्पों) ने ग्रहण कर लिया।
तदनन्तर अपने हाथमें अमृतसे भरा हुआ कमण्डलु लिये धन्वन्तरिजी प्रकट हुए। वे श्वेतवस्त्र धारण किये हुए थे। वैद्यराजके दर्शनसे सबका मन स्वस्थ एवं प्रसन्न हो गया। इसके बाद उस समुद्रसे उच्चैःश्रवा घोड़ा और ऐरावत नामका हाथी - ये दोनों क्रमशः प्रकट हुए। इसके पश्चात् क्षीरसागरसे लक्ष्मीदेवीका प्रादुर्भाव हुआ, जो खिले हुए कमलपर विराजमान थीं और हाथमें कमल लिये थीं। उनकी प्रभा चारों ओर छिटक रही थी। उस समय महर्षियोंने श्रीसूक्तका पाठ करते हुए बड़ी प्रसन्नताके साथ उनका स्तवन किया। साक्षात् क्षीरसमुद्रने [ दिव्य पुरुषके रूपमें] प्रकट होकर लक्ष्मीजीको एक सुन्दर माला भेंट की, जिसके कमल कभी मुरझाते नहीं थे। विश्वकर्माने उनके समस्त अङ्गोंमें आभूषण पहना दिये। खानके पश्चात् दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण करके जब वे सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित हुई, तब इन्द्र आदि देवता तथा विद्याधर आदिने भी उन्हें प्राप्त करनेकी इच्छा की। तब ब्रह्माजीने भगवान् विष्णुसे कहा - 'वासुदेव ! मेरे द्वारा दी हुई इस लक्ष्मीदेवीको आप ही ग्रहण करें। मैंने देवताओं और दानवोंको मना कर दिया है - वे इन्हें पानेकी इच्छा नहीं करेंगे। आपने जो स्थिरतापूर्वक इस समुद्र मन्थनके कार्यको सम्पन्न किया है, इससे आपपर मैं बहुत सन्तुष्ट हूँ।' यों कहकर ब्रह्माजी लक्ष्मीजीसे बोले— 'देवि! तुम भगवान् केशवके पास जाओ। मेरे दिये हुए पतिको पाकर अनन्त वर्षोंतक आनन्दका उपभोग करो।'
ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर लक्ष्मीजी समस्त