Book Title: Samaysar Vaibhav
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Jain Dharm Prakashan Karyalaya
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर दिल्ली पस्थित है। यदि इसके गड़े तो उसे मन में ही क्रम सख्या काल न. .. खण्ड सन्देश प्राप्त हो रहे है, 1309 2 जैन । सरल भाषा मे भावार्थ भी आसान बन जाय । श्रम, समय और आर्थिक से कम आर्थिक चिताओ ही इस कार्य को सम्पन्न योग देने को तत्पर होंलेखक को सूचित करने का कष्ट करें। • यह ग्रंथ प्रत्येक जैन के घर पहुंच जावे इसके लिये स्थानीय संस्थाओं एवं प्रतिष्ठित महानुभावों को व्यवस्था कर लेखक को सूचना देना पर्याप्त होगा। • यदि कोई दानवीर (एक या अनक) जैन समाज के पत्र - पत्रिकाओं के ग्राहको के लिये अपनी ओर से उपहार स्वरूप प्रथ को भेट करना चाहें तो आसानी से ग्रंथ गाँव २ पहुंच जावे ।जिनकी रुचि हो सूचना देने की कृपा करें। आप अपने यहाँ आयोजित उत्सवों में भी अतिथियों को यह ग्रंथ उपहार में दे सकते हैं। -प्रकाशक Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव मूल प्रणेता:-- श्रीमद्भगवत्कुंवकुंदाचार्यः लेखक व प्रकाशक :नाथूराम डोंगरीय जैन, न्यायतीर्थ जैनधर्म प्रकाशन कार्यालय, ५/१, तम्बोली बाखल, इन्दौर-२ (म.प्र.) द्वितीयावृत्ति । सर्वाधिकार लेखक दीपावली २४९७ । एक प्रति का रजिस्ट्री खर्च कार्तिक कृष्णा ३०-२०२७ १॥) रु. अलग आधीन मनिआर्डर से भेजें। मुद्रक : नई दुनिया प्रेस, केसरबाग रोड, इन्दौर-२. २९, अक्टबर १९७० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्यवाद! निम्न लिखित संस्थाओं एवं सज्जनों ने ग्रंथ प्रकाशन के पूर्व अग्रिम ग्राहक बन कर धर्म प्रभावनार्थ ग्रंथ का प्रसार करना स्वीकार किया, जिसके लिये हार्दिक धन्यवाद । २०२) श्री फतेचद मूलचद पाटनी ट्रस्ट १०१) श्री राधेश्यामजी रोगनलालजी २०१) श्री रतनलालजी काला पगड़ीवाला ६१) श्री अमृतलालजी पतगया १५१) श्री ला रघुनाथप्रसादजी अग्रवाल ६१) श्री कन्हैयालालजी १०१) श्री अशर्फीलालजी अशोककुमारजी (१रीम कागज) १०१) श्री मोहनलाल मनोहरलालजी ५१) श्री मागीलालजी सा डोसी छावनी ५१) श्री नानूरामजी हातोदवाला ५१) श्री दुलीचन्द्रजी सेठी छोटा सराफा & Co ५१) श्री सुवालाल पन्नालालजी गोधा १०१) श्री रतनलालजी (बडोदियावाला) ५१) श्री विमलचन्द फलचन्दजी अजमेरा १०१) श्रीमती जयतीबाई ) श्री बा निर्मलकुमारजी जायसवाल (फर्म शिखरचदजी नवीनचंदजी ५ ताराचंद शातिलालजी, अजमेर १७३) गुप्तनाम हस्ते श्री देवीलालजी ५१) श्रीमडी कस्तूरीबाई भेरूलालजी १०१) श्री लच्छीराम फूलचदजी श्रीमती उमाबाई १०१) श्री डा शातिलालजी 'बालेन्दु' । (श्री कस्तूरचन्दजी चौमूवाला) १००) श्री झुन्नालालजी सा. जौहरी ५१) श्री जमनालाल जुगराजजी ५१) श्री इदोरीलालजी मानुकुमारजी ) (आनन्दपुर काल) ५१) श्री गौतमलालजी क्लाथ मर्चेन्ट BA५) श्री हिम्मतलालजी तलकचन्दजी ५१) श्री शकरलाल हुकमचंदजी काला २५) इंदौर टेक्मटाइल सेंटर M.T.C. ५१) श्री हजारीमलजी पाटनी छाबनी २१) श्री मांगीलालजी बागडिया ५१) श्री चन्दनलाल ब्रदर्स क्लाथ मार्केट २१) श्री विमलचन्दजी सेठी बडा सराफा ५१) श्री मागीलालजी सा. पाटनी २१) श्री माणिकचन्द माधवलालजी ५१) श्री प्रकाश मेटल वर्क्स इन्दौर सेठी श्री चांदमलजी सुगनचन्द्रजी ५१) श्री धन्नालाल रतनलालजी काला दृस्ट Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hiralal kashliwal KALYAN BHAWAN TUKOGANJ INDORE दि ७ अक्टूबर ७० अपनी स्व पूज्य माँ सा० को श्रद्धाञ्जलि समर्पित करने हेतु इस अपूर्व ग्रथ का प्रथम संस्करण समाज की सेवा में प्रस्तुत करने की पहल करते हुए मुझे अत्यत हर्ष का अनुभव हो रहा था । अभी-अभी यह जानकर और भी प्रसन्नता हुई कि डेढ़ मास के अन्दर ही दीपावली के शुभ अवसर पर इसका दूसरा मस्करण भी प्रकाशित होने जा रहा है । सचमुच ही यह एक अद्वितीय ग्रंथ है जो आधुनिक युग में आत्म जिज्ञासुओं को राष्ट्रभाषा के माध्यम से पूज्य भगवान कन्द-कन्द की अमरवाणी का रसास्वादन करने में पर्याप्त सहायक सिद्ध होगा। इस दृष्टि से इसका अधिकाधिक प्रचार एवं प्रसार करना हम सब का ही परम कर्तव्य है। मुझे पूर्ण आशा है कि इस उपयोगी रचना का सर्वत्र समादर होगा और इसके द्वारा जन-मानस में आध्यात्मिक रुचि एव निष्ठा में बद्धि होने के साथ ही अध्यात्म संबंधी अनेक भ्रमो का उन्मूलन होकर जीवन में एक नवीन चेतना का उदय होगा। होरालाल [रावराजा, रायबहादुर, राज्यरत्न, दानवीर, श्रीमंतसेठ] Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Raj Kumar Singh INDRA BHAWAN TUKOGANJ INDORE-1 (M.P.) M.A., LL B., F.R.E.S., F.R.G.S दि १२, सितम्बर, १९७० समयसार-वभव ग्रथ मे श्री पडित नाथूरामजी डोगरीय ने समयसार ग्रंथ के गूढ अर्थ को बहुत ही सुन्दर और सरल ढगसे निश्चय और व्यवहार का भली भॉति समन्वय करते हुए समझाया है। ऐसे महान् ग्रंथ के गूढार्थ को समझाते हुए सुन्दर पद्य रचना करना सचमुच ही प्रशसनीय है ! मुझे आशा है कि इस प्रथ को पढकर अनेक जिज्ञासु धर्म लाभ प्राप्त करेंगे। राजकुमारसिंह [श्नीमन्त सेठ, दानवीर, रायबहादुर, गज्यरत्न ] Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना मैने प० नाथूरामजी डोंगरीय . न्यायतीर्थ इन्दौर रचित "समयसार वैभव" ग्रन्थ की पांडुलिपि देखी। यह भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य विरचित 'समयप्राभूत' नामक ग्रन्थ का भावानुवाद है । प्रथम तो किसी महान ग्रन्थ-कर्ता के अभिप्राय को समझना और फिर उसको छन्दोबद्ध पद्यमयी भाषा मे प्रकट करना----यह एक अत्यन्त कठिन कार्य है। परन्तु, समझा जा सकता है कि पंडितजी का इस दिशा में प्रयत्न सफल हुआ है। आपका परिश्रम सराहनीय है । प्रस्तुत रचना जैन अध्यात्म तत्व के समझने में बहुत कुछ सहायक होगी । यह ग्रन्थ अधिकाधिक प्रचार में आवे, ऐसी शुभ कामना है । जैन उदासीनाश्रम, तुकोगंज, इन्दौर (म. प्र. वंशीधरजेन दि. ८-७-१९७० [स्याद्वादवारिधि, जनसिद्धांतमहोदधि, न्यायालंकार] Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वादाभिनन्दनम् ! [१] निशा में वशो दिशा के बीच फल जाता है जब तम-सोम, उसे लयकर ज्यो दिव्य प्रकाश दिवाकर द्वारा करता व्योम । [२] तथा मिथ्यात्व प्रस्त जब विश्व जैनदर्शन तब निर्मल ज्योति तत्व को करने सत्पहिचान- दिखाता स्यावाद के जोर । वस्तुतः हो जाता असमर्थ तत्वविद् होते पुलकित देख दूर करने तद् भ्रांति महान- विवश हो जैसे चन्द्र चकोर । [४] वस्तु विषयक गुण धर्म अनेक, एक कर मुख्य, शेष कर गौणन होता स्याद्वाद, तो तस्व कथन पय यह दिखलाता कौन ? [५] जनों की पारस्परिक बिन्द्ध-- जयतु ! जिनमुल निर्गत, अवदात दृष्टियों को रेकर बहुमान- परिष्कृत स्थावाद मय बैन । समन्वय द्वार ग्रहण कर कौन विश्व में मंगल मय हो दिव्य बड़ाता अनेकांत की शान ? जैन दर्शन की यह प्रिय दैन ! - नाथूराम डोंगरीय जैन Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-निवेदन भौतिक विज्ञान के नित नये आविष्कारो से चमत्कृत इस युग में अधिकांश जनों को अध्यात्म की चर्चा कुछ अजीब सी प्रतीत होती है । मोहवशात् प्राणी अनादि से ही अपने मुख स्वरूप को भूला हुअा प्राय जड पदार्थों के भोगोपभोग द्वारा ही स्वय व दूसरो को सुख शाति प्राप्त करने कराने की नाना चेष्टानों में निमग्न रहा है और उसकी प्राज भी यही दशा है । यद्यपि जिन जिन वस्तुमो के भोगापभोग में उसने भ्रम व सुख की कल्पना की होती है, उन्हें प्राप्त करने और भोगने मे वह अनेक बार सफलताएँ प्राप्त कर चुका है, किन्तु इससे उसकी वास्तविक सुखी बनने की प्रातरिक अभिलाषा कभी भी पूर्ण नहीं हुई, प्रत्युत ज्यो ज्यो उन्हे भोगा और पर वस्तुप्रो से नाता जोडा त्यों त्यो इसकी नित नई इच्छाए दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ती ही चली गई । फलत. पूर्वापेक्षा अपने को वह और भी दुखी एवं हीन सा अनुभव करता हुप्रा भी दुर्भाग्यवश अपने मति-भ्रम को मृग मरीचिका के समान अब तक भी उन्मलन करने मे समर्थ नहीं हो सका । इस सबंध में जैन दर्शन विना किसी सम्प्रदाय पथ, जाति या वर्ग प्रादि तथा कथित भेद भाव के प्राणिमात्र के हित को दृष्टि मे रखकर सदा ही उच्च स्वर से घोषणा करता रहा है कि सुख शाति की खोज हम जड पदार्थों मे न कर अपने मै करे, अपनी पोर देखे जाने और अपने में ही विश्राम करे; क्यो कि शाति और आनन्द प्रात्मा की अपनी वस्तु है अत. वह अपने में ही प्राप्त होगी । पर वस्तु में जब कि उसका अस्तित्व ही नहीं है तब वह वहाँकैसे प्राप्त हो सकेगी? क्या रेत से तेल प्राप्त हो सकता है ? आत्मा क्या है और क्या नही, अथवा वह है भी या नहीं? उसके सासारिक दुखो का मूल कारण क्या है, क्यो वह मसार परिभ्रमण कर दुखी हो रहा है और किस प्रकार दुखों से मुक्त होकर वास्तविक सुख शाति को प्राप्त कर सकता है ? आदि समस्याओं का समाधान करने के लिए ही समय समय वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा की वाणी के अनुसार जैनाचार्यों ने न केवल धोपदेश द्वारा ही जनता को सबोधित किया, प्रत्युत् प्रथों की रचना कर सदा के लिये उन उपदेशों को स्थायित्व भी प्रदान किया है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान कुदकुद स्वामी का नाम एव स्थान उनमे सर्वोपरि है, जिन्होने अब से करीब दोहजार वर्ष पूर्व प्राकृत भाषा मे मानव समाज को सुख शाति का वास्तविक सन्देश देकर उसका कल्याण किया है। उनके रच हए अनेक ग्रथो मे समयसार (समयप्राभृत) एक अपूर्व प्राध्यात्मिक कृति है, जिसमे प्राचार्य श्री ने अपने परिपूर्ण प्रात्म वैभव का उपयोग कर शुद्धात्मा का स्वरूप (हमारा वास्तविक रूप) अन्य तत्वों के साथ दर्शाकर हमें वह अपूर्व ज्योति प्रदान की है जिसने प्रकाश में प्रात्माका यथार्थ स्वरूप एक प्रकार से प्रत्यक्ष सा प्रतिभासित होने लगता है । इस ग्रंथ का प्रतिपाद्य विषय इतना गभीर और महान है कि जन साधारण तो दूर, कभी कभी जैनागम के विशिष्ट अभ्यासी विद्वज्जनो का भी उसका मर्म समझने में कठिनाई सी प्रतीत होने लगती है। शतान्दियो से गुरु परपरा के विच्छिन्न एव इस ग्रथ के पठन पाठन की शृखला : भग हो जाने के कारण उसके यथार्थ भाव को समझने में असुविधा का होना स्वाभाविक ही है । यही कारण है जो अपने पूर्व मताग्रह जन्य सकुचित विचारो मे उलझे रहने और नयो का यथार्थ ज्ञान न होने से हमारी तत्व चर्चा कभी २ वाद विवाद या विसवाद का रूप तक धारण कर लेती है। अमल में जैनगाम का क्रमिक अभ्यास बिना किये एव निष्पक्ष भाव मे प्रमाण, नय, निक्षेप तथा निश्चय-व्यवहार, निमित-उपादान, हेयोपादेय प्रादि के स्वरूप को ठीक से बिना समझे तत्त्वार्थ का यथार्थ परिशान करने के लिये समयसार का अध्ययन करना, एक प्रकार से तैरना सीखे बिना रत्न प्राप्ति हेतु समुद्र मे प्रवेश करने के समान है । इसके सिवाय बीतराग प्रणीत अनेकान्तात्मक वस्तु स्वरूप का स्वय समझ कर निष्पक्ष एवं बीतराग भाव से ही पात्र अपात्र का ध्यान रखकर दूसरो को समझाना भी नितान्त आवश्यक है, तब ही उसके द्वारा स्वपर कल्याण सम्भव है। इसीलिये ग्रन्थकार एवं टीकाकारो ने अनेक स्थलों पर इस विषय मे तत्व जिज्ञासुमों को सावधान भी किया है। श्रीमत्परमपूज्य अमृतचन्द स्वामी ने, जो ममयसार के टीकाकार भी है, अपने पुरुषार्थ सिद्धथुपाय नामक ग्रंथ की भूमिका मे लिखा है "व्यवहार निश्चयो यः प्रबद्ध तत्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ।" HTTA Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् जो शिभ्य व्यवहार और निश्चय के रहस्य एव स्वरूप को भलीभांति समझ कर तत्व के विषय मे निष्पक्ष भाव की शरण ले कर मध्यस्थ (न्यायाधीश-जज) बन जाता है (किसी एक नय का दुराग्रह नही करता) बही जैन शासन के रस्हय को भली भांति समझ कर उसके मधुर फल को परिपूर्ण तया प्राप्त होता (सम्यक्ज्ञानी बन कर कल्याण का पात्र बनता ) है। प्राचार्य श्री की उल्लिखित चेतावनी की और यदि हम तनिक भी ध्यान दे तो अपने सकुचित दृष्टिकोण से उत्पन्न व्यर्थ की खीच तान के समाप्त होने में तनिक भी देर न लगे, किन्तु मोही जीव के महामोह की महिमा ही निराली है ! वह यहां भी जिज्ञासुभाव का परित्याग कर मोह के कुचक्र मे फँस जाता है और तत्वज्ञान एवं उसके साधनो (नयो और प्रमाणो) के विषय में भी राग द्वेष की शरण लेकर अपने चिर कालीन अज्ञान भावकी ही किसी न किसी रूप मे पुष्टि करने लग जाता है । जब वह भ्रम वश निरानिश्चयकान्त, व्यवहारकान्त अथवा उभयकान्त का प्राश्रय लेकर एक अभिभाषक (वकील) की तरह वीतराग भगवान् की अनेकान्तमयी वाणी को निरपेक्ष एकान्त रूप में प्रतिपादन करता हुआ भी उसे अनेकान्त और अपनी वाणी को स्याहाद घोषित करने का दुसाहस करने लगता है, तब स्थिति और भी विचारणीय बन जाती है । * ऐसे मोही शिष्यो को दृष्टि में रखकर ही उन्हे चेतावनी देते हुए प्राचार्य श्री को अपने उक्त प्रथ पुरुषार्थसिद्धयुपाय के मध्य मे पुन सावधान करना पड़ा। वे लिखते हैं: "अत्यन्त निशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नय चक्रम् । खंडयति धार्यमानं मूर्षानं मटिति दुविदग्धानाम् ।" प्रर्थात श्री जिनेन्द्र का नय चक्र अत्यन्त तीक्ष्ण धारवाला होने के कारण बड़ी ही सावधानी से प्रयोग करने योग्य है, क्योकि जो मूर्ख बिना समझे बुझे प्रसावधानी से इसे धारण करते-प्रयोग करते या खींचतान करते हैं उनके मस्तक को यह तुरंत ही विदीर्ण कर डालता है।" Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः प्राचार्य श्री की उल्लिखित चेतावनी को ध्यान में रखकर ही हमें जिनवाणी (समयसार) का निष्पक्ष भाव से अध्ययन कर उसके मर्म को समझने-समझाने का प्रयत्न करना चाहिये। वस्तुतः निश्चय व्यवहार प्रादि नय साध्य न होकर तत्वज्ञान के साधन है। हेय और उपादेय का निर्णय तत्वज्ञान का फल है । वस्तु स्वयं निश्चय व्यवहारात्मक (द्रव्य पर्यायात्मक) है । इसीलिये जब वह किसी एक नय की मुख्यता से प्रतिपादित होती है तब इतर नयप्रतिपाद्य विषय का गौण हो जाना भी उसके अनेकान्तात्मक स्वरूप के कारण म्वाभाविक ही है । ऐसी दशा में कोई भी नय, चाहे वह निश्चय हा या व्यवहार इतर नय सापेक्ष बना रह कर ही विवक्षावण अपनी बात को आशिक सत्य के रूप में प्रकट कर सत्याश का प्रतिपादक माना गया है, जब कि निरपेक्ष कोई भी नय एकान्त परक होने मे मिथ्यकान्त की कोटि मे चला जाता है । इस ग्रथ का प्रतिपाद्य विषय व्यवहार सापेक्ष निश्चय (शुद्ध) दृष्टि प्रधान है, जो कि ग्रंथ कर्ता के एकत्व विभक्त स्वरूप प्रात्म तत्व का दिग्दर्शन कराने के अपने प्रारभिक प्रतिज्ञात उद्देश्य के अनुरूप ही है । माथ ही यह भी कि प्रतिपाद्य विषय, अथकर्ता के अनुसार उन परमभावदर्शी महान मन्त पुरूषो को न केवल प्रयोजनीय, प्रत्युत आश्रयणीय भी है, जिन्हे वास्तव में भेद विज्ञान पूर्वक स्वानुभूति सप्राप्त है और जिनकी माधना अपनी सर्वोत्कृष्ट मीमा को पहुच चुकी या पहुँचने वाली हैं और जिनकी वृत्तिया राग द्वेष विहीन होकर परमवीतरागता की ओर उन्मुख है। किन्तु जो साधक अभी तक उस परम समरसी भाव या भावना से दूर प्राथमिक दशा मे ही विद्यमान है, उन्हें निश्चय सापेक्ष व्यवहार नय ही नितान्त प्रयोजनीय है । प्रत. इस सबंध में वक्ता की श्रोता की पात्रता अपात्रता पर ध्यान रखना भी परम आवश्यक है । अन्यथा प्राथमिक दशा में विद्यमान व्यक्तियों का समयसार की शुद्धनय प्रधान वाणी से प्रभावित होकर अपने आपको (रागी,द्वेषी, मोही होते हुए भी ) सर्व दृष्टि से ज्ञानी या शुद्ध, बुद्ध, निरजन, निर्विकार रूप मे अनुभव करने लगने से श्रीयुत, विद्वहर म्व. कविरत्न प. बनारसीदास जी के समान उन्ही के शब्दो मे 'ऊँट का पाद' ' बन जाने की सम्भावना को टालना कठिनहै । अस्तु, १. “करनी की रम मिट गयो, भयो न प्रातम स्वाद । भई 'बनारमि' की दशा-जथा ऊँट को पाद।।