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सृष्टिखण्ड] • यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्गों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदिकी उत्पत्तिका वर्णन ...
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ज्ञाता विद्वान् पुरुष इन्हींक द्वारा यज्ञोंका अनुष्ठान करते उनका आधा शरीर स्त्रीका था और आधा पुरुषका । वे रहते हैं। नृपश्रेष्ठ ! प्रतिदिन किया जानेवाला यज्ञानुष्ठान बड़े प्रचण्ड थे और उनका शरीर बड़ा विशाल था। तब मनुष्योंका परम उपकारक तथा उन्हें शान्ति प्रदान ब्रह्माजी उन्हें यह आदेश देकर कि 'तुम अपने शरीरके करनेवाला होता है। [कृषि आदि जीविकाके साधनोंके दो भाग करो' वहाँसे अन्तर्धान हो गये। उनके ऐसा सिद्ध हो जानेपर] प्रजापतिने प्रजाके स्थान और गुणोंके कहनेपर रुद्रने अपने शरीरके स्त्री और पुरुषरूप दोनों अनुसार उनमें धर्म-मर्यादाकी स्थापना की। फिर वर्ण भागोंको पृथक्-पृथक् कर दिया और फिर पुरुषभागको और आश्रमोंके पृथक्-पृथक् धर्म निश्चित किये तथा ग्यारह रूपोंमें विभक्त किया। इसी प्रकार खीभागको भी स्वधर्मका भलीभाँति पालन करनेवाले सभी वर्गों के लिये अनेकों रूपोंमें प्रकट किया। स्त्री और पुरुष दोनों पुण्यमय लोकोंकी रचना की।
भागोंके वे भिन्न-भिन्न रूप सौम्य, क्रूर, शान्त, श्याम योगियोंको अमृतस्वरूप ब्रह्मधामकी प्राप्ति होती है, और गौर आदि नाना प्रकारके थे। जो परम पद माना गया है। जो योगी सदा एकान्तमें तत्पश्चात् ब्रह्माजीने अपनेसे उत्पन्न, अपने ही रहकर यलपूर्वक ध्यानमें लगे रहते हैं, उन्हें वह उत्कृष्ट स्वरूपभूत स्वायम्भुवको प्रजापालनके लिये प्रथम मनु पद प्राप्त होता है, जिसका ज्ञानीजन ही साक्षात्कार कर बनाया। स्वायम्भुव मनुने शतरूपा नामकी स्त्रीको, जो पाते हैं। तामिस्त्र, अन्धतामिस्र, महारौरव, रौरव, घोर तपस्याके कारण पापरहित थी, अपनी पत्नीके रूपमें असिपत्रवन, कालसूत्र और अवीचिमान् आदि जो नरक स्वीकार किया। देवी शतरूपाने स्वायम्भुव मनुसे दो पुत्र हैं, वे वेदोंकी निन्दा, यज्ञोंका उच्छेद तथा अपने धर्मका और दो कन्याओंको जन्म दिया। पुत्रोंके नाम थेपरित्याग करनेवाले पुरुषोंके स्थान बताये गये हैं। प्रियव्रत और उत्तानपाद तथा कन्याएँ प्रसूति और
ब्रह्माजीने पहले मनके संकल्पसे ही चराचर आकूतिके नामसे प्रसिद्ध हुई। मनुने प्रसूतिका विवाह प्राणियोंकी सृष्टि की; किन्तु जब इस प्रकार उनकी सारी दक्षके साथ और आकूतिका रुचि प्रजापतिके साथ कर प्रजा [पुत्र, पौत्र आदिके क्रमसे] अधिक न बढ़ सकी, दिया। दक्षने प्रसूतिके गर्भसे चौबीस कन्याएँ उत्पन्न की। तब उन्होंने अपने ही सदृश अन्य मानस पुत्रोंको उत्पन्न उनके नाम है-श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, पुष्टि, तुष्टि, मेघा, किया। उनके नाम हैं-भृगु, पुलह, क्रतु, अङ्गिरा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, सिद्धि और तेरहवीं मरीचि, दक्ष, अत्रि और वसिष्ठ । पुराणमें ये नौ* ब्रह्मा कीर्ति। इन दक्ष-कन्याओंको भगवान् धर्मने अपनी निश्चित किये गये हैं। इन भृगु आदिके भी पहले जिन पलियोंके रूपमें ग्रहण किया। इनसे छोटी ग्यारह कन्याएँ सनन्दन आदि पुत्रोंको ब्रह्माजीने जन्म दिया था, उनके और थीं, जो ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, मनमें पुत्र उत्पन्न करनेकी इच्छा नहीं हुई; इसलिये वे सन्नति, अनसूया, ऊर्जा, स्वाहा और स्वधा नामसे प्रसिद्ध सृष्टि रचनाके कार्यमें नहीं फँसे । उन सबको स्वभावतः हुई। नृपश्रेष्ठ ! इन ख्याति आदि कन्याओको क्रमशः विज्ञानकी प्राप्ति हो गयी थी। वे मात्सर्य आदि दोषोंसे भृगु, शिव, मरीचि, अङ्गिरा और मैंने (पुलस्त्य) तथा रहित और वीतराग थे। इस प्रकार संसारकी सृष्टिके पुलह, क्रतु, अत्रि, वसिष्ठ, अग्नि तथा पितरोंने ग्रहण कार्यसे उनके उदासीन हो जानेपर महात्मा ब्रह्माजीको किया। श्रद्धाने कामको, लक्ष्मीने दर्पको, तिने महान् क्रोध हुआ, उनकी भौहे तन गयीं और ललाट नियमको, तुष्टिने सन्तोषको और पुष्टिने लोभको जन्म क्रोधसे उद्दीप्त हो उठा। इसी समय उनके ललाटसे दिया। मेधाने श्रुतको, क्रियाने दण्ड, नय और विनयको, मध्याह्नकालीन सूर्यके समान तेजस्वी रुद्र प्रकट हुए। बुद्धिने बोधको, लज्जाने विनयको, वपुने अपने पुत्र
• संभवतः पुलस्त्यजीको मिलाकर ही नौ ब्रह्मा माने गये हैं।