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मोक्षाधिकार
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( २९८ )
आत्म संबोधन ! प्रज्ञा से जो ग्रहण किया वह दृष्टा भी मै हूँ स्वाधीन । चित्स्वभाव से सकल भिन्न है वभाविक परिणाम मलीन । वे विकार विरूप लिये है ज्वरवत् दुःखमयी साकार । में चेतन चिद् बहु म चिरंतन परमानंदमयी अविकार ।
( २६०-३००/१ )
पुन आत्म सबोधन ! प्रज्ञा से ग्रहीत मैं ही हूँ, ज्ञाता भी निःशंक ललाम । मुझ से भिन्न भाव सब पर है, मै हूँ निर्विकार निष्काम । कौन विवेकी जान स्वयं को अन्य द्रव्य-भावों से भिन्न-- यह मानेगा और कहेगा 'मुझ से ये जड़भाव अभिन्न ?'
( ३००/२ ) आत्मस्वरूप की अज्ञता ही बंधन का मूल है शुद्ध बुद्ध ज्ञायक स्वभाव तू एक बार अनुभव कर, भात ! तव कल्याण इसी में निश्चित, यही मुक्ति का पथ अवदात । निज स्वभाव परिज्ञात किये बिन चेतन भटक रहा भव मात । मोह राग द्वेषादि विकृति वश बंधन में फंस बना प्रशांत । (२६८) विदम्प-बोटापा