५९५॥" ---अर्द्ध कथानक (प. बनारसीदासजी की प्रात्मकथा)से साभार Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार का स्वाध्याय करते समय उसके कुछ ही प्रशों का अध्ययन करने पर मुझे स्वत ही कुछ प्रातरिक प्रेरणा उत्पन्न हुई कि मूलपथ एव टीकामो के भावो पर आधारित सरल राष्ट्र भाषा मे निष्पक्ष भाव से एक काव्य की रचना की जावे-जो स्वात सुखाय होते हुए, अध्यात्म प्रेमी अन्य धर्म बन्धुनो को भी नयो की सापेक्ष दृष्टियो से जिन प्रणीत तत्वो के स्वरूप का यथार्थ मे भान करा सके । फलत प्रयास प्रारभ किया गया और अनेक विघ्न बाधाओं को पारकर प्रथम जीवाजीवाधिकार का निर्माण कार्य सपन्न हो गया । इस बीच जब कुछ अध्यात्म रसिकवन्धुमो ने इसका अवलोकन किया तो उन्होने इस रचना को उपयोगी ममझकर किमी भी दशा में पूर्ण करने का आग्रह किया जिसके फलस्वरूप यह “ममयमार-वैभव" आप मब की मेवा में प्रस्तुत करते हुए प्राज मुझे बडे हर्ष का अनुभव हा रहा है। परमागम का प्राण अनेकान्त है जो विभिन्न नयों की परस्पर विरुद्ध दृष्टियो का समन्वय कर वस्तु तत्व की यथार्थता को स्याद्वाद द्वारा प्रकटकर सम्यक्ज्ञान का आधार माना गया है । अन इस ग्रथ मे अनेकात पद्धति का अनुसरणकर ही वस्तु स्वरूप का विवेचन किया गया है । यद्यपि ग्रथ का परिपूर्ण विषय मूल अथ कर्ता तथा टीकाकारो के यथार्थ भावो एवं अभिप्रायो पर ही माधारित हैं, किन्तु "को न विमुह्यति शास्त्र समुद्रे" प्राचार्यों की इस उक्ति के अनुसार अत्यन्त सावधानी वर्तते हुए भी यदि त्रुटिया रह गई हो तो उनकी और सप्रमाण सकेत करने तथा प्रस्तुत ग्रन्थ के सबध में अपनी शुभ सम्मति एव सत्परामर्श शीघ्र ही भिजवाने के लिये विद्वज्जन एव पाठक गण विनम्रभाव से प्रामत्रित हैं-ताकि द्वितीय सस्करण में उनका सदुपयोग हो सके । अन्त मे मै पूज्य गुरुवर्य, अध्यात्म मर्मज्ञ, समाज के मूर्धन्य एवं प्रतिष्ठित विद्वान्, श्रीमान् प. जगन्मोहनलाल जी सिद्धातशास्त्री, प्रधान व्यवस्थापक शाति निकेतन कटनी (जिला जबलपुर) तथा प्रधान मत्री भारत दि जैन सघ, (चौरासी मथुरा)का अत्यन्त प्राभार मानता हूँ कि जिन्होने तत्परता के साथ इस रचना का प्रारभ मे परिशीलन कर त्रुटियो को निरस्त करने में अपना बहुमूल्य योगदान प्रदान कर मुझे अनुग्रहीत बनाया एव मेरे अनुरोध को स्वीकार कर इस प्रथ की सारगर्भित विद्वत्तापूर्ण विस्तृत भूमिका (प्राक्कथन) लिखने की भी कृपा की, जिसमे एक प्रकार से समयसार का सार ही निचोड कर रख दिया गया है। इसके लिये मेरे साथ समाज भी उनका चिर ऋणी रहेगा। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमन्माननीय प्रध्यात्म मर्मज-स्याद्वाद वारिधि, जैनसिद्धांत महोदधि, न्यायालकार, विद्वच्छिरोमणि, श्रद्धेय ब्रह्मचारी पं. वशीधरजी सा. सिद्धांत शास्त्री, प्राद्य अध्यक्ष अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् एवं भू. पू. प्राचार्य सर हुकुमचन्द जैन महाविद्यालय इन्दौर का भी मैं अत्यन्त कृतज्ञ हूँ, कि जिन्होंने जीवन का अधिकाश समय समयसार के अध्ययन में ही विताया होकर बहुत समय पूर्व ग्रंथ का प्रथम अधिकार देखकर इसे पूर्ण करने का प्रोत्साहन एवं प्रेरणा की थी तथा पुनः आद्योपान्त ग्रंथ का अनुशीलन कर उचितसत्परामर्श दिये और अन्त में प्रस्तावना लिखने का भी कष्ट उठाया। समाज के अग्रणी नेता रावराजा अनेक पद विभूषित मा. श्रीमंत सेठ हीरालालजी सा काशलीवाल का मैं परम आभार मानता हूं, जिन्होंने सहर्ष ग्रंथ के प्रथम सस्करण का परिपूर्ण अर्थ भार वहन कर उसे धर्म प्रभावनार्थ समाज की सेवा में भेंट स्वरूप समर्पण किया । गत पर्युषण पर्व में भाद्र शुक्ला चतुर्दशी को इस ग्रन्थ के प्रथम सस्करण का विमोचन समारोह श्री मा. मैया मिश्रीलालजी सा. गगवाल की अध्यक्षता में आयोजित होकर सिद्धात सेविका जैन महिलारत्न, दानशीला मा सा कचनबाईजी सा. के कर कमलो द्वारा सम्पन्न हुआ था। इस अवसर पर हजारों जनता की उपस्थिति मे अध्यक्ष महोदय के अतिरिक्त अनेक पद विभूषित श्रीमत सेठ हीरालालजी सा एव श्रीमंत सेठ राजकुमार सिंह जी सा. तथा पूज्य न्यायालंकार पं वंशीधरजी सा. इन्दौर, श्री प पन्नालालजी साहित्याचार्य सागर एव श्री ५. नाथूलाल जी सा. शास्त्री इन्दौर ने जो अथ की उपयोगिता आदि के सबध मे हार्दिक उद्गार व्यक्त कर अपनी उदारता का परिचय दिया था उसके लिये मैं सभी महानुभवों का प्राभारी हू। ___ अत में इस द्वितीयावृत्ति को इतने शीघ्र प्रकाशित करने में अपने सहयोगी श्री पूरनमल बुद्धिचन्द जी पहाड़या, श्री मिश्रीलाल इन्दौरीलाल जी बड़जात्या, श्री मागीलालजी सा. पाटनी श्री भाई राधेश्यामजी सा. अग्रवाल तथा श्री प. कुन्दनलालजी न्यायतीर्थ आदि स्नेही महानुभावो को मैं हृदय से धन्यवाद देता हूँ ! विनीत : माया गरी Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका इस गतिमान्, अस्थिर, विषम एवं दुःलमय संसार में आत्मा के उसार का एकमात्र उपाय आत्म स्वरूप का यथार्थ परिमान है । 'समयसार' उसका प्रतिपादक अधिकृत ग्रंथ है। 'समय' शम्ब शुद्ध द्रव्य का वाचक है। इस ग्रंथ में इसका विवेचन सार भूत द्रव्य 'शुद्धात्म द्रव्य के रूप में किया गया है । ग्रंथकार श्री भगवान् कुंदकुंव ने पंथ के प्रारंभ में ही इसका प्रतिपादन प्रतिज्ञा रूप में निम्न भांति किया है: तं एयत्त विहतं दाएहं अप्पणो सविहवेण ॥ जदि दाएज्ज पमाणं, चुक्किज्ज छतं ण घेतव्वम् ।।५।। मैं "एकत्व-विभक्त" आत्मा का स्वरूप अपनी सम्पूर्ण शक्ति (आगम जान-युक्ति तथा अनुभव) से ग्रंथ में दिखाऊंगा। यदि बता सकं तो प्रमाण (स्वीकार करना) । किन्तु यदि बताने मैं चूक हो जाय, तो उसे छल रूप ग्रहण न करना। निरहंकारता पूर्वक यह ग्रंथकार को बढ़ प्रतिज्ञा है। एकत्व-विभक्त का यह अर्थ है कि जो अपने निज स्वरूप में स्थित तथा पर द्रव्य से भिन्न हो, उसे ही शुद्ध द्रव्य कहते हैं । लोक में भी शुद्ध पदार्थ उसे कहते हैं जो किसी भिन्न पदार्थ से अमिश्रित हो, तथा विकृत न हो । उदाहरण के लिए 'घृत' को ले लीजिए । यदि उसमें तेल या वनस्पति तेल अथवा अन्य कोई पदार्थ मिला हो तो उसे "शुद्ध घी नहीं कह सकते । इसी प्रकार यदि वह अमिभित होकर भी पीतल आदि बर्तन के योग को पाकर नीलाया हरा हो गया है याबेस्वाद हो गया है, तब भी उसे शुद्ध घृत नहीं कहते। इसी प्रकार "आत्मा" चतन्य लक्षण है, वह कानावरणादि अष्ट कर्म, तथा शरीरादि नो कर्म, और कीपारि भाव कर्म हारा यदि मिश्रित-मलिन है, एवं स्वरूप विकृत हो गया है, तो उसे 'शुवामा' नहीं कह सकते हैं। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसे ही समयसार में निजके स्वरूप में अभिन्न तथा अपने से पृथक स्वरूप वाले पुद्गलावि से तथा अन्य जीवावि संपूर्ण पर द्रव्यो से भिन्न आत्मा को ही "एकत्व विभक्त" आत्मा कहा गया है। किसी भी पदार्थ की शुद्धता स्वास्तित्व (एकत्व) और पर के नास्तित्व (विभक्तत्व) के बिना नहीं होती। यही जैनधर्म के अनेकांत का स्वरूप है । अनेकान्त शासन (सिद्धांत) की मुद्रा (छाप) संसार के अणु-अणु पर है। किन्तु यह ग्रंथ 'समयसार' आत्म कल्याण के ध्येय से ही मुमुक्षुओं के लिए लिखा गया है । अतः इसमें "शुद्ध-आत्मा" का ही विवेचन है । इस शुढात्मा का ही दूसरा नाम 'समयसार' है। निज शुद्धात्म स्वरूप को आगम बल से या गुरूपदेश से जानकर उसको दृढ़ प्रतीति तया उसी में रमण करना ही मोक्ष का मार्ग है। अनादिकाल से कर्म संयोग से तथा तनिमित्त जन्य अपनी मलिनता से यह आत्मा अब हो रहा है। अपनी इस अशुद्धता का इसे भान नहीं है। मोह (मिथ्यात्व) कर्मोदय की स्थिति में इसका ज्ञान भी विकृत होगया है, फलतः इसे अपनी यथार्थ स्थिति को न जानकारी है न उसे जानने की रुचि है। पर में ही मगन हो संयोग वियोग को साथ लेकर आता है। जब यह पर संयोग में अपना लाभ मान कर सुखी होता है, तब उसके वियोग में, जो अवश्यंभावी है, दुखी होना मी इसके लिए अनिवार्य है। यदि इसे पर के परत्व का और स्व के शुद्ध स्वरूप का भान एकबार हो जाय तो इसके सुख का मार्ग खुलजाय । इसी उद्देश्य से आप्त पुरुषों ने आत्मशुद्धि के मार्ग स्वरूप सम्यग्दर्शन शान चरित्र रूप मोक्ष मार्ग का प्रतिपादन किया है। भगवान् उमास्वामी ने सप्ततत्व के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है। इस ग्रंथ में भी आचार्य ने भतार्थनय से सप्ततत्व को जानने तथा श्रद्धान करने की बात लिखी है । तथापि उस तत्वविवेचन के मूल में अभिप्राय एकमात्र यही है कि यह जीव उन तत्वो को, जो पर हैं, पर रूप में जानकर उनसे आत्मा को भिन्नता को पहिचाने, और निज शुढात्मा में ही रमण करे। यही मोक्ष मार्ग है। पंथकार ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस पंथ को नप अध्यायों में विभक्त किया है। 1. जीवानीवाधिकार। 2. ककर्माधिकार। 3. पुण्यापाधिकार । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. आसव अधिकार । 5. संबर अधिकार । 6. निर्जराधिकार । 7.बंध अधिकार। मोक्ष अधिकार । 9. सर्व विशुद्धि अधिकार । ( 10. स्यावाद अधिकार ) इनका संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जाता है। जीवाजीवाधिकार इसमें जीव के एकत्व की अर्थात् 'स्वसमय' को कथा है, तथा बंध की कथा अर्थात् ‘पर समय' की भी कथा है । स्वसमय कथा आनन्ददायिनी है और परसमय की कथा विसंवादिनी है। जीव तो ज्ञायक स्वभावो स्वयं अनन्त चैतन्य का ज है । स्वरूप से त्रिकाल शुद्ध है । ज्ञानी के सम्यग्दर्शन शान चारित्र है, ऐसा कथन (भेव रूप कपन) व्यवहार नय से किया जाता है । परमार्थनय (निश्वयनय ) से देखा जाय तो आत्मा अखण्ड है, ज्ञान दर्शन चारित्र से अभिन्न है, उसमें वित्व-सीमपना नहीं है । भेव कथन ही व्यवहार कथन है तथा अभेव स्वरूप वस्तु का अलंड एकाकार सा कि वह है-वैसा वर्णन करना निश्चय परक कथन है। वस्तु का स्वरूप यदि जानना है तो उसे भेद २ कर ही जाना जा सकेगा। इस अपेक्षा से व्यवहार नय उपयोगी है, उसके बिना निश्चयात्मक अखंड, एक वस्तु का स्वरूप नहीं जाना जा सकता, इसीलिए व्यवहार मय भी प्रयोजनीय है, ऐसा कहा गया है। इन दोनों को भेवनय और अभेदनय-ऐसे दो नाम देना ही ज्यादा सुसंगत होना । भेद प्रतिपादकता भी दृष्टि से जहाँ वस्तुगत भेद प्रतिपादित हो वहां वह नय वस्तु के निश्चयात्मक स्वरूप का ही निर्देश करता है, अतएव उसे "स्वाभितो निश्चयः" इस निश्चय के लक्षणानुसार निश्चयनम में ही शामिल कर सकते हैं। तथा “पराश्रितो व्यवहारः" इस व्यवहार के लक्षण के अनुसार परतव्य सापेक्ष आत्मा के वर्णन को ही व्यवहार नय कहेंगे । संसारी आत्मा को, उसको उस अशुद्धावस्था में भी "मात्मा" कहना, यह पराश्रित व्यवहारनय का कमन है । इस नय का भी प्रयोजन पर के परत्व का प्रतिपादन ही है, अतः शुद्ध पदार्थ के बोष कराने के लिए इसका भी प्रयोजन है। अशुखात्मा के प्रतिपादक व्यवहार नय को अभूतार्थ (अशुद्धार्थ) का प्रतिपादक होने से अभूतार्थ कहा है, और शुद्वात्मा (भूतार्थ) के प्रतिपावकमय निश्चयनय को भूतार्थ कहा गया है। संसारी जीव की वर्तमान रागादिरूप अवस्था आत्मा का शुद्ध स्वरूप नहीं Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है-माव इतना ही प्रयोजन है। यह अभिप्राय नहीं है कि व्यवहार नय और उसका विषय संसारी जीव असत्यार्य है-उनका अस्तित्व ही नहीं है । यदि इसे सर्वथा असत्यार्य माना जाएगा तो संसार का असत्य होगा और यदि संसार असत्य है तो मोक्ष के उपदेश की क्या आवश्यकता है और वह किसके लिए है ? पंथकार को इस नय विवेचन दृष्टि को पहचान कर ही पंथ का मर्म जाना जा सकता है, अन्यथा नहीं। इसी दृष्टि से पंथकार ने भूतार्थ (निश्चय) नय से जीवादि नव पदार्थों का विवेचन किया है और यह बताया है कि नवपदार्थों का यथार्थ स्वरूप मानकर उनमें जीच तत्त्व का यथार्थ स्वरूप क्या है, उसे पहिचानकर उस निज आत्मा की श्रद्धा करो, यही सम्यग्दर्शन है । यदि व्यवहार पक्ष से प्रतिपादित जीवादि के स्वरूप को यथार्थ (शुब) पदार्थ मान लोगे तो अशुद्धता ही हाथ लगेगी । अतः ए व्यवहारी जनो ! शुद्ध निश्चय नय से वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानकर उसे प्राप्त करने में अप्रसर होमो। भेव विज्ञान के बल से पर से भिन्न विकाल शुद्ध स्वरूप निजात्मा को पहिचानो। जब आत्मा निज स्वभाव से शुख है, तब मुमन को यह प्रश्न सहज ही हो सकता है कि मेरी वर्तमान अशुद्धावस्था क्यों हुई? और बह शुख कैसे होगी? प्रकारान्तरसे यह प्रश्न इस रूप से भी कहा जा सकता है कि मेरी दुलमय संसारावस्था क्यों है ? और वह कैसे मिटे? ___ इस प्रश्न का समाधान करने के लिए कोई ईश्वर को कर्ता मानते हैं। कोई पौनगलिक जड़ कर्म को कर्ता कहते हैं। किंतु परके कर्तृत्वका और भोक्त्तव का अभाव है जिसका प्रतिपादन द्वितीयाधिकार में किया गया है, जिसका नाम है कर्ता-कर्माधिकार इस अधिकार में आचार्य श्री ने यह स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि प्रत्येक द्रव्य अपने अपने गुण सहित अपनी अपनी पर्यायरूप स्वयं परिणमन करता है। परिणमन करना द्रव्य का स्वभाव है । कोई एक द्रव्य दूसरे अव्य के परिणमन का न कर्ता है और न उसका भोक्ता है । यह जैन धर्म का मूल सिद्धांत है। इसके अनुसार आत्माव्य भी अपने परिगमन का स्वयं कर्ता है, स्वयं भोक्ता है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वर-पर आत्मा या जड़-कर्म इसके परिणमन के कर्ता भोक्ता नहीं है। अपनी वर्तमान अशुद्ध परणति का कर्ता एवं उसके फलका भोक्ता स्वयं जीव है, और उसे परिवर्तित कर अपनी शुद्ध परणति रूप परिणमन का कर्ता और भोक्ता भी जीव ही होगा । अन्य पदार्थ नहीं। यद्यपि प्रत्येक प्रकार्य के परिणमन में पर प्रव्य निमित्त होता है, तथापि निमित्त उस परणति का कर्ता नहीं होता । किसी पदार्थ को परणति किसी दूसरे पदार्थ को परणति में अनुकूल पड़े तो वह 'निमित्त' संज्ञा पाती है, उसे "निमित्त कारण" कहते हैं। निमिस अपनी पर्याय रूप प्रवर्तता है । तथापि उसकी पर्याय अनुकूलता म से पर द्रव्य की परणति में सहायक (सह-ग्यते, साप साथ चलना) होती है। इसी से उसे निमित्त कहते है । वह पर का कार्य स्वयं नहीं करता। यदि वह परका कार्य करे तो उसे उसकी स्वयं की परणति और परपरगति-नोनों का कर्ता होने से द्विकिया कर्तृत्व-प्रसंग आयगा, इसका निषेध पंथ में किया है। यदि ऐसा माना जाय कि निमित्त हो पर का कार्य करता है और उसकी परगति का कर्ता कोई अन्य निमित्त है, तो उस निमित्त की परमति का कर्ता भी कोई भम्ब निमित्त होगा, तब अनवस्था बोष आयगा। फलतः तर्क से भी यह सिड है कि किसी अन्य की परमति का कर्ता पर प्रब्य नहीं होता। प्रत्येक द्रव्य अपनी अपनी परणति का स्वयं का है। और यह परिणमन द्रव्य का स्वभाव है। स्वभाव उसे कहते हैं जिसके होने में पराभयता न हो। इतना निर्णीत हो जाने पर भी प्रश्न अपनी जगह बड़ा है-कि जीव अशुद्धयोंहमा? और शुख कैसे होगा? उत्तर यह है कि जीव अपने पूर्व में बांधे हुए कर्मोदय के निमित से स्वयं रागी देषी बनता है, और अपने इन राग देवादि परिणामों के निमित से नवीन कर्म बंध करता है। पुनः कालान्तर में इन बड कर्मों के उदय के निमित्त से रागी वेषी होता है और फिर इन विकृत परिणामों से कर्मबंध करता है । ऐसी परंपरा बीज बुलवत या पिता पुत्र वत् अनादि से चली आ रही है। यदि जीव गुरु के उपदेश और मागम के अभ्यास से स्वस्वरूप का मानकर, अपने में कर्मोदय की स्थिति वर्तमान रहते हुए भी उसे निमित्त नबनावे, अपने स्वरूप कामवचन Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करे, कर्मोदय का अवलंबन न करे तो कर्म निमित्त नहीं बन सकता और ऐसी स्थिति में यह बीच अपनी उस स्वपरणति का कर्ता भोक्ता होगा जो उसने अपने पुरुषार्थ से अपने में प्रकट की है। कर्म का न कर्ता होगा और न भोक्ता होगा। यही रत्नत्रय का रूप है। जो उसके मोल मार्ग का (संसार बंधन के तोड़ने का) हेतु है। बंधन को वह अनर्थ परंपरा इस प्रकार (बग्घबीजवत्) स्वयं समाप्त हो जाती है। इसे ही मोक्ष कहते हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिए व्यक्ति को शुभ और अशुभ दोनों पर निमित्त जन्य परणतियों का त्याग कर शुद्ध परणति का अवलंबन करना चाहिए, जो स्वाधीन है। शुभरूप परिणाम पुण्यबंध के कारण हैं और अशुभरूप परिणाम पाप बंध के कारण है । बंध को अपेक्षा दोनों समान है। इस बात के प्रतिपावन हेतु तृतीय अधिकार पुण्य पापाधिकार को आचार्य श्री ने लिखा है । इस अधिकार में यह निर्देश किया है कि जीव के भाव तीन प्रकार है-शुब, शुभ और अशुभ । मोह राग-द्वेष रूप विकारों से रहित आत्मा के जो परिणाम हैं वे शुद्ध भाव हैं, इन भावों से जीव को कर्म बंध नहीं होता, ये मोल के लिए साधन भूत है । तथा दान-पूजा-प्रताविक शुभ कार्यों के निमित्त से जो आत्म परिणाम होते है ये शुभ भाव हैं, इनका फल पुष्पकर्मका बंध है । और मिथ्यात्व के परिणाम तथा विषय कषाय के कारण हिंसादि पापरूप व भोगादिरूप परिणाम है ये अशुभ भाव हैं, जिन का फल पाप कर्म का बंध है। पुण्य कर्म के उदय से देव मनुष्यादि गति तथा तत् संबंधी सांसारिक इन्द्रिय अन्य सुख की प्राप्ति होती है, और पाप कर्म के उदय से जीव नरकतिर्यञ्चगति व तत् संबंधी विविध प्रकार के दुःख प्राप्त करता है। सर्व संसारी जीवों की प्रवृत्ति अधिकतर पापमय होती है, जिसके फल स्वरूप उन्हें