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उनसे है, उनके उपयोग में राग-वेष-मोह भाव नहीं है, अतः मालाच नहीं करते। रागादि रहित जीव प्रबंधक कहा गया है।
मानगुण का परिणमन यवाल्यात चारित्र के पूर्व अधन्यभाव रूप परिणत होता है, वहां राग का सद्भाव होने से मानी अपने जघन्य ज्ञान गुण रूप परिगमन के कारण
इससे सिद्ध है कि इस प्रकरण में "शानी अबंधक है" ऐसा जो कहा गया है, वहां मानी से तात्पर्य यथाल्यात चारित्र को प्राप्त रागादि कषाय के उवय रहित दश गुणस्थान से उपरितन वर्ती जीव से हैं।
यद्यपि चतुर्थ गुणस्थान से ही सम्यग्दृष्टि ज्ञानी संज्ञा प्राप्त है, तथापि इस प्रकरण में रागद्वेष मय परिणाम को "अज्ञान" भाव ही कहा है, अतः चतुर्यादिगुणस्थान में होता है वह रागाविमय अमान परिणाम से ही है । तात्पर्य यह है कि चतुर्थादिगुण-स्थानी सम्यक्त्व के सद्भाव के कारण 'ज्ञानी कहा जाता है। उसके मोह (मिथ्यात्व) और अनंतानुबधी संबधी रागादि का अभाव है अतः वह संसार के कारणभूत प्रकृतियों का अबंधक है । पंचमादिगुणस्थान भी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान-संज्वलन के उज्य मन्य रागादि के अभाव के कारण अधिकाधिक अबंधक है । तथापि जितनी कवाय विद्यमान है, उस दृष्टि से वे अपने रागादि भाव के सदभाव में बंधक है। ग्यारह बारहवें तेरहवें आदि गुणस्थानों में सर्वत्र रागोदय की अविद्यमानता में वह सर्वथा अबंधक है। प्रकृति प्रवेश मात्र बंध को यहां बंध नहीं कहा । यद्यपि इन गुणस्थानों में यह पाया जाता है तथापि उसकी अविवक्षा है।
इस प्रकार मय पियका से उक्त विवेचन समाना चाहिए इसके पश्चात् मानव का विरोधी संबर है-इस बात के प्रतिपादनार्थ पांचया
संवर अधिकार प्रहपित है । इसमें आते हुए कर्म को (मानव को) रोकने का (संबर का) प्रबल कारण 'भेदविज्ञान' को बताया है। उपयोग ज्ञानात्मक है, वह कोषापात्मक नहीं है। कोषादि कोषाधात्मक विकार ही है, वे हानात्मक नहीं है। इस मूल सिद्धांत को समझकर उपयोग स्वरूप मुखात्मा उपयोग ही करता है, कोषावि नहीं, अतः उसे मानव भी नहीं होला, संबर होता है।