________________
१५३
समयसार वैभव
( ३७६-३८०) स्पर्श प्रिय अप्रिय भी नहि कहता कोई हमें छए लवलेश । वह बरबस लिपट नहिं पाकर या न गहों में करें प्रवेश । यों जड़ के गुण दोष न करते अाग्रह हमसे रंच, प्रवीण ! बुद्धि द्वार भी नहि प्रवेश कर गुप्त प्रेरणा करते दोन ।
( ३८१-३८२ ) द्रव्य, शुभाशुभ जिन्हें मान हम जान रहे मग क्षण सविशेष । त्यागो, भोगो, जानो, या तुम ग्रहण करो, कहते नहि लेश । यह सुस्पष्ट भासता सब को, फिर भी मढ़ न होता शांत । समता सुधा पान तज विषयों में ही रमता चिर चिभ्रांत ।
( ३८३-३८४ )
प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान का स्वरूप पूर्व शुभाशुभ कर्मोदय में हर्ष विषाद न कर, बन शांतउनसे अपना पिड छुड़ाना, प्रतिक्रमण है यही नितांत । कर्म बंध संभावित रहता जिन भावों के द्वारा म्लान ।
सम भावों से उन्हें विसजित करना ही है प्रत्याख्यान । (२८३) विणित करता त्याग करना ।