कुयोनियों में दुःख भोगना पड़ता है, अतः पाप को छोड़कर पुष्प करना उत्तम माना गया है। शास्त्रकारों ने प्रथमानुयोगादिप्रंथों में पुण्य की बहुत महिमा गाई है, तथापि मोक्ष मार्ग की दृष्टि से दोनों ही बाधक हैं। पुण्य पाप दोनों बंधन है, एवं बंधन मोक्ष का Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्य फल को रुचि का अर्थ सांसारिक विषयों की बांछा हो तो है, और विषयों की वांछा स्वयं पाप रूपभाव है। तब प्रकारान्तर से रुचिपूर्वक पुण्य का भोग पापबंध का कर्ता ही होगा। विचार कीजिए कि जिस कार्य का परिणाम अन्तिम रूप से पाप का बंध हो उसे उसम कसे कहा जाय ? बह जीव का हित रूप से हो सकता है ? यदि किसी व्यक्ति से कहा जाय कि आपको आज राज्यसिहासन का पूर्ण अधिकारी बनाया जाता है, संपूर्ण राज्य वैभव का आज तुम भोग कर सकते हो, पर इसकी कीमत कल फांसी पर बढ़कर चुकानी होगी, तो कोई भी बुद्धिमान ऐसे राज्य सिंहासन का दूर से ही परित्याग करेगा। इसी प्रकार जिस पुण्यबंध के उवय से प्राप्त सांसारिक मनुज-मेव पर्याय के मुख भोग, पाप का बंध कराकर नरक तिथंच आदिपर्यायों में पुनः घोर दुःख के कारण बन जायेंउस पुण्य को भी हेय ही मानना होगा। यह सही है कि मिया इष्टि की अपेक्षा सम्यवृष्टि जीव के पुण्य बंध अधिक होता है। संयमी जीवों के उससे अधिक पुण्यबंध होता है। पर ये सीव पुष्य को भी हेय मानकर ही चलते हैं। क्योंकि इनकी दृष्टि सांसारिक सुख प्राप्ति की नहीं होती, ये तो पुण्य-पाप दोनों को बंध का कारण जानकार उससे ऊपर बढ़ना चाहते हैं। इसीलिये सम्पदृष्टि जीव स्वर्गादि मतियों में, इन्द्रादि के वैभव पाकर, तथा मनुष्य गति में बावर्ती गादि पद की विभूतियां पाकर भी इन सब को तथा वहां की लम्बी आयु को भी मोक्षमार्ग के लिए अन्तराय रूप ही मानते हैं । वस्तुतः विचार करने पर आप भी अनुभव करेंगे कि जैसे सुवर्ण के पीजड़े में बंद हुमा मिश्री खीर खाने वाला भी तोता, जिसकी चोंच सोने से मनाई गई है, अपनी उस संपूर्ण सुखमय दशा को बंधन रूप मानकर दुखी है, और अवसर पाते हो पिंजरा छोड़ स्वतंत्र होकर अपने को सुलो अनुभव करता है। इसी प्रकार जिसकी दृष्टि शुद्ध हो चुकी-जिसकी दृष्टि से मोह जन्य भ्रम दूर हो गया है वह सम्यवृष्टि भी पुण्योदय से प्राप्त समस्त वैभव को अपने इष्ट-मोक्ष मार्ग के लिए बंधन रूपपुलरूप-पराधीनतारूप और अंतरायल्प मानता है । अतः मिथ्यात्व का पर्वा हटाकर सम्यग्दर्शन के विमल नेत्र से देखने पर पाप-पुण्य दोनों बंधनरूप-पराधीनतारूप-दुख रूप और मोक्ष महल में प्रवेश के लिए अर्गलारूप ही हैं। यही भाष इस तृतीय अधिकार में विशेषरूपसे प्ररूपित हैं। यहां यह विवेचन भी सामयिक Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगा कि कुछ बंधु-"पुण्ण फला अरिहन्ता" आदि प्रवचनसार को इस गाथा का यह अर्य करते हैं कि पुण्य के फल से अरहन्त अवस्था प्राप्त हुई है, ऐसा समझना नितांत भूल है। अरहन्त बशा तो चार धातिया कर्म के नाश होने से प्राप्त हुई है। अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति पुण्योदय से नहीं है, पातिया कर्मों के नाश से है। गाथा में तो यह प्रतिपादित हैं कि अरहन्त दशा में संपूर्ण श्रेष्ठतम पुण्य का परिपाक हुआ है, उसका फल-समवशरणादि विभूति, देवेन्द्रों-चकतियों द्वारा प्राप्त पूज्यपना, शरीर को परमौवारिकता-आदि हैं-जो संसार में किसी अन्य पद में प्राप्त नहीं होते। तथापि विचार कीजिए तो ये ही सब पुग्योदय रूप अधातिया कर्म को प्रशस्त प्रकृतियाँ हो तो उनके मोन के लिए बाधक हैं। अब तक इनका नाश नहीं होता तब तक वे बरहन्त प्रभु सिवावस्था प्राप्त नहीं कर पाते । अतः पुष्पोदप की पराधीनता उनको स्वाधीनता की बाषक है। अध्यात्म ग्रंथों का विवेचन मोक्षमार्ग की दृष्टि से है। मोक्षमार्ग और बंधन मार्ग बोनों परस्पर विरुद्ध हैं। पुण्य के उदय आने पर प्राप्त सामग्री का उपयोग जो अपने पुण्य-पाप के बंधन तोड़ने में ही करते हैं वे धन्य हैं ! ऐसे व्यक्तियों का पुष्य मोक्षमार्गका साधन बना-ऐसा मात्र उपचार कथन है, परमार्थ में तो वह बाषक भी है। पुष्प पापाषिकार-पुण्य और पाप की रुवि छाकर बीव को मोल मार्ग के साक्षात् सापक शन भाव को प्राप्त करने को प्रेरणा देता है। इसका प्रकारान्तर से स्पष्ट विवेचन करने के लिए ही चौपा मानव अधिकार लिखा गया है। मिथ्यात्व-अधिरतिसावाय-योग इन चार प्रकार के कारणों से कत्रित होता है। ये चारों ही जीव विभाव भाव स्वरूप होने से जीव से अनन्य है। सम्यक्यूंष्टि जीब से आलब नहीं होता, इसका कारण यह है कि वह मानी है। और उपत चारों भाव अज्ञानमय भाव हैं। यहाँ सम्यदृष्टि से या मानी से तात्पर्य पूर्णरीत्या जोमानमय उपयोग को प्राप्त हैं Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनसे है, उनके उपयोग में राग-वेष-मोह भाव नहीं है, अतः मालाच नहीं करते। रागादि रहित जीव प्रबंधक कहा गया है। मानगुण का परिणमन यवाल्यात चारित्र के पूर्व अधन्यभाव रूप परिणत होता है, वहां राग का सद्भाव होने से मानी अपने जघन्य ज्ञान गुण रूप परिगमन के कारण इससे सिद्ध है कि इस प्रकरण में "शानी अबंधक है" ऐसा जो कहा गया है, वहां मानी से तात्पर्य यथाल्यात चारित्र को प्राप्त रागादि कषाय के उवय रहित दश गुणस्थान से उपरितन वर्ती जीव से हैं। यद्यपि चतुर्थ गुणस्थान से ही सम्यग्दृष्टि ज्ञानी संज्ञा प्राप्त है, तथापि इस प्रकरण में रागद्वेष मय परिणाम को "अज्ञान" भाव ही कहा है, अतः चतुर्यादिगुणस्थान में होता है वह रागाविमय अमान परिणाम से ही है । तात्पर्य यह है कि चतुर्थादिगुण-स्थानी सम्यक्त्व के सद्भाव के कारण 'ज्ञानी कहा जाता है। उसके मोह (मिथ्यात्व) और अनंतानुबधी संबधी रागादि का अभाव है अतः वह संसार के कारणभूत प्रकृतियों का अबंधक है । पंचमादिगुणस्थान भी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान-संज्वलन के उज्य मन्य रागादि के अभाव के कारण अधिकाधिक अबंधक है । तथापि जितनी कवाय विद्यमान है, उस दृष्टि से वे अपने रागादि भाव के सदभाव में बंधक है। ग्यारह बारहवें तेरहवें आदि गुणस्थानों में सर्वत्र रागोदय की अविद्यमानता में वह सर्वथा अबंधक है। प्रकृति प्रवेश मात्र बंध को यहां बंध नहीं कहा । यद्यपि इन गुणस्थानों में यह पाया जाता है तथापि उसकी अविवक्षा है। इस प्रकार मय पियका से उक्त विवेचन समाना चाहिए इसके पश्चात् मानव का विरोधी संबर है-इस बात के प्रतिपादनार्थ पांचया संवर अधिकार प्रहपित है । इसमें आते हुए कर्म को (मानव को) रोकने का (संबर का) प्रबल कारण 'भेदविज्ञान' को बताया है। उपयोग ज्ञानात्मक है, वह कोषापात्मक नहीं है। कोषादि कोषाधात्मक विकार ही है, वे हानात्मक नहीं है। इस मूल सिद्धांत को समझकर उपयोग स्वरूप मुखात्मा उपयोग ही करता है, कोषावि नहीं, अतः उसे मानव भी नहीं होला, संबर होता है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अग्निगत सुवर्ग अपनी सुवर्णता को जैसे नहीं त्यागता, इसी प्रकार कर्मोदय से तप्यमान होने पर भी सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञान भाव से विचलित नहीं होता, तब मानव कैसे होगा? निश्चयनय से आत्मा के शुद्ध स्वभाव पर जिसको दृष्टि है, वह शुद्धात्मा का ही आलंबन करता है-उसे जान मय भाव ही होते हैं जो ज्ञानी अपने को पुण्य-पाप रूप शुभाशुभ योगों से बचाकर, अपने ज्ञान दर्शन स्वभाव में ही स्थिर होता है, उससे व्युत नहीं होता, वह आत्रक से बचकर सर्वकर्म विनिमुंक्त हो जाता है। कवायाध्यवसान हो कर्मबंध के कारण है, आत्म स्वभाव नहीं, दोनो में भेव है। ऐसा भेद विज्ञान प्राप्त कर जिन्होंने प्रक्रिया द्वारा (चरित्र द्वारा) अपने को कषायादि से भित कर लिया, वे ही सिद्धि को प्राप्त हुए हैं। तथा जो ऐसा नहीं कर सके वे संसार बंधन में बन रहे हैं, हैं , और रहेंगे। इन विचारों का आलंबन कर जिन्होंने अपने को निरामद बनाया है, बेहो कर्मनिरा के अधिकारी बनते हैं। इस बात का प्रतिपादन आचार्य श्री ने अप्रिम छ अध्याय निर्जराधिकार में किया है । इस अधिकार में यह प्रतिपादित है कि रागादि भाव रहित सम्यग्दृष्टि के उदय में आने वाले कर्मयोग बंधक न होने से निर्जरा केही कारण है। उपयागत कर्म अपना फल देकर आरमा से भिन्न हो तो होता हैं। ऐसे समय अज्ञानी (रागी) नवीन कर्मबंध कर लेता है, अतएव उसे उदयागत कर्म की निर्जरा से कोई लाभ नहीं है। उसे यहां “निर्म।" शब से नहीं कहा। किन्तु जानी (विरागी) जीव कर्मों का उपय आने पर भी अपने ज्ञान स्वभाव में हो रत रहता है, उदय रूप भाव को प्राप्त नहीं होने से वह अबंधक रहता है । अतः उसके जो कर्म उपप में आकर खिरते है-निर्जरा होती है उस निर्जरा को यथार्य निर्जरा कहते हैं। जहां यह लिखा गया है कि: ___ "सम्यक्त्वी के भोग निर्जरा हेतु हैं" यहां उक्त तात्पर्य ही समझना चाहिए । बानी अपने ज्ञान वैराग्य के बल से उपयागत.कर्म Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोपते हुए भी नहीं भोगता । इसका कारण यह है कि सुल दुलादिका वेवन शान के आधार पर हो तो होता है, जब ज्ञानी अपना उपयोग कर्म के उदय जन्य सुख दुखादि पर न लगाकर अपने स्वरूप में ही लगाता है तब उसे 'उपभोग' संज्ञा ही नहीं दो सकती। इसी अभिप्राय से लिखा गया है कि "सम्यग्दृष्टि भोगते हुए भी नहीं भोगता" कर्म निर्जरा का यही एकमात्र उपाय है । इसीलिये इस प्रकाश में आचार्य उपवेश करते है कि "तुम अपने इसी शानभाव में प्रीति करो, इसी में सन्तुष्ट होओ, नित्य इसी में स्थिर होमो, और इसी में तुष्टि का अनुभव करो, तुम्हें उत्तम सुख की प्राप्ति अवश्य होगी। इसके पश्चात् सांतवां अधिकार है बन्ध-अधिकार बंध के कारण रागादि विकारी भाव है। उनके होने पर अवश्य-बंध होता है और रागादि के न होने पर कर्मबंध नहीं होता। मिथ्या दृष्ट जीव नाना प्रकार के कार्यों को करता हुआ अपने उपयोग को रागादिमय करता है, अतः बंधक होता है। रागादि अध्यवसान को ही अज्ञानभाव "बंधक-भाव" कहा गया है। उसके (कषायभाव के) सद्भावमें की गई क्रियाएँ बंधक कही जाती है और उसके अभाव में की गई क्रियाएँ अबंधक । जो क्रिया मात्र को बंधक कहते हैं उनका कथन युक्ति युक्त नहीं है । उदाहरण के लिए यहां बताया गया है कि__"जो व्यक्ति ऐसा मानते हैं कि मै दूसरों की हिंसा करता हूँ, या मैं दूसरों को प्राणदान बेकर दया करता हूँ। मै दूसरो को दुखी सुखी बनाता हूँ अथवा मेरो हिसा दूसरा कर सकता है, वह दया भी कर सकता है। मुझे दुखी सुखी कर सकता है"तो यह मान्यता मिथ्या है। कोई किसी को न मार सकता है, म जिला सकता है, न दुखी सुखी कर सकता है। प्रत्येक प्राणी अपनी आयु के उदय में जीते हैं, उसके क्षय से मरते हैं, अपने शुभाशुभ कर्मोवब से सुखी- दुखी होते हैं । ऐसी मान्यता ही सत्य है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथापि मैं पर को माहें, उसे दुनो सुली करूं, उसे जीवन दान दूं, ऐसी भावना प्राणी में उत्पन्न हो सकती है, और इन भावनाओं से वह अपने को पुण्य पाप से लिप्त करता हैबंधक होता है। इसका यह विपरीतार्य नहीं लेना चाहिए कि जीव को जब हम मार नहीं सकते तब हमें हिंसा का पाप ही क्यों लगेगा? ययायं में पाप उसके मरने पर नहीं है, तुम्हारे मारने के भाव पर निर्भर है। वह मरे या न मरे, आप मारने के परिणामों से पापबंध करता तत्काल हो जाते हैं। मरण और दुख सुख तो उसे अपने कर्मोदय से प्राप्त होगे। आप उसके कर्म के स्वामी नहीं हो सकते । अतः अपने को कायाच्यावसान से बचाने वाला ही बंध से सारांश यह कि हिंसा पर को नहीं होती, हिंसा अपने दुष्परिणाम के कारण अपनी ही होती है। अपने स्वभाव का घात अपनी हिसा है। निश्चयनय से आत्मा के यथार्थ प्राण उसके शान दर्शन ही हैं, न कि इन्द्रिय बल आयु आदि ।ये तो व्यवहार में प्राण कहे जाते हैं । तब अपने मान वर्शन प्राणों का धात हम स्वयं रागी द्वेषी बन कर करते हैं । फलतः घात हमारा ही होता है, पर का नहीं । अतः स्वघाती होने से हम बंधक हैं। मोक्ष-अधिकार इसमें बताया है कि जो बंध के कारण और उनका स्वरूप जान कर अपनी आत्मा का बचार्य स्वरूप पहिचान कर बंध भावों से विरक्त होता है, वही कर्मों से छटसा है। लक्षण भेद से बंध का स्वरूप और धरहित आत्मा का स्वरूप पहिचाना जा सकता है। अपनी प्रज्ञा से दोनों को एपक पृथक् मालकर बंध से विरक्त होना चाहिए। और अपना स्वरूप मात्मा से मिल लक्षण वाले, मिल सत्ता वाले, मा स्वरूप पोद्गलिक शरीरादिको वनिय के विषय भूत पदार्थों को कोन बुद्धिमान अपने कहेगा? परव्य से ममत्व करने वाला चोर कहलाता व बंधन में पड़ता है । वह सदा शंकित भी रहता है। प्रतिकमणादि का करना जहां नीचली (अधस्तन) अवस्था में अमृतकुंभ कहा गया है, वहीं ऊपरी (उपरिम) बशा में प्रति ममण की स्थिति का मानाही विषकुम्भ कहा गया है। मानी की शा तो निर्दोष ही रहनी चाहिए। प्रतिक्रमण तो "अपराध की स्थिति है' Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसी सूचना देता है। अतः यदि उच्च बशा प्राप्त पवित्र पुरुष को प्रतिक्रमण करना पड़ता है, तो उसके लिए वह लज्जा काही विषय है। कारण कि निरपराधी क्यों प्रतिक्रमण करेगा? सर्व विशुद्ध ज्ञानाधिकार इस अधिकार में यह बताया गया है कि आत्मा का कर्म के साथ निमित्त नैमित्तिक भाव है, कत्तुं कर्मभाव नहीं है । निमित्त वैमित्तिक भाव के कारण हो बंध कहा जाता है। और व्यवहार से इसे कतुं कर्म संबंध भी कहते हैं। पर परमार्थ में कतकर्म भाव नहीं है। कर्तृत्व के अभाव में वह भोक्ता भी नहीं है। मानी कर्म का न, कर्ता है, न भोक्ता है। वह केवल उनका शायक है। इसी प्रकार 'कर्म जीव को अज्ञानी रागी वेषी करता है-यह मान्यता भी सिद्धांत विरुद्ध है। जीव की ही अज्ञान मय परणति है। अतः अपनी परणति का यथार्यकर्ता वही है, भले ही उसमें कर्म का निमित है । इसी प्रकार पुद्गल वर्गणाएं कर्म प्रकृति रूप भले ही जीव के रागादि परिणाम के निमित्त से होती है पर उसका यथार्थ कर्ता पुद्गल द्रव्य ही है, जीव नहीं, । दोनों का एक दूसरे को परणति में मात्र निमित्त नैमित्तिकता है। पथार्थ कर्ता। अपने कार्य से तन्मय होता है। जीव कर्म को पर्याय से और कर्म जीव की पर्याय से तन्मय नहीं होता । व्यवहार में कर्ताकर्म भिन्न होते हैं, निश्चय में कर्ताकर्म भाव विभिन्न पदार्थों में नहीं होता। जीव में रागादि भाव होते है, उसमें परम का अपराध नहीं है, मह जीव स्वयं अपने 'अमान से रागादि रूप परिणमन करता है। मतः स्वयं अपराधी है। जिनकी दृष्टि केवल पर कतत्व पर है, वे मोहवाहिनी को नहीं सर सकते। रागोत्पत्ति में स्पवान रसवान मारि पानी को दोष नहीं दिया जा सकता; लॉक थे जीव से यह नहीं कहते कि तुम हमें भोगो। जीव अपने मकान से उन्हें स्वयं स्वीकार करता है, अतः पार्थ में यह स्वयं अपराधी है। इसी प्रकरण में प्रतिक्रमण प्रत्यास्यान आलोचना का स्वरूप प्रतिपादन किया गया है। कृत कारित अनुमोदना, मन-वचन, काय, आदि के निमित्त से तीनों के 49-49 भंगकर उन दोषों से छूटने की प्रक्रिया जतलाई है । जिससे जीव अपराधों से मुक्त होकर विशुद्ध बने। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्त में सकल कर्म सन्यास भावना का प्रतिपादन किया गया है। अपनी अचल शुद्ध चैतन्य स्वरूप प्रात्मा को प्रात्मा में ही सचेतन करना 'सकल कर्म सन्यास' भावना है। सकल पर द्रव्यों से भिन्न सकल विकृत भावों से रहित 'शुद्धात्मा' है, ऐसा दरसाया गया है। __मोम का मार्ग लिंग (भेष) में नही, रत्नत्रय में है । प्रात्मा को रत्नत्रय में स्थिर करो, उसका ही ध्यान करो, उसोमें विहार करो। अन्य द्रव्य और बातो की ओर ध्यान न दो। यही प्रात्मा के सर्व विशुद्ध होने का मार्ग है । अन्त में प्राचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने ग्रन्थ मे प्रतिपादित विषय की महत्ता का प्रदर्शन किया है । टीकाकार श्री अमृतचन्द्र स्वामी ने ग्रंथ के अन्त में "स्थाहादाधिकार" विशेष रूप में लिखा है। जिसमें अनेकान्त के प्रयोग की समस्त प्रक्रिया बताई गई है । सत्वप्रसत्व, नित्यत्व अनित्यत्व, एकत्व-अनेकत्व प्रादि परस्पर विरोधी धर्मों को अविरुद्धता अनेकान्त द्वारा प्रतिपादित है। यह ग्रंथराज जिस विषय का प्रतिपादन करता है वह तत्व व्यवस्था का यथार्थ चित्रण है। इससे प्रात्मा को परम सन्तोष होता है। तत्त्वज्ञान ही शान्ति का प्रमोष उपाय है इसमें सन्देह नहीं । प्रतः प्रात्म शान्ति के लिए अध्यात्म शास्त्र का बहुत बड़ा उपयोग है। ग्रन्थ की प्रामाणिकता एवं परम्परा अंतिम तीर्थकर परमभट्टारक देवाधिदेव भगवान महावीर चतुर्य काल के अन्त में निर्वाण को प्राप्त हुए। वर्तमान काल में उनका ही तीर्थकाल चल रहा है। वे सर्वज्ञ सर्वदर्शी परसवीतराग थे, प्रतः उनका उपदेश अत्यन्त प्रामाणिक था। उनके उपदेशानुसार उनके मुक्ति गमन के पश्चात् क्रमशः गौतम, सुधर्माचार्य, जंबूस्वामी ये ३ केवली तथा उसी पट्ट पर ५ श्रुत केबली, ग्यारह एकादशांगधारी, पांच दशपूर्वधारी, पश्चात् बस, पाठ आदि अंगधारी ऐसे अनेक मनिराज भगवान् के उपदेश की परम्परा को प्रागे बड़ानेवाले हुए हैं। यपि इस काल में केवली, श्रुतकेवनी, अंगपूर्णधारी अन्य अनेक प्राचार्य भी हुए हैं, तथापि भगवान् के पश्चात् जो सघ था, उसके अधिनायक पर पर ६८३ वर्ष में उक्त प्राचार्य हो उक्त पदों पर प्रतिष्ठित मानी हुए हैं। तिलोयणपण्णत्ती में निम्न पत्र है - Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जादी सिद्धो वीरो तहिवसे गौतमो परमगाणी । जादो तस्सि सिद्धे, सुधम्मसामी तदो जादो ॥