Book Title: Samaysar Vaibhav
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Jain Dharm Prakashan Karyalaya

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Page 190
________________ १५१ समयसार-मय ( ३७०-३७१ ) अन्य द्रव्य के गुण धर्मो का अन्य द्रव्य में हो न प्रवेश । इसीलिये इन्द्रिय विषयों में हो सुदृष्टि को राग न लेश । राग, द्वेष, मोहादि विकारी-जीवों के परिणाम अभिन्न । शब्दादिक जड़ परणतियों से प्रकट राग द्वेषादिक भिन्न । ( ३७२ ) राग-द्वेष परिणाम निश्चय से जीव के ही हैं अन्य द्रव्य द्वारा न अन्य में गुण हो सकते है उत्पन्न । नित स्वकीय भावों से निश्चित द्रव्य हुआ करते निष्पन्न । राग द्वेष परिणाम तत्वतः जीव परिणमन है निन्ति । पुद्गल पर कर्त्त त्व रोपना है केवल उपचार नितांत । ( ३७३ ) इन्द्रिय विषयो मे राग-द्वेष जीब के अज्ञान से होते है शब्द वर्गणायें भाषा बन परिणमनी हैं विविध प्रकार । जीव जिन्हें सुन राग द्वेष कर सुखी दुखी बनता सविकार । इष्ट वचन सुन तुष्ट, किंतु प्रतिकूल सुन बनें रुष्ट महान । अहंकार ममकार मगन बन भव भव. भटक, रहा .अनजान ।

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