१४७६ ॥ सम्हि कद कम्मणासे, जबसामिति केवली जादो। वम्हि सिद्धि पवणे केवलियो गति प्रणबद्धा ॥१४७७॥ साराश यह कि वीरनाथ के निर्वाण होनेपर उसी दिन गौतम परमज्ञानी (केवलज्ञानी) हुए। उनके निर्वाण होने पर सुधर्मस्वामी (संघ नायक) हुए तथा परमज्ञानी हुए। जब वे फर्म नाशकर निर्वाण गए तब जंबूस्वामी (संघ नायक) केवली हुए। इस तरह पट्टपरपरा से अनुबद्ध केवली हुए। इसके बाद पट्टाचार्यों में अनुबद्ध केवली नहीं हुए। पर अननुबद्ध केवली और भी हुए हैं यह नीचे पद्यों से ध्वनित है। देखिये--- आगे तिलोयणपणती मे निम्न पच हैं :-- वादि वासाणि, गौतमपहुंदीण गाणवंताणं । धम्मपवट्टण कालं, परिमाणं पिण्डहवेण ॥१४७८॥ कुंडलगिरिम्म चरिमो, केवलणाणीसु सिरिधरो सिहो। चारण रिसीसु चरिमो, सुपासचंदामिधाणोय ॥१४७६॥ इसका अर्थ यह है कि भगवान् श्री महावीर के पश्चात बासठ वर्ष गौतमारि ज्ञानियों (केवल ज्ञानियों) का समुदाय रूप से धर्म प्रवर्तन काल है। किन्तु केवल शानियों में अन्तिम केवली श्री "श्रीधर" कुडरगिरि से निर्वाण को प्राप्त हुए । तथा चारण ऋद्धि के धारण करनेवाले ऋषीश्वरो में अन्तिम ऋषीश्वर सुपासचन्द्र (सुपावचन्द्र) नाम इस प्रमाण से ३ केवली ही नहीं हुए। भगवान् के संघ के अधिनायक मुख्याचार्य जो २ पट्ट पर बैठे उनमें ३ प्राचार्य केवली हुए हैं । इनके सिवाय जो पट्टासीन नहीं हुए ऐसे अनेक केवलो थे उनमें अन्तिम केवली श्री श्रीधर स्वामी निर्वाण को प्राप्त टिप्पणी :-- कुंडलाकार पर्वत कुंडरगिरि कुण्डलपुर क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध मध्यप्रदेश के दमोह जिले में दमोह से २० मीलं पर ५६ जिनालयों सहित सुरम्य क्षेत्र है यहां पर श्री १०८ श्रीधर केवली के प्राचीन चरण भी स्थापित हैं। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ इन ६८३ वर्षों तक गुरुपरम्परा अविच्छिन्न रूप से चलती रही है अतः इतना वर्णन तो अनेक ग्रंथों में पाया जाता है। इसके बाद का नहीं पाया जाता, तयापि कुछ प्रमाणों से इस बात पर प्रकाश पड़ता है कि अन्तिम श्री लोहाचार्य संभवतः अपने पट्ट पर किसी प्राचार्य को स्थापित नहीं कर सके होंगे प्रतः लोहाचार्य के गुरु श्री यशोबाहु, जिनको अन्यत्र द्वितीय (भद्रबाहु) भी लिखा है, के अन्यतम शिष्य प्रहबलि (लोहाचार्य के गुरुभ्राता) पर प्रागे संघ व्यवस्था का भार स्वतः पाया होगा । प्रहंबलि के शिष्य माघनंदि इनके बाद पट्टाक्ली में जिनचंद्र और उनके पट्ट पर श्री कुंदकुंदाचार्य हुए, ऐसा उल्लेख है। अभिप्राय यह है कि वीर प्रभ की परम्पस से श्री कुन्दकुन्दाचार्य को श्रुतोपदेश अविच्छिन्न धारा से प्राप्त था अतः उनके उपदेश को अत्यन्त प्रामाणिकता प्राप्त है। भगवान् कुदकुंवाचार्य के महाविदेह क्षेत्र में श्री १००८ सीमंधर तीयंकर प्रभु के समय शरण में जाकर उपदेश सुनने का भी वर्णन वर्शनसार ग्रंथ में पाया है इससे भी इनके ज्ञान को विशवता तथा प्रामाणिकता नितान्त स्पष्ट है। नियमसार के प्रारंभ में भी फन्दकन्दाचार्य ने जो मंगलाचरण किया है उसमें लिखा है: मिऊण जिणं वीरं प्रणत परणाणसण सहावम् । वोच्छामि णियमसारं केवलिसुदकेवली भणियम् ।। अर्थात् श्री वीरनाथप्रभु जो अनन्त मान दर्शन स्वमावी हैं उनकी बन्दना करके केवलो तया श्रुतकेवली द्वारा कथित नियमसार को कह रहा हूँ। यहाँ "केवली श्रुत केवली" कथित शब्द से भी ऐसी ध्वनि निकलती है कि संभवतः उन्होंने केवली श्रुत केवली के मुखारविव से धर्मोपदेश पाया हो। यह समयसार या समयमाभूत ग्रंथ इनही श्री १०८ प्राचार्य कुन्दकुन्द को कृति है। मूल ग्रंथ प्राकृत भाषा में गाथा निबद्ध है। ग्रंथ की संस्कृत टोका श्री १०८ प्रमृतचन्द्राचार्य ने को है, जो भाषा और भाव को वृष्टि से असाधारण है। टीका का नाम "प्रात्मख्याति" भी बड़ा सुन्दर एवं ग्रंथानुरूप है। इसी पर श्री पं. जयचन्द्रजी सा. ने "प्रात्मख्याति समयसार" नामक हिंदी अनुवाद बहुत बारोको के साथ किया है। दूसरी संस्कृत टीका श्री १०८ जयसेनाचार्य कृत तात्पर्यवृत्ति मामा है, जो भाव एवं भाषा को दृष्टि से सरल और विस्तृत है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. जयचन्द्रजी संस्कृत भाषा के निष्णात विद्वान थे। उनको टीका संस्कृत टीका का शुद्ध अनुवाद है साथ ही भावार्थ भी है। अभी तक को छपी हिंदी टीकाएं केवल. उनको टीका का ही भाषा की दृष्टि से परिमार्जन मात्र है। उससे सुन्दर कोई स्वतंत्र टीका नहीं लिखी गई। भगवान् कुंदकुंद की वाणी कितनी लोकप्रिय एवं प्रामाणिक सिद्ध हुई है, इसका इतिहास साक्षी है। सदियों पूर्व पं. बनारसीदासजी ने स्वयं समयसार के कलशों पर "समयसार नाटक" छन्दबद्ध किया है, साथ ही अपने प्रात्म चरित में यह भी लिखा है कि हमारी एक शैली थी जिसमें अनेक विद्वान् इसका पारायण करते थे। प्रारभ में इसका स्वाध्याय कर पंडितजी अपने को शुद्धबद्ध मानकर संपूर्ण धर्मकर्म से बहिर्मुख हो गए थे, उन्होंने अपनी दुर्दशा का स्वयं प्रात्मचरित में चित्रण किया है, तथापि जब वस्तु को ठीक समझा तो स्वयं मार्ग पर लगे और दूसरों को लगाया। पंडित प्रपर तोडरमलजी ने भी इस पंथ । गहन अध्ययन किया था जिसकी छाप "मोलमार्ग प्रकाश" नामक उनके ग्रंथराज पर स्पष्ट दिखाई देती है। वर्तमान युग में 'समयसार' के प्रध्येता कारंजा (बरार) के मट्टारक मे, पर उनका अध्ययन ग्रंथ को पढकर वेदान्त को मोर झुका हुआ था। मेरे पिता गोकुलप्रसास्ती, ब. शीतलप्रसादजी, पूज्यवर्णी श्री गणेशप्रसादजी श्रीमंत सेठ गोपालसाजी सिल्ली, जिन्होने समयसार पर स्वतंत्र प्रवचन लिखा है, श्री पयुम्नसावजी कारंजी प्रादि अनेक अध्यात्मरस के रसिक मेरे परिचय में पाए हैं। ___ श्री शुल्लक कर्मानन्दजी ने भी समयसार की गापामों का अर्थ लिखा है। पूज्य श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णों द्वारा लिखित समयसार प्रवचन श्रीवर्णी ग्रंथमाला द्वारा अभी प्रकाशित हुआ है। पूज्यवर्णोजी इस युग की महान् विभूति थे सारा जीवन अध्यात्म के अध्ययन में ही व्यतीत हुआ है । हजारों व्यक्तियों ने उनके द्वारा धर्म लाभ लिया है। श्री १०८ दिगम्बर मुनिराज ज्ञानसागरजी ने भी समयसार की तात्पर्यवृत्ति पर सुन्दर टीका लिखी है, जो अभी अभी प्रकाश में पाई है। श्री कानजी स्वामी सोनगढ़, श्री रामजी माई, श्री खेमजीभाई प्रावि उनकी शिष्यमंडली भी इस युग में समयसार के विशिष्ट अध्येता हैं। श्री कानजी स्वामी ने उक्त पंपराज के प्रभाव से ही अपनी पूर्व श्वेताम्बर तेहपंथी माम्नाय की साधुत्व अवस्था तथा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठा का परित्याग कर न केवल स्वयं को, किन्तु अपने अनुयायी अन्य हजारों बंधुनों को शुद्ध दिगम्बर जैन धर्म का प्रसाद देकर प्रात्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया है। इन्होंने समयसार पर अपने स्वतंत्र प्रवचन भी लिखे हैं एवं यत्र-तत्र भ्रमण कर समयसार पर ही प्रचवनकर उसका प्रचार-प्रसार भी किया है। दिगम्बर जैन समाज में जो जगह २ स्वाध्याय की (प्रायः बद सी) प्रवृत्ति एव जागृति दिख रही है वह इसीका परिणाम है। उक्त स्वामीजी संभवतः प्राज भी समयसार का १७ वीं या अठारहवीं बार स्वाध्याय कर रहे है। वर्तमान युग के अधिकांश विद्वानों ने उनके उदयकाल के बाद ही अध्यात्म का अध्ययन प्रारंभ किया है। प्राज साधारण व्यक्ति भी स्वाध्याय में समयसार' ही उठाता है। ग्रंथ का यह सब प्रचार देखकर प्रसन्नता होती है। तथापि यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि प्रध्यात्म को पचाने की शक्ति हर स्तर के व्यक्ति में नही हुमा करती। उसके लिये स्यावाद नीति के नय विवेचन का परिमान होना नितांत आवश्यक है। इसके बिना मार्ग बिगड़ सकता है। इस परिपुष्ट पाहार को पचाने वाला सामर्थ्यवान होना चाहिए। इस तथ्य का अनुभव कर ही इन्दौर नगरी के प्रख्यात विद्वान् (पूर्व में मंगावली (ग्वालियर निवासी) श्री पं. माथूरामजी न्यायतीर्थ ने (जो अपने पूर्वजो के मध्यप्रदेश के डोंगरा ग्राम के वासी होने से "डोंगरोय" उपनाम से समाज में प्रसिद्ध हैं और जिन्होंने पूर्व में जैनधर्म, प्रावि कई पुस्तके लिखी है ) समयसार का यह प्राधुनिक राष्ट्रीय भाषा हिन्दी के पयों में निर्माण प्रयास कर इसे "समयसार वैभव" के नाम से प्रस्तुत किया है। इस प्रथ में उन्होंने 'जनी नीति' (स्याबाब) को ध्यान में रखकर ही बरतु विवेचन किया है। अनेक स्थलो पर, जहां प्रायः यह संभावना विसी कि इसे पढ़कर पाठकों की कुछ गलत धारणा हो सकती है, ग्रंथ के हार्द को खोलने का पूर्ण प्रयास किया है। रचना सुन्दर है और पंडितजी का यह प्रयास स्तुत्य है। अथ पाठको के सामने है। प्राशा है वे इससे लाभान्वित होंगे। कटनी, २१-१-१९७० Garden want Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिज्ञा १ ० ir or . ० n or mr m in so x विषयानुक्रमणिका जीवाजीवाधिकार पृष्ठ शुद्धनय का स्वरूप मगलाचरण एव प्रतिज्ञा दृष्टात द्वारा इसीका स्पष्टीकरण १० जिन शासन का ज्ञाता कौन? ममय का स्पष्टीकरण निश्चयनम की विशेषता स्व-पर समय की वास्तविकता । परमात्मा कौन बनता है? ससारी जीवी की दशा व्यवहार एव निश्चय मोक्षमार्ग ग्रथकर्ता का सकल्प मे नाममात्र कथन भेद. शुद्धनय से आत्म स्वभाव प्रदर्शन व्यवहार मोक्षमार्ग का दृष्टात यहाँ प्रात्मा को शुद्ध किस दृष्टि दाष्टन्ति से कहा गया? शुद्धनय का प्रयोजन जीव की प्रज्ञान (अप्रतिबुद्ध) व्यवहार एव शुद्धनय मे दृष्टिभेद दशा. व्यवहारनय की उपयोगिता अप्रतिबुद्ध दशा का स्पष्टीकरण १३ व्यवहार द्वारा निश्चय में प्रवेश ५ अतरात्मा की शुद्धात्म दृष्टि निश्चय एव व्यवहार की स्थिति ५ अप्रतिबुद्ध दशा की भर्त्सना निश्चयनय के भेद तर्कपूर्ण प्रात्म सबाधन व्यवहारनय के भेद एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उपचरित नय का स्वरूप प्रश्न का समाधान १५ उपचरित नय की स्थिति व्यवहार स्तवन के कारण नय ज्ञान की प्रावश्यकता देहाश्रित जिन स्तवन क्यो? व्यवहार नय की पात्रता निश्चय जिन स्तवन निश्चयनय के प्राश्रय की पात्रता निश्चय जिन स्तवन का स्पष्टीमापेक्ष नय ही सम्यक् ज्ञान के करण प्रतीक निजय जिन स्तवन का प्रथम रूप १७ निश्वर व्यवहार दृष्टि भेद निपचय जिन लवन का द्वितीय रूप १८ तत्व व्यवहार द्वारा सम्यक्त्व निश्चय जिन स्तवन का तृतीय रूप. १८ संप्राप्ति. ६ निश्चय प्रत्याख्यान (त्याग) १८ x m " w w w 9 १५ 9 9 5 १७ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ m २० mr निश्चय प्रत्याख्यान का दृष्टांत १९ शानी की मोहज भाव मे निर्ममता १६ अपना प्रौर पराया (शानी का मात्म-चिंतन) स्वरूप चिंतन से प्रात्म लाभ परात्मवादियो की प्रात्म विभ्रातिया परात्मवाद (जडवाद) केवल भ्रम है उल्लिखित भ्रमो का निराकरण व्यवहार से रागादिभाव जीव Mmmmm mr m mm २२ वर्ग वर्गणा प्रादि भी प्रात्मा नहीं ३१ योग, बध, उदय मार्गणा भी प्रात्मा नही. गुणस्थान भी प्रात्मा के स्वभाव नही. शका-समाधान वर्णादिक जीव ने क्यो नही है, दृष्टात व्यवहार से जीव मूर्तिक है व्यवहार से सयोगज भाव जीव के है ३४ व्यवहार-निश्चय प्रवृत्ति के कारण ३५ जीव और पुद्गल भिन्न क्यो है ? ३५ ससारी वस्तुत मूर्तिक नही ३५ ससारी को रूपी मानने में हानियाँ ३६ जीवस्थान निश्चय से जीव नही. जीव स्थान जड स्वभाव है 'सूक्ष्म-बादर' जीवसज्ञा व्यवहार है ३७ वास्तविकता क्या है ? कर्ता-कर्म अधिकार प्रात्मा मे क्रोधादि भाव क्यों होते है ? क्रोधादि भावो का परिणाम क्या Y mm MY or or o ३७ उक्त कथन का समर्थन रागादि जीव के स्वभाव नहीं । व्यवहारनय मिथ्या नही २३ नयो की विरुद्ध दृष्टियो का समन्वय. निश्चयैकात से हानियाँ २५ किसका कौनसा नय आश्रयणीय है ? २६ निश्चय निरपेक्ष व्यवहार-व्यव हाराभान है. प्रसंगोपात्त हेयापादेय विवेचन २७ हेयोपादेय का निर्णय व्यवहारनय किसे हेय व किसे __उपादेय है? २६ व्यवहार निश्चय का दृष्टात शुद्धनय से आत्म तत्व का निरूपण ३० मात्मा क्या नही है? विकारीभाव मात्मा के होकर भी स्वभाव नहीं. ३१ २४ बध से निवृत्ति कब होती है? भेदविज्ञान से बध की निवृत्ति भेदज्ञानी की भावना से प्रास्रव का प्रभाव ज्ञानी के प्रास्रव सबधी विचार वास्तविक ज्ञानी कोन ? Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ ४१ ४२ ४२ ४२ ज्ञानी पर को जानता है। किंतु कर्ता नही. ज्ञानी रागादि को जानकर भी रागी नही बनता. ज्ञानी कर्मफलो का भी कर्ता नही. पुद्गल कर्म भी जीव के भावो का कर्त्ता नही. जीव-कर्म मे निमित्त-नैमित्तिक सबध. निश्चय से जीव-पुद्गल मे कर्ता कर्म सबध नही. जीव निश्चय मे अपने भावो का कर्ता है. उसके विकारी भावो मे कर्मोदय निमित्त है. उक्त कथन का दृष्टात जीव कर्मों का कर्ता-भोक्ता __ व्यवहार से है जीव कर्मों का कर्ता क्यो नही है? द्विक्रियावादी मिथ्या दृष्टि है। निश्चय से कर्ता, कर्म, क्रिया का स्वरूप मिथ्यात्वादि जीव के है या प्रश्नोत्तर मात्मा किन विकार भावों का कर्ता है। प्रात्मा के विकारभावो का परि णाम जीव अज्ञान से ही कर्मों का कर्ता है. सम्यक्दृष्टि जीव कर्मों का कर्ता मही. मशान से कर्मोत्पत्ति किस प्रकार है? प्रशानभाव ही कर्मकर्ता सिद्ध होता है. प्रज्ञानभाव का परिणाम प्रज्ञानमलक कर्त्त त्व भाव कब नष्ट होता है? शका-समाधान जीव पर द्रव्य का कर्ता उपचार ४४ पुद्गल के ? मिथ्यात्वादि भाव जीव के है और मिथ्यात्व कर्म प्रकृति पौद्गलिक हैं इसका दृष्टात मिथ्यात्वादि जीव और पुद्गल दोनो मे उत्पन्न होते हैं. वस्तुत पर कर्तृत्व मानने मे हानि ५१ जीव वस्तुत. अपनी योग और __ उपयोग शक्तियों का कर्ता है ५१ ज्ञानी कर्मों को पौद्गलिक ही जानता है अज्ञानी भी परद्रव्य या भाव का कर्ता न हाकर अपने विकार भावो का ही कर्ता है. पर द्रव्य या भाव का कर्तत्व निषिद्ध है. निष्कर्ष ४६ ७ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ दृष्टात Sxc १० शंका समाधान शंकासमाधान-जीव कर्मबद्ध है दृष्टांत द्वारा समाधान का समर्थन ५३ या अबद? जीव कर्मों का कर्ता उपचार कर्मबद्धता और प्रबद्धता-दो से ही है. ५३ दृष्टियों है. समयसार नय पक्षो से भिन्न है बध के कारण और भेद समयमार पक्षातिकात है बंध के चार कारणो के तेरह भेद ५४ पुण्यपापाधिकार निश्चय से जीव-स्वभाव का ही कर्ता है. कर्म परिचय उक्त कथन का समर्थन बधक दृष्टि से कर्मों में समानता । सबोधन व्यवहारनय से जीव कर्मों का कर्ता है. दृष्टात द्वारा पुण्य-पाप का निषेध ७१ व्यवहार निरपेक्ष निश्यकात साख्य- मुक्ति के लिये स्वानुभूति का सदाशिवो का मत है. ५८ ___महत्व. निश्चयकात प्रमाण बाधित है ५८ स्वानुभूतिशून्य पुण्य मुक्ति ने जीव-पुद्गलो मे वैभाविक शक्ति सहायक नही. का निरूपण वास्तविक मुक्ति मार्ग क्या है ? निरपेक्ष मान्यताप्रो का निराकरण ५९ बावृत्तियो मे उलझने से मुक्ति नही. जीवो की परणतियां और उनके गुणो मे विकार का कारण । परिणाम. अज्ञानभाव का स्वरूप एवं ६३ कर्मोदय से विकार होता है, असयम व कषाय का परिणाम ६४ विनाश नहीं योग की विशेषता किमाश्चर्यमत परम् ? प्रशानमयी भावो का परिणाम ६४ प्रात्म विकार ही गुणो का बध कब होता है और कब नही? ६५ घात है. मात्मा के रागादि भाव पुद्गल मिथ्यात्व द्वारा सम्यक्त्व की कर्मों से भिन्न है ___हानि. पुद्गल के परिणाम जीव से अज्ञान से शानभाव का पराभव भिन्न है कषाय से वीतरागता की हानि ६७ बंधन-मुक्ति का उपाय निष्कर्ष Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ५९ .. विषय कषायी जीव मुक्त नहीं हो सकता ७७ क्रियानय निरपेक्ष ज्ञाननय एव ज्ञान निरपेक्ष क्रियानय से मुक्ति नहीं. ७७ मुक्ति को कौन प्राप्त करता है? ७७ प्रास्त्रवाधिकार प्रास्रव का स्वरूप वीतराग के प्रास्रव बध का प्रभाव प्रास्रव का उदाहरण उदय मे प्राचुकने पर कर्म की दशा. सत्ता में कर्म प्रास्रव का कारण नही ज्ञानी निगनव क्यो और कब होता है? शका-समाधान एक ज्ञातव्य रहस्य वास्तव मे रागद्वेष ही बंधकारण है ८१ बद्ध कर्म उदय मे कब आते है? ८२ ज्ञानी के निरास्रव रहने का कारण यहाँ ज्ञानी से तात्पर्य वीतरागी सतो से है, कोरे शास्त्रज्ञानी से नही. संवराधिकार सवर का लक्षण, कारण एव भेद विज्ञान निदर्शन. ८५ ७९ प्रात्मा के उपयोग की कमों से भिन्नता. भेद विज्ञान से सवर की उपलब्धि ८५ उदाहरण जीव की प्रतिबुध्द अप्रतिबुध्द दशा. ८६ परमात्मा कौन बनता है? संवर कब और किस प्रकार हाता है। सवर का क्रम सवर से लाभ निर्जराधिकार सम्यग्दृष्टि के भावो की महिमा भाव निर्जरा द्रव्य निर्जरा मे ___कारण है. दृष्टात से ज्ञान सामर्थ्य प्रदर्शन शानी का स्व-पर में सामान्य प्रतिभास. ज्ञानी का स्व-पर मे विशेष प्रतिभास. भेद विज्ञान का माहात्म्य माही की मात्म वचना अणुमात रागी भी सम्यग्दृष्टि नही उक्त कथन का युक्ति पुरस्सर समर्थन. पशंका-समाधान संबोधन ज्ञान के भेद व्यवहार से है, निश्चय से नही. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० शानाश्रय लेने मे अनेक लाभ ९४ सम्यक्दृष्टि की स्थितिकरणत्व १०७ एक भ्राति एव उसका निराकरण ९५ , वत्सलत्व १०७ जीव स्यादाद द्वारा शुख व पशुद्ध प्रभाबना सिद्ध है. भव्यजीव संबोधन बन्धाधिकार शानी की परिग्रह मे परत्व भावना ९७ बध का स्वरूप १०८ कर्मफलो मे ज्ञानी रागद्वेष नही बध का कारण और दृष्टात १०८ करता १०० बघ हेतु का स्पष्टीकरण १०९ शानी के नवीन कर्म बध हेतु के अभाव मे उसका का कारण. १००, मभाव. मज्ञानी के कर्मबंध होने का कारण १०१ सम्यक्दृष्टि को बध क्यो नही शान अन्य के द्वारा प्रज्ञान रूप होता. नही परिणमता. १०१ सम्यक्-मिथ्या दृष्टि की श्रद्धा प्राणी स्वय ही प्रशापराधवश मे प्रतर. ११० प्रज्ञानरूप परिणमता है. १०१ हिंसादि अपने भावो पर निर्भर है ११३ वस्तु के परिणमन मे निमित्त एक प्रश्न उपादान का स्पष्टीकरण. १०२ प्रश्न का समाधान ११४ उपादान निमित्त का विवेचन । प्रध्यवसान मम्पूर्ण अनर्थों की अज्ञानी सुख हेतु कर्मकर्ता और भाक्ता है. . अध्यवसान स्वार्थ क्रियाकारी नही शानी विषयसुख हेतु कर्म नहीं अध्यवसानो की भर्त्सना कर्ता अत कर्म भी उसे फल अध्यवसानो के प्रभाव में बध नही देते. का अभाव. सम्यक्दृष्टि की निःशकता प्रध्यवसान का स्वरूप ११६ रमकी निशकता निर्जरा का अध्यवसान व्यवहारनय का विषय कारण होने से निश्चय द्वारा वह निष्कांक्षिता और उसका फल १०५ प्रतिषिद्ध है. सम्यक्दृष्टि की निविचिकित्सिता १०५ सम्यक्त्व शुन्य को केवल चारित्र " का प्रमूढ दृष्टित्व १०६ से मुक्ति नहीं. " उपगूहनत्व १०६ प्रभव्य के मुक्त न होने का कारण ११८ १०३ ११५ १०४ १०४ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमव्य की धार्मिक श्रमा ११८ प्रश्नोत्तर (शुद्धात्म स्वरूप का व्यवहार धर्म का स्वरूप ११८ ग्रहण कसे हों?). १२७ निश्चय धर्म का स्वरूप मैं कौन और कैसा हूं? १२५ निश्चय में व्यवहार स्वय विलीन स्वरूप की अज्ञता ही बंधन काम्लहै १२८ हो जाता है ११९ अपराधी बंधता-निरपराध मुक्त रागादि रूप परिणाम पर निमित्तक है ११९ होता है। १२९ अपराध का स्वरूप और नामांतर ज्ञानी बुद्धिपूर्वक रागादि नही करता १२० अज्ञानी को बघ क्यो होता है ? १२० निर्विकल्प दशा की अपेक्षा प्रतिक्रमण १२९ कर्म बध अन्य किन कारणो से का विकल्प विष कुभ है। १३० होता है ? अप्रतिक्रमण अमृत कुभ है। १३० विकल्प मात्र बधन का कारण १३० द्रव्य और भाव प्रत्याख्यानादि में निमित्त नैमित्तिक सबध है। इस सबध मे भ्राति का निराकरण १३१ अधः कर्मादि दोषो का शानी सर्व विशुद्ध ज्ञान अधिकार अकर्ता है। ___ द्रव्य अपने गुण पर्यायो का हीकर्ता है १३२ अध कर्म एव उद्देशिक आहार का जीव अन्य का कार्य या करण नही १३३ स्वरूप १२२ कर्ता-कर्म की सिद्धि परस्पराश्रितहै १३३ ज्ञानी साधु को आहारादि क्रिया मे आत्मा की दुर्दशा का कारण १३३ बध क्यो नही होता ? १५३ कर्मबध का मल कारण १३४ इस सबंध मे भ्रम और उसका बघ का अभाव कब होता है ? १३४ निराकरण १२४ अज्ञानी एव ज्ञानी के भावो मे अतर १३४ अभव्य शास्त्र पाठी होकर भीमिथ्या . मोक्षाधिकार दृष्टि ही बना रहता है। १३५ दष्टात द्वारा बघका स्पष्टीकरण १२५ ज्ञानी की कला निराली है। ज्ञान मात्र से मुक्ति नही मिलती १२५ ज्ञान चेतना का परिणाम १३५ बध की चिता व ज्ञान से भी मुक्ति ज्ञानी की परणति १३६ नही १२६ कर्मों को आत्म परिणाम का कर्ताबधनो का काटना ही बधन मुक्ति मानने मे दोष १३६ का उपाय १२६ पर कर्तृत्व मानने में सैद्धातिक हानि १३६ बधन से मुक्ति कब सभव है? १२६ पर कत्तं व्य भाव रखने वाला मुकति बष हेय एव आत्म स्वभाव आदेय है १२७ का पात्र १३७ मा Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० । १४० बुद्धि भ्रम क्यों होता है ? १३७ राग द्वेष परिणाम निश्चय से जीव पर में कर्ता-कर्म की मान्यता उपचार है। १३८ विषयो मे राग द्वेष जीव के अज्ञान पुद्ग कर्म जीव को विकारी नही से होता है । १५१ बनाता। १३८ प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान का जीव भी पुद्गल मे विकार उत्पन्न रवरूप १५३ नहीं करता १३९ आलोचना और चारित्र का स्वरूप १५४ पुद्गल कर्म की परणति पुद्गल दुखवीज कर्म बध और उसका कारण १५४ कृत ही है। १३९ वस्तुत आलोचन, प्रतिक्रमण और जीव की विकार परणति जीव की प्रत्याख्यान क्या है ? १५५ ज्ञान, कर्म और कर्मफल चेतना १५५ पर कर्तृव्य का पूर्व पक्ष चेतनात्रय का शुद्ध और अशुद्ध चेतना में विभाजन १५५ पय कर्तव्य सिदात स्वीकार करने शास्त्रो से ज्ञान की भिन्नता १५६ मे दोष १४१ ज्ञान की शब्दो से भिन्नता १५३ कुछ अन्य भ्रमो का निराकरण १४२ जीव मे कटस्थ नित्यता समव नही १४३ ज्ञान की पुद्गलादि द्रव्यो से भिन्नता १५७ आत्म। कचित् नित्यानित्य है १४४ ज्ञान की अध्यवसानो से भिन्नता १५७ वस्तु अनेकान्तात्मक है जीव निश्चय से आहारक नही अनित्यैकात में दोषोभावन १४४ निश्चय से जीव पर का त्यागग्रहण वस्तु मे अनेतात्मकता स्वत. सिद्ध है १४५ नहीं करता। १५८ निमित्त दृष्टि से जीव कर्म को करता व्यवहार मे पर वस्तु का त्याग-ग्रहण १५८ हुआ भी तन्मय नही होता स्वीकृत है। १४६ दृष्टात पुरस्सर उक्त कथन का निश्चय से शारीरिक लिग (वेश) समर्थन मुक्ति मार्गनही । निश्चय नय से आत्मा स्वय रागी या वस्तुत रत्नत्रय ही मुक्ति मार्ग है १६० मुखी दुखी बनता है एव स्व का ही आत्म सबोधन १६० शाता दृष्टा है। १४७ व्यवहार नय मुक्ति मार्ग मे द्रव्यउल्लिखित कथन का दृादात द्वारा लिग स्वीकार करता है। १६१ समर्थन १४८ क्रिया निरपेक्ष ज्ञान नय एव ज्ञान व्यकार नय में उगत्मा अन्य द्रव्या निरपेक्ष क्रिया नय से मुक्ति नहीं का ता दाटा है। मिल सकती १६३ अन्य व्यवहार कत्तव्य का स्पष्टीकरण म वित्त को कौन प्राप्त करता है ? निश्चय से पर के अकत्तं त्य का अत मगल समर्थन १५० प्रशस्ति १६४ 'ह १४४ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नम सिध्देम्य. समयसार-वैभव (आध्यात्मिक काव्य) मूलकर्ताश्रीमद्भगवत्कुंदकुंराचार्य अनुसानाथूराम डोगरीय जैन जीवाजीवाधिकार मगलाचरण एव ग्रन्थकर्ता की प्रतिज्ञा अनुपम, अचल, अमल, अविनश्वर-गतिसंप्राप्त, सहज अभिराम, मंगलमय, भगवन् महामहिम-सिद्ध-वंदना कर निष्कामश्रुतकेवलि-प्रतिपादित, पावन, परंज्योति, विज्ञाननिधान"समयसार-वैभव" दरशाऊँ-मोह महातम नाशन भान । (1) अचल-परिभ्रमण रहित । प्रतिपादित-कथित । भान-सूर्य । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार समय का स्पष्टीकरण--लक्षण व भेद 'समय' जीव चैतन्यमयी है-सुख सत्ता सम्पन्न ललाम । इसके स्व-पर भेद इसकी ही परणतियों का है परिणाम । 'स्वसमय' जीव वही-जो सम्यक्वर्शन ज्ञान चरण में लीन । रागद्वेष मोहादि विकृति-रत जीववृन्द 'परसमय' मलीन । स्व-पर समय की वास्तविकता एक, शुद्ध, निश्चयगत, शाश्वत प्रात्मतत्व अनुपम अभिराम, पावन है सर्वत्र लोक में इसको स्वाधित कथा ललाम । जीव-कर्मबन्धन को गाथा, विसंवाद करती उत्पन्न । पर समयाश्रित भेद तत्वतः इससे ही होता निष्पन्न । ससारी जीव की दशा मोह पिशाच ग्रसित उलझे हैं, भवकुचक्र में जीव अनंत । काम भोग को बंध कथायें सुनें चाव से नित हा! हन्त !! तन्मय हो रम रहे उन्हीं में मत्त दन्तिवत् विसर स्वरूप । कभी शुद्ध चैतन्य न जाना, सुना न अनुभव किया अनूप । (2) संपन-पुक्त । ललाम-सुन्धर । परिणति-शुद्ध-अशुद्ध भाव रूप परिणमन । परिगाम-फल । विकृति-विकार । वृन्द-समूह। (3) शुख-पर से भिन्न । स्वामितमात्मा पर आधारित । निष्पन्न-सिद्ध। (4) असित-पीड़ित । हंत-अफसोस । मत्तवन्ति-मतवाला हापी । बिसर-भूलकर। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ग्रंथकर्ता का संकल्प भव भ्रमणा में नानारूपों को धारण कर वर चिद्रूपभिन्न भिन्न प्रतिभासित होता, उसे एक अविभक्तस्वरूपदर्शाता हूँ-युक्त्यागम, गुरु-ज्ञान, स्वानुभव-विभव प्रमाण । दरशजाय--करले प्रमाण, पर चुकजन्य छल ग्रहें न जान। (६/१ ) ___शुद्ध नय से आत्म स्वभाव प्रदर्शन स्वतः सिद्ध अनुपम अनादि से अंतहीन जो ज्ञायक भाव। वही शुद्ध नय को सुदृष्टि से कहा आत्म का शुद्ध स्वभाव । वह प्रमत्त-अप्रमत्त नहीं, ये है सब कर्मजन्य परिणाम। निर्विकल्प चिज्ज्योति स्वानुभव-गम्य, रम्य, वह वही ललाम । (६/२ ) यहाँ आत्मा को शुद्ध किस दृष्टि से कहा गया ? मात्म शुद्ध कहने का केवल अभिप्राय यह यहाँ प्रवीण ! अन्य सकल परद्रव्य भाव से चेतन को सत्ता स्वाधीन । वर्तमान में यह न समझना-हम पर्यायदृष्टि भी शुद्ध। जीवन में रागादि विकृति के रहते प्रात्म न शुद्ध, न बुद्ध । (5) चिप-आत्मा । प्रतिभासित-प्रतीत । अविभक्त-भेद रहित । युक्त्यागम-पक्तिमागम, तर्क एवं आप्त वचन । (6/1) प्रमत्त-कषायवान । विज्योति-पैतन्य ज्योति । रम्प-रमण करने योग्य (6/2) सत्ता-अस्तित्व ; बुद्ध-पानी । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार शुद्ध नय का प्रयोजन जीव मात्र में विद्यमान है शक्ति अमित अव्यक्त महान । यदि पुरुषार्थ करें बन जायें हम सब स्वयं सिद्ध भगवान । इस स्वशक्ति का बोध कराना ही अभीष्ट है यहाँ प्रवीण ! यत्प्रसाद अमरत्व प्राप्त कर पात्म बन सुस्थिर स्वाधीन । (७ ) व्यवहार एव शुद्ध नय मे दृष्टि भेद एक अखंड वस्तु में नाना गुण पर्यय का कर निर्धार । भेद रूप प्रतिपादन करता वह नय कहलाता व्यवहार । गुरु, इस नय ज्ञानी के करते दर्शन, ज्ञान, चरण, व्यपदेश । शुद्ध दृष्टि ज्ञायक हो पाती, दर्शनादि का भेद न लेश। व्यवहार नय की उपयोगिता ज्यों अनार्य समझें न बात-बिन लिये म्लेक्ष भाषा प्राधार, त्यों व्यवहार बिना नहि समझें जन परमार्थ तत्व अविकार, एक शुद्ध ज्ञायक स्वभाव की जिन्हें भ्रांतिवश नहि पहिचान, उन्हें ज्ञान दर्शन प्रभेद कर श्री गुरु दें वर तत्वज्ञान । (6/3) अमित असीम, अनंत । अव्यक्त-अप्रकट । यत्प्रसाद-जिसके प्रसाद से । अमरत्वअमरता । सुस्थिर-परिभ्रमण-रहित (7) निर्धार-निश्चय । व्यपदेश-गुण-भेद कथन। शुद्धवृष्टि-शुखनय (8) अनार्य-प्लेक्ष । परमार्थ-शुध्वात्म । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार वैभव व्यवहार द्वारा निश्चय में प्रवेश द्रव्य-भाव द्वारा विभक्त है दो भागों में सब श्रुतज्ञान । प्रथम भावश्रुत स्वानुभूति से निज शुद्धात्म तत्व पहिचानज्ञानी बना, उसे कहते है ऋषिगण श्रुतकेवलिभगवान् । इस प्रकार गुण-गुणी भेद कर तत्व किया विज्ञप्त महान । अथवा जो परिपूर्ण द्रव्य श्रुत जान बना तत्वज्ञ महान । देव उसे प्रतिपादन करते श्रुतकेवलि श्रुतज्ञान निधान । यों अभेद में भेद दिखाकर किया 'ज्ञान-ज्ञानी' व्यपदेश । इस व्यवहार कथन से होता भेद द्वार परमार्थ प्रवेश । ( ११/१ ) शुद्ध एवं व्यवहार नय की स्थिति वर्णित है भूतार्थ शुद्धनय, अभूतार्थ है नय व्यवहार। शुद्ध वस्तु है अर्थ 'भूत' का, पर्यायादि 'प्रभूत' विचार । मुग्ध दशा में रहता प्रायः पर्यायाश्रित जन मतिनांत । शुद्ध दृष्टि पाकर विरला ही बनता सम्यक्दृष्टि नितांत । (9) विभक्त-विभाजित। स्वानुभूति-स्वानुभव । विज्ञप्त-प्रकट-प्रसिद्ध । (10) प्रतिपावन-कथन (11/1) मुग्ध-मोहमयी । पर्यायाश्रित-पर्याय दृष्टि वाला । शुद्ध दृष्टि शुद्धात्म दृष्टि । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जादाजीवाधिकार ( १४२ ) निश्चय नय के भेद प्रभूताथ-भूतार्थ भेद से निश्चय नय है उभय प्रकारअभूतार्थ निश्चय अशुद्ध है, पर भूतार्थ शुद्धनय सार। जिसको त्रैकालिक स्वभाव पर दृष्टि वही निश्चय भूतार्थ । जीव मलिन कहकर विभाव से अंभूतार्थ होता चरितार्थ । ( ११४३ ) व्यवहार नय के भेद भूतार्थाभूतार्थ भेद से दो प्रकार त्यों नय व्यवहार । सद्गुण-पर्यायाश्रित पहिला अभूतार्थ तद्भिन्न विचार । ज्ञान दर्श गुण भेद कथन ही है भूतार्थ प्रथम व्यवह र। नर नारक रागादि जीव के कहता अभूतार्थ व्यवहार। ( ११/४ ) उपचरित नय का स्वरूप व दृष्टांत इनसे भिन्न उपचरित भी इक नय कहलाता है व्यवहार। जो कि वस्तु के गुण तदन्य में प्रारोपित करता हर बार। घी का घड़ा-तल का चूड़ा-रूपी जीव प्रादि दृष्टांतहै उपलब्ध लोक में अगणित, जिनमें है उपचार नितांत । (11/2) उभय-दो विभाव-राग शेषादि विकार । चरितार्थ-घटित। (11/3)सद्गुणशुदगण। तद्भिन्न-उससे भिन्न। (11/4) तदन्य-उससे भिन्न । आरोपित-स्थापित। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव (११४५) उपचरित नय की स्थिति एव प्रयोजन इस उपचरित नयाश्रित प्रायः चलता सकल लोक व्यवहार । जो कि निमित्त प्रधान दृष्टि है, तत्व नहीं इसमें अविकार। सत्य मान परिपूर्ण इसे सब लोक भ्रमित हो रहा, प्रवीण! किन्तु अज्ञ प्रति बोध हेतु ही यह भी प्राश्रयणीय मलीन । यथार्थ बोध के लिये नय ज्ञान की आवश्यकता परमागम में तत्व विवेचन-सर्वनयों से कर अम्लानभव्य जीव प्रति बोध दिया है, यहाँ सुनिश्चय दृष्टि प्रधान । नय स्वरूप समझे विन भ्रमतम-मिट-न-होता सम्यवज्ञान; प्रतः बंधु ! मध्यस्थभाव से तत्व समझना ही श्रेयान् । (१२/१) व्यवहार नय का प्रयोजन एव पात्रता शुद्ध प्रात्म की हुई न जबतक, जीवन में उपलब्धि महानअपरम भावाश्रित जन हित नित नय व्यवहार प्रयोजनवान् । जो कि द्रव्य में गुण पर्यय गत भेद व्यवस्था कर अम्लानप्रथम भूमिका संस्थित जन को करता सम्यक्दृष्टि प्रदान । (11) अम्लान-निबोध (12/1) अपरमभावाश्रित जन-सविकल्प दशा में स्थित जीव । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार ( १२/२ ) निश्चय नय के आश्रय का पात्र कौन ? जो जन परमभावदर्शी बन करता चिदानन्द रस पाननिश्चय का सत्पात्र वही जो स्वाश्रय ले करता कल्याण । जब जन शुद्ध भाव संश्रय पा स्वानुभूति में रहता लीन । उसे प्रयोजनवान् स्वतः नहि रहता नय व्यवहार, प्रवीण! ( १२/३ ) अभिप्राय यह है कि शुद्ध नय का आश्रय लें साधु प्रवीण प्रात्म साधना निरत सतत जो परमभाव दर्शन में लीन । स्वर्ण पात्र संधारण करता दुग्ध सिंहनी का अविकार । कांस्य पात्र में टिक न सके वह, खंड खंड हों पड़ते धार। ( १२/४ ) जिन शासन म सापेक्ष नय ही सम्यक्ज्ञान के प्रतीक है निश्चय या व्यवहार दृष्टियाँ समीचीन रहती सापेक्ष - स्वपर विषय को मुख्य गौण कर; किन्तु असत्य वही निरपेक्ष । क्योंकि न गुण- पर्यय से होता शून्य कभी कोई भी द्रव्य । और न गुण पर्याय कभी भी विना द्रव्य रहते है लभ्य । (12/2) परमभावदर्शी-शुद्धात्मतत्व दृष्टा-शुद्धोपयोगी-अभेद रूप रत्नत्रयलोन । (12/4) समीचीन-सत्य-ययार्थ। सापेक्ष-अपेक्षा रखते हुए। निरपेक-दूसरे नय की अपेक्षा न रखते हुए । लम्य-प्राप्त । पर्यय-पर्याय, वसा । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( १२/४ ) निश्चय-व्यवहार में दृष्टि भेद जब प्रखंड ध व द्रव्य लक्ष्य में रहता, तब हो जाता गौणगुण पर्यय का भेद सहज हो; किन्तु नष्ट कर सकता कौन ? निश्चय नय की दृष्टि निराली, जहाँ भेद रहता नहि इष्ट । गुण पर्ययगत भेद व्यवस्था करता नय व्यवहार विशिष्ट । ( १३ ) तत्व व्यवहार द्वारा सम्यक्त्व संप्राप्ति तीर्थ प्रवृत्ति हेतु प्रतिपादित, जीव, अजीव पुण्य अरु पाप-- आस्रव, संवर, बंधन, निर्जर और मोक्ष नवतत्व कलाप । इनमें इक चेतन ही, पुद्गल सँग अभिनय कर रहा, निदानतत्वों में भूतार्थदृष्टि यह कहलाता सम्यक्त्व महान् । ( १४/१ ) ___शुद्ध नय का स्वरूप वही शुद्ध नय जो प्रबद्ध, अस्पर्श कर्म से वर चिद्रूप-- अनुभव करता नाना रूपों में अनन्य परमात्म स्वरूप। हानिद्धि से रहित प्रात्म को देखे, नियत और अविशेष । राग द्वेष मोहादि विकृति से असंयुक्त पाता निःशेष । (13) तीर्थप्रवृत्ति-हेतु-धर्म तीर्थ को चलाने के लिये । कलाप-समूह । भूतार्थ दृष्टिशुशात्म द्रव्य पर अभेद दृष्टि। (14/1) अबद्ध-स्वतंत्र । अस्पर्श-अछूता । अनन्यअभिन्न-अभेव रूप । नियत-स्थिर । अवि शेष-गणों के भेद से रहित (अखंड) असंयुक्तअख, मोहादि से रहित । उदधि-समुद्र । अंतर्धान-गायब, दृष्टि के ओझल । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार ( १४/२ ) दृष्टांतों द्वारा इसी का स्पष्टीकरण कमल पत्र ज्यों जल में रहता नित प्रबद्ध प्रस्पर्शस्वभाव ; घट कपाल में मृद् अनन्य ज्यों जल में है उष्णत्व विभाव । उठते है तूफान उदधि में, पर वह रहता नियत महान । स्वर्ण दृष्टि में वर्णादिक सब ही जाते ज्यों अंतर्धान । जिन शासन का ज्ञाता कौन ? शुद्ध दृष्टि से त्यों निजात्म को कर्म बन्धन स्पर्शविहीन जो अनन्य अविशेष विलोके असंयुक्त रागादिक होन । द्रव्य-भाव श्रुत से अनुभावित जिसे शुद्ध चिद्रूप अनूप । वही पूर्ण जिन शासन ज्ञाता-दृष्टा है अनुभवरस कूप । ( १५/२) निश्चय नय की विशेषता निश्चय नय की दृष्टि निराली चतुर जौहरी बत् अम्लान । समल स्वर्ण में भी जो करती शुद्धस्वर्ण की वर पहिचान । यह इंगित करती-स्वभावतः जीवमात्र है सिद्ध समान । पद परमात्म प्राप्त करने की रखते हम सामर्थ्य महान । (15/1) अनुभावित-अनुभव में आया हुआ। कूप-कुमा। (152) इंगित-शारा। सामर्थ-वाक्ति । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( १५/३ ) परमात्मा कौन बनता है ? जो मिथ्यात्व ध्वस्त कर पावन ज्ञान प्राप्त, बन निज रसलीन । कर्म कलंक पंक से होता मुक्त वही सत्पात्र, प्रवीण ! रागद्वेष बिन छुटे स्वात्म को सर्वदृष्टि परमात्म स्वरूपयदि माना एकान्त ग्रहणकर, प्रात्मवंचना यह विषकूप । ( १५/४ ) यथा भिक्षु मन में चक्री बन सिंहासन पर हो प्रासीन-- शासन करने लगा, किन्तु थी उसकी दशा वही अतिदीन । तथा निश्चयाभास विवश जो प्रात्मशुद्ध कह सिद्ध समान - बन स्वच्छन्द विचरण करता वह संसृतिका ही पात्र अजान । ( १६ ) व्यवहार एवं निश्चय मोक्षमार्ग में नाम मात्र कथन का भेद अात्मसिद्धि हित साधुजनों को दर्शन ज्ञान चरित्र महानसद्गुण नित उपासना करने योग्य कहे केवलि भगवान् । निश्चय से ये चिद्विलास हैं, अतः प्रात्म ही हैं साकार । साधन साध्य विवक्षा में त्रयरूप प्रात्म का है व्यवहार । (15/4) संसृति-संसार। अजान-अनान । (16) चिद्विलास-चैतन्य की लीलाएं या कोलाएं अथवा गुण विशेषताएं। साकार-साक्षात् । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार ( १७ ) व्यवहार मोक्ष मार्ग का दृष्टांत धन का इच्छुक व्यक्ति प्रथम ज्यों राजा को सम्यक् पहिचान । राज्य पाट, वैभव, विलास लख उस पर करता दृढ़ श्रद्धान । फिर तन्मय हो सेवा कर वह रखता सतत प्रसन्न सयत्न । बन जाता है धनी इसी से पाकर धरा, धाम, धन, रत्न । ( १८ ) दृष्टांत त्यों तजकर मति मोह मुक्ति की कर कामना जो मतिमान । उन्हे उचित चिद्रूप भूप को करना प्रथम सही पहिचान । फिर श्रद्धा रत रमें उसी में कर वर चिदानंद रस पान । उन्हें मुक्ति साम्राज्य सहज ही हो जाये संप्राप्त महान । ( १६ ) जीव की अज्ञान (अप्रतिबुद्ध) दशा यह प्राणी संसार दशा में भूल रहा शुद्धात्म स्वरूप । देह तथा रागादिभाव को भ्रमवश मान रहा निज रूप । मेरी है रागादि विकृतियां, कमर्जजन्य पुद्गल परिणाम । यों भ्रमबुद्धि बनी रहने तक अप्रतिबद्ध हैं प्रातमराम । __(17) सतत-निरंतर । (18) चिबूप भूप-चेतन राजा । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( २० ) अप्रतिबुद्ध दशा का स्पष्टीकरण आत्म भिन्न जड़ चेतन एवं मिश्र द्रव्य है अपरम्पारपुत्र, कलत्र, मित्र, भृत्याविक या धन, धान्य राज्य परिवार । ये सब मै हूँ--में ये सब है, ये मेरे-में इनका राव । संयोगी द्रव्यों में एवं समुत्पन्न हो जो भ्रम-भाव । पूर्व काल में ये मेरे थे अथवा मै इनका था कांत । आगामी ये मेरे होंगे-2 तन्मय बन रहूँ नितांत । ऐसे असद्विकल्प निरंतर करता रहता जो चिद्मान्त । वह परात्मदर्शी, बहिरातम, अप्रतिबद्ध ही है विभ्रांत । ( २२ ) अतरात्मा की शुद्धात्म दृष्टि (भेद विज्ञान) अग्नि-अग्नि है, ईधन-ईधन, अग्नि नहीं है ईन्धन भार । ईन्धन भी न हि अग्नि मयी है, हुवा न होगा किसी प्रकार। त्यों चेतन देहादिक से मिलकर भी रहता भिन्न नितांत । स्व-परभेद पाकर सुदृष्टि यों अन्तरात्म बनता निभान्त । (20) कलत्र-स्त्री। भृत्य-सेवक । राव-स्वामी । (21) कांत-स्वामी । असद्विकल्पभ्रमपूर्ण विचार । चिद्भांत आत्मा को ठीक से न जानने वाला । परात्म वर्ची-परको आत्मा समझने वाला । विभ्रांत-मिथ्यावी । (22) निभ्रांत-श्रम रहित । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार १४ ( २३ ) अप्रतिबुद्ध (बहिरात्म) दशा की भर्त्सना तम प्रज्ञान जनित चिद्मम वश समझ पड़ गई कसी धूल ? बद्ध-प्रबद्ध सकल पुद्गलको-चेतन मान, कर रहा भूल ! देह ,गेह, परिवार प्रादि को मेरे-मेरे कहै प्रयान-- रागद्वेष मोहादि विकृतिरत अतिविक्षिप्त चित्त मतिम्लान । ( २४ ) आत्म सबोधन वीतराग के दिव्य ज्ञान में आत्मतत्त्व पुद्गल से भिन्नझलक रहा वर ज्ञान ज्योति मय, चिदानंद रस पूर्ण, अखिन्न । कैसे हो सकता चेतन का पुद्गल सँग अविभक्त स्वभावजो तू जड़ परिकर को कहता-मेरे--मेरे, चेतनराव ? ( २५ ) तर्क पूर्ण आत्म सबोधन चेतनमय परिणत हो सकता यदि पुद्गल, तब ही अविरामयह कह सकते थे कि हमारा ही है देहाविक परिणाम । सोचो भव्य ! एक क्षण भी यदि तज मतिमोह मयी प्रज्ञान । तो जड़ चेतन में होजाये सहज भेव विज्ञान महान । (23) चिभ्रम-जड़ में चेतन की भ्रांति । बद्ध-आत्मा से बंधा हुमा। विक्षिप्त-पागल, अमित । (24) अखिल-मुखी। परिकर-समूह। (25) अविराम-तुरंत । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ समयसार-वंभव एक महत्वपूर्ण प्रश्न यदि चेतन नहि देहमयी है, तब प्राचार्य तथा जिनदेवसंबंधित सम्पूर्ण स्तुतियां मिथ्या सिद्ध हुई स्वयमेव । यथा-सूर्य शरमा जाता है निरख देव! तत्व कांतिमहान, भव्यजनों को करवाती तव दिव्यध्वनि धर्मामृत पान । ( २७/१ ) प्रश्न का समाधान सुनो भव्य ! वस्तुतः भिन्न है जीव देह से यदपि महान् । बंध दशा में ऐक्य मानकर चलता नय व्यवहार विधान । यथा शर्करा मिश्रित जल को मीठा कहता है संसार । त्यों जिनेन्द्र का भी देहाश्रित संस्तव होता विविध प्रकार । ( २७/२ ) व्यवहार स्तवन का कारण परमौदारिक काय, अलौकिक निर्विकार मुद्रा लख शांत । भव्य जीव परमात्म तत्त्व का दर्शन करता तत्र नितांत । दिव्य देह में बीतरागता यतः प्रस्फुरित है साकार । प्रतः साधु संस्तवन वंदना नित प्रति करते परम उवार । (26) शर्करा-शकर । (27/2)am-महा-जिनेन्द्र के भयर में । प्रस्फुरित-फुरापमान । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार ( २७/३ ) दिव्य देह तो दूर, चरणरज भी बन रहती पूज्य, निदान । जिससे पावनभूमि लोक में कहलाती है 'तीर्य' महान । पाषाणों से निर्मित घर भी मंदिर कहलाते अभिराम । मूर्ति अकृत्रिम कृत्रिम प्रभु की वंदनीय हों पाठोंयाम । ( २७/४ ) जिन्हें नमन करते सुरनर मुनि इन्द्रादिक गाकर गुणगान । तनिमित्त जीवन कृतार्थ कर पाते सम्यकदर्श महान । प्रथम भूमिका में संसारी रह व्यवहार साधनालीन । निश्चय लक्ष्य बना कर करते धर्माराधन नित शालीन । ( २८ ) देहाश्रित जिनस्तवन मे साधुकी भावना यदपि भिन्न विभुवर को काया प्रात्मतत्त्व से स्वतः स्वभाव । तदपि साधु संस्तवन वन्दना करने का रखते हैं चाव । मान यही-मैने वन्दे हैं निश्चय ही केवलिभगवान् । और संस्तवन किया उन्हीं का भक्ति भाव से गा गुणगान । (273) आठोयाम-आठ पहर-निरंतर। (2714) सद्धर्माराधन-पवित्र धर्म की आराधना । अमलीन-पावन । तदपि साधु सान्न बन्दे भक्ति भाव Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( २६ ) निश्चय जिन स्तवन निश्चय से नहि काय संस्तवन देवस्तुति कहलाती है । यतः न काया के गुण प्रभु में जिनवाणी दरशाती है । निविकार प्रभु के गुण गाकर जो संस्तव होता मतिमान । वही वस्तुतः जिन स्तवन है निश्चय नय की दृष्टि प्रमाण । ( ३० ) दृष्टात द्वारा इसी का स्पष्टीकरण सुन्दर नगर, स्वर्गसम जिसमें वन उपवन प्रासाद महान । यं न नगर संस्तव से होता उसके राजा का गुणगान । त्यों विभुवर की दिव्यदेह का करने से संस्तवन, निदान । संस्तुत कहलायेंगे कैसे केवलि-श्रुत केवलि भगवान् ? ( ३१ ) निश्चय जिन स्तवन का प्रथम रूप तब फिर निश्चय नय से होगा क्यों कर जिन स्तवन अम्लान ? सुनो, द्रव्य भावेन्द्रिय के प्रिय विषयों में प्रवृत्त सब ज्ञान - पृथक् जान ज्ञायक स्वभाव से अपना रूप लिया पहिचान । वही जितेन्द्रिय जिन कहलाता, यह निश्चय संस्तवन सुजान। (29) कायसंस्तवन-शरीर को स्तुति । (31) जितेन्द्रिय-त्रियों को जीतने वाला । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार १८ ( ३२ ) निश्चय जिनस्तवन का द्वितीय रूप प्रात्म-शत्रु खल मोह प्रबल है, जिसने फैलाकर विभ्रांति । जीवों को भव में भरमाया, उसे जीत जिसने की क्रांति । जाना-ज्ञानानंद मयी सत् परमतत्व चैतन्य-निधान । वही मोह जित् जिन कहलाता, यह द्वितीय संस्तवन महान । ( ३३ ) निश्चय जिनस्तवन का तृतीय रूप वही मोहजित् साधु पुरुष जब सजकर परमसमाधिनितांत स्वानुभूति रत रह, क्षय करता-मोह महातम का निर्धान्त । उसे क्षीण मोहोजिन कहकर किया गया जो जिन गुणगान । वही शुद्ध परमार्थ दृष्टि से है जिनेन्द्र संस्तव अम्लान । ( ३४ ) निश्चय प्रत्याख्यान प्रात्मद्रव्य से प्रकट भिन्न जो जड़ चैतन्यमयी संसार । तत्सम निज रागादि विकारी भावों को भी भिन्न विचार - आत्म ज्ञान जाग्रत होता जब कर वर चिदानन्द रसपान - वही ज्ञान परत्यागमयी है शुद्ध दृष्टि में प्रत्याल्यान । (32) खल-पुष्ट। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-मव ( ३५ ) निश्चय प्रत्याख्यान का दृष्टांत यथा रजक से भ्रांत पुरुष इक ले आया पर का परिधान । अपना मान पहिन सोया, तब स्वामी ने प्रा को पहिचान । मांगा अपना वस्त्र, तब तजा त्वरित भांत ने, त्यों ममलीन । जीव सुगुरु से ज्ञान प्राप्त कर त्याग करे रागादिमलीन । ज्ञानी की मोहजन्य विकारों में निर्ममता मम स्वभाव नहिंकिंचित् जितने रागद्वेष मोहादि विकार । में उपयोग मयी चेतन हूँ पावन चिदानंदधन, सार । समयसार ज्ञाता कहलाता यही भेद विज्ञान निधान । मोह भाव से निर्ममत्व रह करता चिदानंद रस पान । ( ३७ ) ज्ञानी का आत्म चितन (अपना और पराया) विश्व चराचर भरा हुआ है षड्द्रव्यों से निविड़ नितांत । मै नहि हूँ इन रूप कभी, ममरूप न ये दिखते सम्भ्रांत । शाश्वत जायक भाव हमारा पावन परमानन्द स्वरूप । बेहादिक सब प्रकट भिन्न है, रागादिक भी है पररूप । (35) रजक-मोबी । प्रांत-जिसे भ्रम हो गया हो। परिधान-पहना हुमा कपड़ा, वस्त्र । त्वरित-तुरंत । (37) सम्भ्रांत-भला आदमी। मम-मेरा । शाश्वत-स्थायी । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार ( ३८ ) स्वरूप चिंतन में आत्म लाभ सचमुच हूँ मैं कौन ? अहा ! बस एक शुद्ध चिद्ब्रह्मानूप । दर्शन ज्ञानमयी अविनाशी , अद्वितीय प्रानन्द स्वरूप । रूपरहित हूँ, मैं न किसी का, मम परमाणुमात्र नहि अन्य । यही शुद्ध परमात्म भावना भवसे करतो पार, न अन्य । ( ३६ ) परात्म वादियों की आत्मभ्रांतियाँ कुछ परात्म वादी भ्रम तमरत, जिन्हें तत्त्व की नहि पहिचानअध्यवसानों को कहते है, जीव यही रागादि वितान । ज्ञानावरणादिक पुद्गल को कर्म रूप परणतियाँ म्लान-- जन अनेक मतिनांति विवश बस जीव इन्हें ही लेते मान । ( ४० ) तीव्र, मंद, मध्यम वैभाविक अध्यवसानों को संतानही चेतन है, कोई कहते राग-द्वेष परणतियाँ म्लान । नर नारक नाना प्राकृतियां धारण करता दिखे शरीर । जीव उसे कुछ कहें, जिन्हें जड़ चेतन को नहि परख गंभीर । (28) चिब्रह्म-चैतन्यमयी आत्मा। (39) अध्यवसान-रागादि भाव । वितान-चंदोवा समूहाँ। (40) म्लान-मलिन । आकृतियां-शक्ल सूरत । वैभाविक-विकारमयी । संतान-परंपरा। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( ४१ ) कुछ जन मान रहे वसुकर्मों का विपाक जो सुख दुख रूप । जीवन में अनुभावित होता, उससे भिन्न नहीं चिद्रूप । पुण्य-पाप कृत कर्मोदय में हों, निष्पन्न शुभाशुभभाव । कोई अज्ञ उन्हें ही निश्चित मान रहे चैतन्य स्वभाव । ( ४२ ) कुछ कहते हैं-जीव कर्म मिल मिश्र रूप ही है चैतन्य । पृथक् न अनुभव में आता है, चेतन का अस्तित्व तदन्य । तदतिरिक्त कुछ मान रहे है-जीव कर्म संयोगी भावअर्थ क्रिया करने समर्थ है, अतः जीव वह स्वतः स्वभाव । परात्म वाद (जड़वाद) केवल भ्रम है यों परात्मवादी विनम वश, जिन्हें तत्व की नहि पहिचानमन कल्पित नित किये जा रहे निरा मांत मिथ्या श्रद्धान । इन्हें प्रात्मदर्शी यूं कहते, ये सब ही परमार्थ विहीन । असद् दृष्टि रखने से निश्चित ही हैं प्रांत पथिक प्रतिदीन । (41) विपाक-फल । अनुभाषित-अनुभव में आया हुआ। अश-अज्ञानी ।(42) पृथक्मित्र । अस्तित्व-सत्ता। तबन्य-बुबा । तदतिरिक्त-पूसरे लोग । अर्थक्रिया-कार्यसिटि। (43)आत्म वी-आत्म स्वरूप के प्रत्यक्ष माता-अष्टा। मसत्तष्टि-मिथ्या प्रांति। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार ( ४ ) उल्लिखित भ्रातियों का निराकरण अध्यवसानादिक समस्त ही जितने कर्मजनित परिणाम । निश्चित पुद्गल द्रव्य परिणमन से होते निष्पन्न, सकाम । इसी दृष्टि से श्री जिनेन्द्र ने इन्हें 'कहा पौद्गलिक विभाव । इन्हें जीव कैसे कह दें, नहि जिनका है चैतन्य स्वभाव ? ( ४५ ) स्वाभाविक ही कर्म अष्टविध पुद्गल मय है जड़ परिणाम । रंच मात्र संप्राप्त नहीं है जिनमें चेतन तत्त्व ललाम । जिनका फल परिपाक समय में दुखमय होता निविड़ नितांत । प्रात्म शत्रुनों को तू कैसे चेतन मान रहा, चिद् भ्रांत ? ( ४६/१ ) व्यवहार नय से रागादि जीव के ही परिणाम हैं रागादिक जीवों में होती जो विभिन्न परणतियां म्लानउन्हें जीव कह श्री जिनेन्द्र ने दरशाया व्यवहार विधान । जो कि न्याय्य है और सर्वथा ही नहि होता जो निर्मूल । जीव स्वयं रागी न बनें तो कर्मबन्ध हो उसे न भूल । (44) सकाम-रागसहित (45) निविड़-धोर। (46/1) न्याम्य-ज्याय संगत । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसारभव ( ४६/२ ) उक्त कथन का समर्थन यतः परिणमन भिन्न न होता कभी द्रव्य से किसी प्रकार । कर्मोदय निमित्त पा करता जीव स्वयं रागादि विकार । अतः न्याय संसिद्ध पक्ष का ही प्रतिपादक है व्यवहार । कर्मभाव से अपराधी बन जीव स्वयं बँधता सविकार । (४६/३ ) __ जीव मे उत्पन्न होकर भी रागादिक स्वभाव नही फिर भी रागादिक स्वभाव नहि, ये विभाव हैं, अतः स्वभाव-- प्रकटाने करना अभीष्ट है रागद्वेष का पूर्ण प्रभाव । बंधन मुक्ति प्राप्त कर तब ही जीवन होगा शुद्ध महान । यों परमार्थ तत्व प्रतिपादन करता यह व्यवहार विधान । ( ४६/४ ) व्यवहार नय मिथ्या नही, उसके मिथ्या मानने मे हानि श्री जिन कथित मुक्ति पथ दर्शक, तीर्थ प्रवर्तक नय व्यवहार । स्वतः प्रयोजनवान् सिद्ध है, निश्चय नय सापेक्ष उदार । यदि व्यवहार सर्वथा मिथ्या और मान लें हेय समान - धर्मतीर्थ तव जगती तल पर हो जायेगा लोप, अयान ! (46/2) मतः-पयोंकि । कर्मोदय-कर्मो का फल सुख-दुखादि । संसिख-भलीभांति सिट। कर्मभाव-रागादि विकार । (46/4) तीर्य प्रवर्तक-धर्म को चलाने वाला। अपान-नाममा श्री जिनका जनवान् सिडामण्या और जायेगा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार २४ ( ४६/५ ) जिनदर्शन, जिनधर्म श्रवण, जिनप्रतिमा-जिनमंदिर निर्माण । तपश्चरण, व्रत, नियम, तीर्थ यात्रा करना जिन वचन प्रमाण । सामायिक, सँस्तवन, वंदना, देवार्चन, गुरु सेवा-मान । श्रावक-मुनि के मूलोत्तर गुण-हो जायें सब अन्तर्धान । ( ४६/६ ) तज-अन्याय, अमक्ष्य, दुर्व्यसन एवं अनाचार व्यभिचार । सत्य अहिंसा मय प्रवृत्तिकर रखना उर में उच्च विचार । देव, शास्त्र, गुरु पर श्रद्धा, सत्पात्र दान, संयम अम्लान । पालन कोन करे, यदि माने हेय सर्व व्यवहार विधान ? ( ४६/७ ) उभयनयो की विरुद्ध दृष्टियो का समन्वय जीव मात्र परमार्थ दृष्टि में शुद्ध, बुद्ध, चैतन्य निधान । पर पर्याय दृष्टि अन्तर भी होता है उपलब्ध महान । उभय नयाश्रित कथन सत्य है, और अबाधित भी सापेक्ष । किन्तु वही मिथ्या बन जाये जब नितांत होता निरपेक्ष । (46/5) संस्तवन-जिनस्तुति । देवार्चन-वेवपूजा। मान-आवर । अन्तर्वान-गायन । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ समयसार-वैभव ( ४६/८ ) यदि निश्चय एकांत ग्रहणकर प्राणिमात्र को राग-विहीन - शुद्ध सर्वथा मान चले तो मुक्ति मार्ग हो जाय विलीन । यतः शुद्ध नय मुक्ति न माने, मार्ग न सम्यक्दर्शनज्ञान । मान सिद्ध भगवंत स्वयं को लोक बनें पथ भ्रांत महान । ( ४६/६ ) शुद्ध दृष्टि में-बध करना, बध तजना-दोनों क्रिया समान । तवाधार व्यवहार करें तो नर-नारक बन जाय अजान । निश्चय दृष्टि जीव स थावर देहों-से हैं भिन्न नितांत । भस्म समान उन्हें मर्दन में दोष न होगा फिर, मतिभ्रांत ! ( ४६/१० ) जीव सर्वथा अजर अमर है, जड़ शरीर से सदा अछत । पुण्य पाप सब एक बराबर, जिन्हें चढ़ा ऐकांतिकभूत । तद्वश हो व्यवहार धर्म का जो खंडन करते संभ्रांत । उन्हें निश्चयाभास सतत सचमुच करता दिखता दिग्मांत । (46/9) बष-हत्या, हिंसा । तबाधार-दोनों हिंसा और अहिंसा को समान मानकर । मर्दन-कुचलना, पीसना । (46/10) निश्चयाभास-नकली (मिभ्या) निश्चय । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार २६ ( ४६/११ ) भक्षण कर अभक्ष्य का रुचि से लेते स्वाद स्वयं अविराम । विषय वासना पूर्ति हेतु जो तन्मय रहते सतत सकाम । नहि वैराग्य ज्ञान की जिनके जीवन में है झलक, प्रवीण ! फिर भी सम्यकदृष्टि स्वयं को माने भांत पथिक वे दोन । ( ४६/१२ ) यह है सब व्यवहार धर्म निर्पेक्ष मान्यता का परिणाम । जिससे आत्म-म्रांतिवश जीवन मार्ग भ्रष्ट होता अविराम । जिनका दुष्कर्मों में रहता योग और उपयोग मलीन । उनके मार्ग भ्रष्ट होने में रंच नहीं संदेह, प्रवीण ! ( ४६/१३ ) किसको कौन-सा नय आश्रयणीय और प्रयोजनवान् है ? परमभाव वझे द्वारा है-निश्चय प्राश्रयणीय महान । जो समाधि में लीन बन करें, ससत स्वानुभव का रसपान । अपरमभाव संस्थित जन को है व्यवहार प्रमुख उपदेश । पात्र भेद से प्रतिपादित है उभय नयाश्रित धर्म अशेष । (46/13) आभयवीय-आश्रय लेने योग्य । परमभावदर्शी-खोपयोगी । अपरमभाव संस्थित-प्राथमिक-साधक दशा में स्थित । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ समयसार-वैगन (४६/१४) निश्चय निरपेक्ष व्यवहार भी व्यवहाराभास है । निश्चय को अलक्ष्य कर करते केवल पुण्य क्रिया अविराम । ख्याति, लाभ, पूजाहित-धार्मिक अनुष्ठान रत रहें सकाम । वे व्यवहाराभासी तप कर भी न मुक्त हों लक्ष्यविहीन । संसृति में स्वर्गादि प्राप्त कर रह जायें बेचारे दीन । ( ४६/१५ ) हेयोपादेय विवेचन शुद्ध, शुभ, अशुभ भावत्रय में उपादेय सर्वथा हि शुद्ध । शुद्ध न हो संप्राप्त, तदा शुभ उपादेय होता अविरुद्ध । किन्तु अशुभ सर्वथा हेय है श्री जिनेन्द्र के वचन प्रमाण । अतः अशुभ तज शुभ प्रवृत्ति कर लक्ष्य शुद्ध का ही श्रेयान् । हेयोपादेय का निर्णय परिस्थिति पर निर्भर उपादेय या हेय व्यक्ति की योग्यतानुगत है व्यवहार । जो चलता नित द्रव्य, क्षेत्र, कालादि परिस्थिति के अनुसार । उपादेय नौका ज्यों उसको, डूब रहा हो जो मझधार । वही हेय बन जाय स्वयं, जब हो जाता है बेड़ा पार । (46/14) ख्याति-नामवरी, यश । व्यवहाराभासी-नकली व्यवहार (मिथ्यात्व युक्त) आचरण करने वाला । लक्ष्यविहीन-आत्म सिद्धि के उद्देश्य से शून्य । (46/15) भावप्रय-तीन प्रकार के भाव । उपादेय-ग्रहणकरने योग्य; अविश्व-निविरोष । हेप-छोड़ने योग्य । श्रेयमान-कल्याणकारी । (46/16) योग्यतानुसार-पात्रानुसार। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार ( ४६/१७ ) तल भागस्थ व्यक्ति श्रेणी चढ़ करता अपनी मंजिल पार । यदि श्रेणी को हेय समझले, तो नीचे रहजाय गॅवार । व्याधि ग्रस्त जन को औषधियाँ जो जो पड़ती है अनुकूल । उपादेय वे सभी, किन्तु दुर्व्याधि गये हो जाती धूल । ( ४६/१८ ) यों निष्पक्ष दृष्टि से होता एक यही निश्चित सिद्धांत - अशुभ सदा ही हेय, कथंचित् उपादेय शुभ रहे नितांत । शुभ की पुण्य भूमि में रहकर लक्ष्य शुद्ध का रहे सयत्न । शुद्ध प्राप्त जब भी हो जाये, स्वयं शुभाशुभ छूटे प्रयत्न । ( ४६१६ ) शुद्ध भाव से डिगे कदाचित्, ले शुभ का आश्रय तत्काल । पुनः शुद्ध समभाव प्राप्तकर स्वानुभूति रत रहें त्रिकाल । शुद्ध स्वानुभव का सुलक्ष्य नित सर्वदशामों में श्रद्धेय । रंच नहीं संदेह-प्राप्त करने में इसके ही है श्रेय । (46/17) सलभागस्थ-नीचे खड़ा हुआ। श्रेणी-सीढ़ी, जीना। व्याधिप्रस्त-रोगी, बीमार । दुर्व्याधि-बीमारी। अनुकूल-साभदायक। (46/18) कपंचित-किसी दृष्टि से-पात्रानुसार । सयत्न-प्रयत्म पूर्वक । अयत्न-बिना यत्न के। (46/19)अय-श्रद्धा करने योग्य । भेय-कल्याण। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( ४६/२० ) व्यवहार नय का आश्रय किसे हेय है और किसे उपादेय ? जो मुनिजन निश्चय अलक्ष्य कर शुभ प्रवृत्ति में रहते लीन । उन्हें हेय व्यवहार दिखा गुरू निश्चय में करते तल्लीन । मुनि, श्रावक या अन्यजनों को जो है स्वानुभूति से हीन । उन्हें अशुभ तज शुभ प्रवृत्ति ही श्रेयस्कर तावत् अमलीन । ( ४६/२१ ) पात्र अपात्र दृष्टि रख होती धर्म देशना नित अम्लान । जो जिस योग्य उसे वैसी ही निश्चय या व्यवहार प्रधान । अभिप्राय यह है कि नयों की दृष्टि समझकर तत्व अशेष । जान मान आचरण किये बिन होगा जन उद्धार न लेश । ( ४७ ) दृष्टात द्वारा व्यवहार एव निश्चय का प्रदर्शन चल पड़ता चतुरंग सैन्य सज जगती पर जब नृपति उदार । उसे विलोकन कर विस्मित हो तब यूं कहता है संसार-- 'अरे ! भूप कोसों विस्तृत बन किधर कर रहा है प्रस्थान ?' यह व्यवहार कथन, निश्चय से नृपति न सैन्य व्यक्ति, इकजान । (46/21) धर्मदेशना-धर्मोपदेश । अशेष-सब। (47) विस्मित-आश्चर्य चकित । विस्तृत-फैला हुआ। प्रस्थान-कूच । सैन्य-सेना । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार (४८ ) त्यों रागादि विकारी भावों-मय होते जो अध्यवसान । उन्हें जीव कह दर्शाया है श्री जिनने व्यवहार विधान । एक चेतना जो व्यापक है अध्यवसानों में अविराम । निश्चय नय से वही जीव है, यहाँ भेद पाता विश्राम । ( ४६ ) शुद्धनय से आत्म तत्त्व का निरूपण (आत्मा क्या है) मरस, अरूप ,अगंध, स्पर्श विन, चिद्विशिष्ट, अव्यक्त, महान । शब्दहीन, जिसका न लिंग है, अनुपम, अनिर्दिष्ट संस्थान । जीव वही चेतन अविनाशो अन्तस्तत्व, स्वस्थ, अम्लान । सहजानंद स्वरूपी, सम्यक् दर्शन ज्ञान चरित्र निधान । ( ५० ) आत्मा क्या नही है? रूप नहीं, रस नहीं, गंध नहि, और नहीं है स्पशमशेष । नहि नारक, नर, सुर, पशुमय है, जितने शारीरिक परिवेश । समचतुरस्र, स्वाति, कुब्जक या अन्य नहीं कोई संस्थान । बज्रवृषभनाराचादिक भी नहि संहनन चैतन्य सुजान । (48) अध्यवसान-जीव के विकारी भाव । (49) चिविशिष्ट-चैतन्यमयी। अनिविष्ट-जिसका निर्देशन न किया जा सके (अनिर्वचनीय) । संस्थान-आकार। अंतस्तत्वआम्यंतर सार वस्तु । (50) परिवेश-वेष्टन । संहनन-हाड़ियों का बंधन विशेष । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ समयसार-वैभव ( ५१ ) निश्चय से विकारी भाव भी आत्मा के स्वभाव नहीं रागद्वेष मय जितने भी है मोह जन्य परिणाम विशेष । शाश्वत जीव स्वभाव कभी भी हो न सके वे बंध! प्रशेष । मिथ्यादर्शन अविरति अथवा योग, कषाय, प्रमाद मलीननिश्चय नय से प्रात्म भिन्न हैं द्रव्य-भाव-नो कर्म प्रवीण ! ( ५२/१ ) वर्ग वर्गणा आदि भी आत्मा नही समअविभाग प्रतिच्छेदमय शक्ति वर्ग कहलाती है । वर्गों का समुदाय वर्गणा जिनवाणी दरशाती है। इन्हीं वर्गणाओं से स्पर्द्धक बनते, पर ये सब नहि जीवमाने जा सकते न शुभाशुभ मन संकल्प विकल्प अजीब । ( ५२/२ ) लता, दारु, अरु अस्थि, अश्मवत्, विविध शक्तियुत्घातियकर्म। या गुड़, खांड, शर्करा एवं सुधा स्वाद वत् सब शुभ कर्म । अशुभ-निंब, कांजीर, विष हलाहल सम जो अनुभाग स्थान । नहि अशुद्ध अध्यात्म मयो भी शुद्ध जीव के है संस्थान । (51) अविरति-असंयमभाव । (52/1) समअविभाग प्रतिच्छेव-अणुओं में एक समान फल देने की शक्ति रखने वाले अविभागी अंश, ऐसे कर्म परमाणु जिनमें एक समान फल देने के अंश मौजूद हैं। स्पर्द्धक फलदान शक्ति की विशेष वृद्धि को प्राप्त कर्म वर्गणाएं । संकल्प-बाह्य विषयों में ममत्व की कल्पना । विकल्प-मन में हर्ष विषाद आदि । अतीव-बहुत से (52/2) लता-बेल । दार-सकड़ी। अस्थि-हड्डी । अश्म-पत्थर । धातीय कर्म-आत्मा के शानावि गुणों का घात करने वाले मोहनीय, मानावरण बर्शनावरण अन्तराय कर्म । सुधा-अमृत । निव-नीम । अनुभागस्थान-कर्मों के फल देने की योग्यताएं। अध्यात्म स्थान-मिप्यामान के समय होने वाले विकारी भाव । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार ( ५३ ) योग, बंध, उदय एव मार्गणा स्थान भी आत्मा नही मनवचकाय योग मय जितने चंचलयोग स्थान विशेष - प्रकृति स्थिति अनुभाग प्रदेशों मयी बंध संस्थान अशेष - नहीं जीव के हो सकते ये तथा न उदय स्थान समस्ततोत्र मंद फल मयी, मार्गणाओं के भी सब भेद प्रशस्त । ( ५४ ) स्थिति बध स्थान से लेकर गुणस्थान पर्यन्त जीव के स्वभाव नही कर्म प्रकृति को कालान्तर में स्थिति एवं तद्वंधस्थान । या कषाय के तीवोदय में होते जो संक्लेश स्थान । जब कषाय का मंदोदय हो तब हो बंधु ! विशुद्धि स्थान । चरित्र मोह को क्रम निवृत्ति में संयम के हों लब्धि स्थान । ( ५५ ) पर्याप्तापर्याप्त, सूक्ष्म-वावर प्रादिक सब जीवस्थान, मिथ्यात्वादि अयोगीजिन तक होते है चौदह गुणस्थान । यतः पौद्गलिक कर्म निमित्तक होते ये परिणाम विशेष । अतः सुनिश्चय दृष्टि जीव के कहलाएंगे नहीं अशेष । (55) पर्याप्तापर्याप्त-जिनकी पर्याप्तियां पूर्ण हो गई हों वे जीव पर्याप्त और जिनकी पूर्ण न हुई हों वे अपर्याप्त कहलाते हैं। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ ( ५६/१ ) शंका - समाधान यदि ये जीव नही हैं, केवल पुद्गल के परिणाम अशेषतो फिर किया जिनागम में क्यों जोव मान इनका व्यपदेश ? सुनो, भव्य ! एकांत नहीं है, चेतन भी पुद्गल के संगसविकारी बन फिरे भटकता रहै बदलता अपना रंग । ( ५६/२ ) रंगे हुए वस्त्रों में होता 'नील पीत' का ज्यों व्यवहार । निश्चय शुक्ल स्वभाव वस्त्र का, नीलपोत औपाधिकभार । त्यों उल्लिखित गुणस्थानादिक संयोगज परिणाम अनेकजीव कहे व्यवहार दृष्टि से, निश्चय-शुद्ध चेतना-एक । ( ५७ ) ___ वर्णादिक जीव के क्यों नही है ? वर्णादिक पुद्गल परिणामों का अनादि से चेतन संगसंयोगज सम्बन्ध मात्र है, नहि तादात्म्य उभय सर्वाग । नीर क्षीरवत् मिले हुए भी लक्षण से दोनों है भिन्न । पुद्गल जड़ स्वभाव, पर चेतन उपयोगाधिक गुण सम्पन्न । (56/1) व्यपदेश-भेद कथन। (57) संयोगज-दो वस्तुओं के मेल से उत्पन्न होने वाला । तादात्म्य-ऐक्यपना । उभय-बोनों। सांग-पूर्णाश में । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार ३४ ( ५८ ) दृष्टात देशांतर प्रति किसी पथिक ने अमुक मार्ग से किया प्रयाण । उसे लुटेरों ने मिल लूटा, लोक कहें व्यवहार प्रमाण'अरे ! मार्ग यह महा लुटेरा' किन्तु मार्ग प्राकाश प्रदेश-- कभी किसी को लूटेंगे क्या ? यह केवल उपचार अशेष । व्यवहार से जीव मूर्तिक है त्यों नो कर्म कर्म में होते वर्ण प्रादि गुण धर्म अनंत । जीवों को तद्वंध दशा में मूर्तिमंत कहते भगवंत । यह व्यवहार कथन है केवल निश्चय का करने परिज्ञान । बद्धजीव मूर्तिक शरीर से हो जाता संज्ञात, निदान । व्यवहार से संयोगज भाव जीव के ही है वर्ण समान गंध, रस, स्पर्श, अरु संहनन वा नाना संस्थान, बंध, उदय, अध्यात्म-मार्गणा-योग-विशुद्धि-संक्लेश स्थान । जीवस्थान, गुणस्थानादिक जो जीवाश्रित है संल्श्रिष्ट । वे व्यवहार दृष्टि से सम्यक जैनागम द्वारा निर्दिष्ट । (58) देशांतर-दूसरा देश । प्रयाण-प्रस्थान । (59) नोकर्म-शरीर ।कर्म-ज्ञानावरणदि रूप कर्म परमाणु ।तबंध वशा-कर्म बंधन की हालत ।संज्ञात-ठीक ठीक जाना हुआ। (60) संधिष्ट-मिले हुए । निर्दिष्ट-कहे गये। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ समयसार-वैभव व्यवहार व निश्चय प्रवृत्ति के कारण संसारी जन में वर्णादिक कहलाते पुद्गल के संग; किन्तु मुक्त हो जाने पर नहि वर्ण आदि का रहे प्रसंग । इनका है तादात्म्य देह में; किन्तु जीव से है संयोग । संसृति से परिपूर्ण मुक्त में इनका होता सहज वियोग । ( ६२ ) जीव और पुद्गल भिन्न क्यों है ? यदि वर्णादि पौद्गलिक जितने भी है गुण पर्याय विशेष । चेतन के ही मान चलें तो पुद्गल पृथक् न रहता लेश । यथा ज्ञान दर्शन चेतन से रखते है तादात्म्य अतीव । त्यों वर्णादिक गुण पुद्गल से, अतः भिन्न द्वय पुद्गल जीव । ( ६३ ) ससारी जीवो को वास्तव मे रूपी मानना युक्त नही तुम्हें मान्य हों यदि संसारी--जन वर्णादिमन्त सविशेष । तब स्वभावतः ही संसारी मूर्तिमंत हों, सिद्ध अशेष । माना गया रूप को पुद्गल का विशेष लक्षण निम्रन्ति । उक्त नियम से संसारी जन पुद्गल होंगे सिद्ध नितांत । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार १६ (६४) संसारी जीव को रूपी मानने में हानियाँ यों संसारी जीव मात्र तुम पुद्गल माना एक प्रकार । उसे मुक्ति मिलने पर पुद्गल को ही मुक्ति मिली साकार। यों पुद्गल ही सिद्ध हुए सब, जीव तत्व का हुवा विनाश । यह संभव नहि, यतः स्वयं में झलक रहा चैतन्य प्रकाश । (६५) जीव स्थान भी निश्चय से जीव नही। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय प्रादि-- बादर और सूक्ष्म सब ही है नामकर्म की प्रकृति अनादि । पर्याप्तापर्याप्तक भी है उसी कर्म के भेद निदान । इन्हीं प्रकृतियों द्वारा होते समुत्पन्न सब जीवस्थान । (६६) जीवस्थान जड़ स्वभाव है इनमें कहाँ चेतना ? इनसे भिन्न तत्व चैतन्य ललाम । करणभूत ये कर्म प्रकृतियां पुद्गलमय है जड़ परिणाम । इनमें जब उपलब्ध नहीं है, कहीं जीव का सत्त्व अनूप । फिर जड़ प्रकृतिमयो इन सबको मान्य करें कैसे चिद्रूप ? (65) समुत्पन पैदा । (66) सत्व-अस्तित्व । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ समयसार-मव ( ६७ ) 'सूक्ष्म बादर' जीव संज्ञा मात्र व्यवहार सूक्ष्म बादरादिक जीवों को सूत्र कथित संज्ञा निभन्तिदेहों की ही है, घृत घटवत् अपर्याप्त पर्याप्त नितान्त । लौकिक जनको जीवतत्त्व के अवगम हेतु किया व्यवहार । विन व्यवहार शक्य नहिं जग में धर्म तीर्थ परमार्थ प्रसार । ( ६८ ) वास्तविकता क्या है ? मोह व्याधि से पीड़ित है यह दृष्टादृष्ट सकल संसार । इसके उदय--योग से होता, गुण स्थान कृतभेद प्रसार । हैं कर्मोदिय जन्य अचेतन गुण स्थान नहि, जीवस्वभाव । निश्चय नय को शुद्ध दृष्टि में जीव-मात्र है ज्ञायक भाव । इति जीवाजीवाधिकारः (67) संज्ञानाम । अवगम-ज्ञान कराना। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता-कर्माधिकारः ( ६६ ) आत्मा मे क्रोधादि भाव क्यो उत्पन्न होते है , चिर प्रज्ञान जनित भ्रमतमरत रह अनादि से सतत अशांत । प्रास्त्रव एवं आत्म तत्व में अंतर पाता नहि चिभ्रांत । निज अज्ञानदशा में भ्रमवश कर क्रोधादि मलिन परिणाम । तन्मय हो अभिनय करता है भूतग्रस्त जनवत् अविराम । क्रोधादि भावों का परिणाम क्या होता है ? जीवन में क्रोधादि विकृति कर खुलजाता प्रास्रव का द्वार । प्रास्त्रय संचित कर्म बद्ध हों-तीव्र मंद परणति अनुसार । जीव-पुदगलों में जिन भाषित है वैभाविक शक्ति महान -- जिससे उभय-द्रव्य में होती वैभाविक परणतियां म्लान । (69) चिद्भात-आत्म तत्व के संबंध में भ्राति रखने वाला । भूत प्रस्त-जिसे भूत लगा हो। (मिथ्या दृष्टि) जनवत्-मनुष्य के समान । अविराम-निरंतर । (70) विकृतिविकार । संचित-इकट्ठे किये हुए। बंभाविक शक्ति-विकार रूप परिणमन करने को योग्यता । उभय-दोनो । म्लान-मलीन-विकृत, गंदी। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैमव ( ७१ ) आस्रव एव बध कब नहीं होता ? जीवन में छाया अनादि से मोहमहातम निबिड नितांतजिससे अपना और पराया समझ न पाता चिर विभ्रान्त । जब क्रोधादि प्रास्रवों से हो भिन्न ज्ञात शुद्धात्म स्वरूपजीवन मे तब बंध न होता, भेद-ज्ञान-परिणामअनूप ! भेद विज्ञान से बध निवृत्ति किस प्रकार होती है ? प्रास्रव अशुचि स्वभाव जिन कथित ज्यों जल में सिवार त्यों म्लान । जीव ज्ञानघन है, प्रास्त्रव पर चिद्विकार पुद्गल संतान । चिदानंद मय रूप हमारा--प्रास्त्रव दुखद और पर रूप । एवं जान रहस्य न करता ज्ञानी प्रास्रव भाव विरूप । ( ७३/१ ) भेद ज्ञानी की शुद्धात्म भावना हचिन्मात्र तत्व में शाश्वत, शुद्ध-कर्म कर्त त्व विहीन । क्रोध मान मायादि विकृति से निर्ममत्व, रागादिक होन । दर्शन ज्ञान-समग्र, स्वस्थ, सच्चिदानंदरस पूर्ण प्रक्षीण । कर्मकलंकपंक बिन पावन, अमल-प्रखंड-ज्योति,स्वाधीन । (72) निवृत्ति-छुटकारा-मुक्ति। निविड़-घोर, सधन । चिब्रह्म-ज्ञानमयो आत्मा। अनूप-उपमा रहित, बेमिसाल, (72) सिवाल-काई, जल में उत्पन्न पदार्थ विशेष । (73/1) शास्वत-सवाकाल रहने वाला, स्थायी ।चिन्मात्र-मान मात्र ज्ञानमयी । समप्र-परिपूर्ण । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर्माधिकार ( ७३/२ ) शुद्धात्म भावना का परिणाम यों शुद्धात्म भावना रत हो जीव स्व-पर तत्वार्थ पिछान-- पर संकल्प विकल्प जाल से होकर मुक्त, स्वस्थ, अम्लानअंतरात्म बन करता जब वह अनुपम चिदानन्द रसपान स्वतः उसी क्षण नूतन प्रास्त्रव-बंधन का होता अवसान । (७४/१ ) ज्ञानी के आस्रव सम्बन्धी विचार जीव बद्ध प्रास्त्रव का होता अपस्मारवत् दुष्परिणाम । प्रास्लव प्रधा व-जीव ध व प्रास्रव ज्वरवत् दुखमय, चित् सुखधाम । जीवशरण ये अशरण-इकक्षण उदय काल रुक सकें न दीन । प्राकुलता उत्पादक प्रास्त्रव, प्रात्मस्वभाव विकलता-हीन । ( ७४/२ ) नरकवास ज्यों दारुण दुःखमय प्रास्त्रव का भीषण परिणाम । सुख-सत्तासम्पन्न चेतना अनाद्यंत अनुपम अभिराम । प्रात्मतत्त्व यों अनुभव करता जब प्रास्रव से भिन्न नितांत । तब ज्ञानी बंधन से होता-सहजनिवृत्त, निराकुल शांत । (74/1) दुष्परिणाम-परा मतोजा, खोटा फल। अपस्मारवत्-मिरगी रोग-जिसमें स्मरणशक्ति नष्ट हो जाती है। विकलता-आकुलता, दुल । अध्रुव-अस्थायी । (4/2) अभिराम-सुन्दर । मनाचत-आदि अन्त रहित । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-चमन ( ७५ ) वास्तविक ज्ञानी कौन ? सुख, दुःख, राग, द्वेष, मोहादिक हैं सब कर्मों की संतान । स्पर्श रूप रस गंध सूक्ष्म या वादरादि नोकर्म प्रधान । चेतन निश्चय से इनका नहि कर्ता है, ये जड़ परिणाम । यों अनुभव कर्ता हि वस्तुतः ज्ञानी कहलाता निष्काम । ( ७६ ) ___ ज्ञानी पर द्रव्य को जानता, किन्तु कर्ता नही । पुद्गलकर्म जानता ज्ञानी भेद ज्ञान कर विविध प्रकार; किन्तु नहीं तद् प परिणमन करता किंचित् किसी प्रकार । परको ग्रहण न करता है वह, उनमें नहि होता उत्पन्न । अपना परमें हो सकता नहि कर्ता - कर्मभाव निष्पन्न । ( ७७ ) .. ज्ञानी अपने रागादि को जानता हुआ भी तद्रूप परिणमन नही करता । जानी, कर्मोदय निमित्त से-जो होते दुर्भाव अशेषउन्हें जानता है नैमित्तिक, नहि तद्प परिणमें लेश । प्रादि मध्य या अन्त कभी भी नहिं परिणमता वह पररूप । तत्पर्याय ग्रहण नहि करता नही उपजता बन तद्रूप । (75) हि-निश्चय से। निष्काम-जिसे सांसारिक भोगों एवं वस्तुओं की चाह न हो। (76) तदूप-उस रूप । निष्पा -सिध्द । (77) अशेष-समस्त । तत्-मह, उसकी। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता-कर्माधिकार ४२ ( ७८ ) " , ज्ञानी कर्म फलों का भी कर्ता नहीं । सुख दुखादि जो पुद्गल कर्मों के विपाक है विविध प्रकार । ज्ञानीजीव न उनका कर्ता सिद्ध कभी होता अविकार । यतः न वह तन्मय होता है, करता उन्हें ग्रहण नहि लेश । और न हो उत्पन्न वही बन, उदासीन रहकर सविशेष । ( ७६ ) पुद्गलकर्म भी जीव के भावो का कर्ता नहीं है । ज्यों न जीव पुद्गल मय कर्मों और फलों का कर्ता है । त्यों पुद्गल भी नहि निश्चय से जीव-भाव परिणमता है । उन्हें ग्रहण करता न कभी वह साभिप्राय चैतन्य विहीन । एवं जीव रूप धारण कर भी न उपज सकता जड़ दीन । (८०) जीव और कर्म मे निमित्त और नमत्तिक सन्बन्ध है । जीवों के परिणाम निरन्तर होते जो कि शुभाशुभरूप । पा निमित्त इनका पुद्गल-अणु कर्मरूप परिणमें विरूप । वैसे ही उदयागत पुद्गल कर्मों का निमित्त पा जीव - रागद्वेष भावों को धारण कर बन रहता विकृत अतीव । (79) साभिप्राय-इरादतन, विचारपूर्वक । बिहीन-रहित, शून्य । जड़ अजीब। बीन बेचारा, गरीब। (80) विरूप-विभाव रूप, विकारमयी। अतीव-अत्यंत । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ समयसार-वैभव (८१) निश्चय से जीव और पुद्गल में कर्ता कर्म सबध नही । पुद्गल के गुण पर्यायों का कर्ता रंच नहीं चैतन्य । और न चेतन के गुण पर्यय है पुद्गल कर्मो से जन्य । किन्तु परस्पर उभय द्रव्य में है निमित्त नैमित्तिक भाव । जिसका यह परिणाम दिख रहा द्रव्य भावगत राग विभाव । (८२ ) जीव निश्चय से अपने ही भावो का कर्ता है । स्वाभाविक ही चेतन अपने भाव स्वयं करता निष्पन्न । सकल पौद्गलिक कर्म-भाव वह नहि कदापि करता उत्पन्न । शुद्ध भाव ज्ञानी करता है, अज्ञानी रागादि विकार । ज्ञानावरणादिक का का कहना है केवल उपचार । (८३/१ ) . जीव निश्चय से अपने भावो का ही कर्ता-भोक्ता है, किन्तु उसके विकारी भावो में कर्मोदय निमित्त होता है । इस प्रकार निश्चय से चेतन अपने ही करता परिणाम - शुद्ध अशुद्ध मिश्र परणतियाँ जो कुछ भी होती अविराम । भोक्ता भी वह अपने भावों का ही रहता है त्रय काल । किन्तु तहाँ पुद्गल कर्मोदय भी निमित्त रहता तत्काल । (81) द्रव्य भावगत-पुद्गल के परमाणुओं और आत्मा में उत्पन्न होने वाला। विभाव-विकार। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का-काधिकार ( ८३/२ ) उक्त कथन का दृष्टांत । उदषि शांत हो या लहरावे, उठने पर भीषण तूफान । वह अपनी परणति अपने में करता है, स्वयमेव, न पान । तीन मंद मध्यम गति परिणत बहने वाला वायु-प्रवीण ! रहता है निमित्त हो केवल, सागर की परणति स्वाधीन । (८४ ) जीव कर्मों का कर्ता भोक्ता व्यवहार से है । यथा मृत्तिका से कुलाल मृद्-पात्रों का करता निर्माण । उनका कर्ता-भोक्ता है वह, यह कहता व्यवहार विधान । त्यों सविकारी जीव कर्म का कर्ता है व्यवहार-प्रमाण । सुख-दुख कर्मफलों का भोक्ता भी कहलाता वह, मतिमान ! ( ८५ ) निश्चय से जीव कर्म का करता क्यो नही है ? निश्चय से यदि जीव कर्म का कर्ता माना जाय नितांत । तब जड़-चेतन उभय क्रिया का कारक जीव ठहरता, भ्रांत । जिनमत से विरुद्ध वा बाधित भी है यह सिद्धांत, प्रवीण ! जड़ में जड़, चेतन में चेतन क्रिया हुमा करती स्वाधीन । (83/2) उदषि-समुद्र । आम-सरा। सागर-समुद्र । (84) कुलाल-कुम्हार, कुंभ कार । मृ-मिट्टी ।सविकारी-रागद्वेषादि विकार करने वाला। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसारपत्र ( ८६/१ ) द्वि क्रियावादी मिथ्यादृष्टि है । निजमें निजको, पर में पर की सर्वक्रिया होती निष्पन्न । कर्म कर्त्त ता-चेतन में तुम करना, चाह रहे सम्पन्न । कितु न जड़ की क्रिया कभी भी चेतन कर सकता निष्पन्न । द्विक्रिया वाद इसी से मिथ्या हो जाता संसिद्ध, विपन्न । ( ८६/२ ) निश्चय नय से कर्ता कर्म और क्रिया का स्वरूप । जो परिणमन करे वह कर्ता, कर्म वही जो हो परिणाम । परणति-क्रिया कही जाती है, वस्तु एक-त्रय दृष्टि ललाम । स्वतः प्रत्येक द्रव्य परिणामी परिणमता कर निजपरिणाम । पुद्गल को परणति पुद्गल में, चेतन में उसका क्या काम ? ( ८६/३ ) ममतम ग्रसित जीव अज्ञानी बन रहता सदृष्टि विहीन । 'मैं कर्ता-धर्ता हूँ जग का' यों, विचार कर बने मलीन । इस अनादि सम का हो जाये यदि परिहार एक ही बार तो निश्चित हो जाय हमारा भवसागर से बेढ़ा पार । (86/1) नि-यो । संसिख-अच्छी तरह सिद विपन्न-विपद् प्रस्त, मष्ट, जिस पर विपत्ति माई हो। (86/2) ललाम-मुन्वर । (86/3) परिहार-स्थाग, दोष का दूर करना । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का-कर्माधिकार ( ८७/१ ) मिथ्यात्वादि जीव के है या पुद्गल के ? मिथ्यात्वादि जीव के कहते भगवन् ! तुम अनन्य परिणाम । फिर उनही को पुद्गल के भी घोषित करते क्यों अविराम ? हमें समझ नहि आता यह तब कथन परस्पर नियम विरुद्ध । उन्हें जीव या पुद्गल के ही निश्चित कहियेगा अविरूद्ध । ( ८७/२ ) मिथ्यात्वादि भाव जीव के हे और कर्मप्रकृति पौद्गलिक है । सुनो, भव्य ! इसमें रहस्य है एक नहीं मिथ्यात्वमलीन । अविरति, योग कषाय, जीव, वा जड़ गत हं द्वयभाव, प्रवीण ! जीव और पुद्गल दोनों में होते ये वैभाविक भाव । मिथ्या श्रद्धा भाव जीव का, इतर पौद्गलिक कर्म विभाव । ( ८७/३ ) इसका दृष्टांत ज्यों मयूर का रूप झलकता जब दर्पण तल में अभिराम । तब मयूर रहता मयूर में, दर्पण में प्रतिबिम्ब ललाम । दर्पण का प्रतिबिम्ब उसी की परणति है, न मयूर स्वरूप । मिथ्या श्रद्धाभाव जीव का, है मिथ्यात्व प्रकृतिजड़रूप । (87/1) अनन्य-अभिन्न, तन्मयी, एकाकार । अविराम-तुरंत, फौरन, तत्काल । अबिरुद्ध-विरोष रहित । (87/2) इतर-दूसरा। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( ८८ ) मिथ्यात्वादि पुद्गल और जीव उभय में उत्पन्न होते है । जीव और जड़उभयाश्रित हैं-मिथ्यात्वादिक उभय विकार । जीवाश्रित है मिथ्याश्रद्धा अविरति या अज्ञान विकार । है मिथ्यात्व योग अविरति ज्ञानावरणादि प्रकृति परिणाम । पुद्गल जीव उभय के यों है मिथ्यात्वादिक द्वय-सम नाम । ( ८६ ) किस कारण चेतन में होते मिथ्यात्वादि मलिन परिणाम ? भव्य ! सुनों संसृति में चेतन कर्मबद्ध रहता अविराम । मोह युक्त उपयोगमयी सब मिथ्या अविरति अरु अज्ञान । चेतन की परणतियाँ होती भूतग्रस्त जनवत् त्रय म्लान । (६० ) आत्मा तीन प्रकार के परिणाम विकारों का कर्ता है। - निश्चय कथित शुद्ध उपयोगी निरावरण चैतन्य महान । मिथ्या अविरति वा कषाय मय परिणत हो बन रहा अजान । जब जैसा उपयोग निरत बन करता उक्त मलिन परिणामउसका वह कर्ता बन जाता पा निमित्त कर्मोदय वाम । (88) द्वाय-दोनों। सम-एक समान । उभयाधित-दोनों के आश्रित । (89)संसतिसंसार वशा, परिभ्रमण की हालत । भूत प्रस्त-जिसको भूत लगा हुआ है। जनवत्मनुष्य के समान । त्रय-तीन । म्लान-मलिन, गंदी। (90) वाम-विपरीत, प्रतिकूल । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Y कर्ता-कर्माधिकार (६१) आत्मा के विकृत भावों के निमित्त से पुद्गल स्वयं ही कर्मरूप परिणमता है ! शुद्धाशुद्ध भाव कर चेतन परिणमता जैसा-जिसबार । उन भावों का कर्ता भी वह निश्चित होता सर्व प्रकार। जब अशुद्ध भावों कर परिणत होता है चैतन्य मलीन । स्वतः तभी पौद्गलिक वर्गणा कर्मरूप परिणमें मलीन । जीव कर्मों का कर्ता अज्ञान से ही है मोह जनित अज्ञान प्रसित बन प्राणी स्वयं विकाराक्रांत । पर को निज, निज को पर, कल्पित मान भ्रमित हो रहा प्रशांत । रागद्वेष मोहादि विकृतियाँ कर्म निमित्तज है परिणाम । अपनाकर वह उन्हें कर्मका कर्ता बना हुवा अविराम । (६३ ) सम्यक्दृष्टि जीव कर्म का कर्ता नही बनता । अनुभव कर शुद्धात्तमत्त्व का ज्ञानी बन विनांति विहीन । परको अपना मान कभी वह होता नहि मिथ्यात्व-मलीन । निजको परका भी न बनाता वीतराग विज्ञान निधान । ज्ञाता दृष्टा बन रहने से कर्म प्रकारक है संज्ञान । (92) विकाराकान्त-विस पर विकारों ने आक्रमण किया हो। विकृतियां-विकार समूह, खोटे भावों का समुदाय । अविराम-तुरंत । (93) विभ्रांति-मिथ्यात्व, मोह। निधान-भंगार, समाना। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयसार-वैभव ( ११४ ) इस प्रकार सब जीव नियम से होंगे सिद्ध स्वयं निर्जीव । जीव द्रव्य का नाश दूसरे-शब्दों में हो जाय अतीव । यही दोष प्रत्यय शरीर वा जीव एकता में गंभीर । जब कि जीव नहि कर्म बन सके और न प्रत्यय याकि शरीर । ( ११५/१ ) जीव तत्व से क्रोध भिन्न है, यदि यह मान्य तुम्हें सिद्धांत । यतः क्रोध जड़; किन्तु जीव उपयोग मयी चैतन्य नितांत । त्यों नो कर्म, कर्म-प्रत्यय भी जीव भिन्न होते है सिद्ध । मिथ्यात्वादि विकारों से है भिन्न तत्व चैतन्य प्रसिद्ध । ( ११५/२ ) व्यवहार नय मे जीव कर्मों का कर्ता है यो विशुद्ध नय से कर्मों का कर्ता जीव न होता सिद्ध । किन्तु वही व्यवहार दृष्टि से कर्ता भोक्ता न ही प्रसिद्ध । यतः जीव अज्ञान दशा में करता है परिणाम मलीन । अतः जीव ही उनका कर्ता बन रहता व्यवहाराधीन । (114) अतीव-अत्यंत । प्रत्यय-इन्द्रियादि करण । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता कर्माधिकार ( ११५/३ ) व्यवहार निरपेक्ष निश्चयकात सांख्य सदाशिवों का मत है देवदत्त अवलोकन करता वामनेत्र से, इसका अर्थ--1 यही कि दक्षिण से न विलोके, भिन्न अर्थ सब होंगे व्यर्थ । यों सापेक्ष नयों को जो नहि मान्य करें मतिभ्रान्त नितांत । सांख्य, सदाशिव मत अनुयायो बनकर होते वे दिग्भ्रान्त । ( ११५।४ ) यदि यह जीव सर्वथा ही नहि होता कभी विकाराक्रांत । क्रोध मानमायादि कषायों से प्रलिप्त रहता निर्धात । तब फिर कर्म बंध नहि होगा इसे सिद्ध भगवान समान । संसार जन रहे न कोई, सभी मुक्त हो रहे, निदान । ( ११५/५ ) निश्चयकात प्रमाण बाधित है यह सब है प्रमाण से बाधित, जब किप्रत्यक्ष दुःखी संसार । और जीव से भिन्न न होते क्रोधादिक चैतन्य विकार । अतः नयाश्रित कथन सर्वथा है न कदाग्रह योग्य निदान । जिस नय से जो कथन किया, वह आपेक्षिक ही सत्य सुजान । (121/3) वामनेत्र-बायी आँख । सापेक-एक दूसरे की अपेक्षा रखते हुए । (115/4) विकाराकांत-विकार सहित। आपेक्षिक-किसी अपेक्षा (सर्वथा नहीं) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ समयसार-वैमव ( ११६ ) जीव और पुद्गल मे वैभाविक शक्ति का निरूपण जीव तथा पुद्गल में होती वैभाविक इक शक्ति महान । जिसका विकृत परिणमन होता उभय द्रव्य में स्वतः निदान । यदि पुद्गल नहि बँधे स्वयं ही या न परिणमें कर्मस्वरूप । पुद्गल का फिर हो जायेगा अपरिणामि-कूटस्थ स्वरूप । ( ११७ ) निरपेक्ष अनेक मान्यताएं और उनका निराकरण प्रपरिणामिनी कर्मवर्गणा कर्मरूप यदि हों नहि म्लान । तब संसति का ही हो जाये जगती पर सम्प्रति अवसान । क्यों कि कर्म के बंध बिना संसार दशा होती नहि सिद्ध । या फिर सांख्यमती बनने का प्राजायेगा दोष प्रसिद्ध । ( ११८ ) यदि यह माना जाय कि पुद्गल अणुओं को वसुकर्म स्वरूपजीव परिणमाता है स्वशक्ति से, तब यह बनें प्रश्नका रूपस्वयं परिणमन शील द्रव्य को, या नितांत परिणामविहीन। अपरिणामि यदि स्वयं, अन्य फिर कर सकता क्या तत्र नवीन ? (116) अपरिणामि-अपरिवतित-जिसमें परिणममन हो । कूटस्थ-अटल, जिसमें परिवर्तन न हो। (117) संसृति-संसार परिभ्रमण । संप्रति-दस काल में । अवसान-अंत । (118) तत्र-वहां, उसमें Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता-कर्माधिकार ( ११६ ) यदि यह कहो कि पुद्गल की जड़-कर्म वर्गणायें वसुरूपस्वयं परिणमें कर्ममयीबन, है निमित्त चिद्भाव विरूप । तब फिर यह तब कथन कि चेतन उन्हें परिणमाता है म्लानमिथ्या स्वयं सिद्ध हो जाता कथन पुरस्सर तव मतिमान ! । निष्कर्ष यों होता है सिद्ध कि पुद्गल कर्मवर्गणा स्वतः स्वभावकर्मरूप परिणमें; किन्तु हो-तनिमित्त रागादि विभाव । जीवों के परिणामों का वे पा निमित्त बनकर्म विशाल । जीव प्रदेशों में बँधते, बन-ज्ञानावरणादिक तत्काल । ( १२१ ) जीव को सर्वथा अबधक मानने मे दोप पुद्गलवत् यदि जीव स्वयं ही बंधन करता नहीं कभी न । और न क्रोधादिक विकार मय परिणम कर वह बनै मलीन । यह सिद्धांत भ्रमात्मक है, तब इसका होगा यह परिणाम । कहलायेंगे सदा सर्वथा अपरिणामि ही चेतनराम । (119) विरूप-विकृत। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रमयसार-वैभव ६१ ( १२२ ) जीव म्बय रागादि भाव का कर्ता है। स्वयं परिणमित जीव करै नहि यदि क्रोधादि भाव विरूप । कर्म बंध होगा न जीव को फिर इसके परिणाम स्वरुए। संसति के अभाव का आता तव प्रसंग-जो दष्ट विरुद्ध । अथवा साख्यमती बनने का प्राजाता प्रसंग विरुद्ध ( १२३ ) यदि चेतन मे क्रोधादिक का उत्पादक है पुदगल कर्म । स्वयं अपरिणामां को कंस परिवर्तित करता जड़ कम ? किसी द्रव्य के निज स्वभाव को पलट नही सकता है अन्य । जड़ कर्मों के तीव्र उदय मे जड़ नहि बना कभी चैतन्य । ( १२४ ) यदि यह मान्य तुम्हें कि क्रोधमय स्वयं परिणमन करता जीव; क्योंकि परिणमन उपादान की दृष्टि द्रव्य में स्वतः अतीव । तब मिथ्या स्वयमेव सिद्ध हो जाता तब प्यारा सिद्धांत । द्रव्य क्रोध परमाणु जीव को क्रोध मयो करते विभ्रान्त । (122) विड्प-विकारी। अविरुद्ध-निविरोध । (124) अतीव-अत्यंत, बिल्कुल । विभ्रांत-विकारी Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता-कर्माधिकार ६२ ( १२५ ) अभिप्राय यह है कि चेतना परिणामी है स्वतः स्वभाव । कोषमयी उपयोग करे तब क्रोधी बनता चेतनराव । मान युक्त हो मानी बनता, मायाकर मायावी म्लान । लोभी मुग्धवृत्ति धारण कर उपादान की दृष्टि प्रमाण । ( १२६ ) जीवो की दो प्रकार परणतियों और उनके परिणाम इससे सिद्ध हुवा निश्चय से निजभावों को कर निष्पन्न । जीव उन्हीं का कर्ता होता जो उससे होते नहि भिन्न । ज्ञानी के परिणाम ज्ञानमय, अज्ञानी के ज्ञान विहीन । जीवों को परणतियां द्वय-विध होती सतत स्वयं स्वाधीन । ( १२७ ) अज्ञानी जन स्व-पर ज्ञान से शून्य रहा करता मतिभ्रांत । पर में सुख दुख मान सदा ही बनता स्वयं विकाराकांत । फलस्वरूप फिर खुल जाते है इसे कर्म बंधन के द्वार । ज्ञानी बन जाने पर होता जीवन बंधमुक्त अविकार । (125) मुगष वृत्ति-सालची भाव, गडता । (126) सतत-निरंतर । (127) विकाराकान्त-विकारयुक्त Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ समयसार-वैभव ( १२८-१२६ ) ज्ञान मयो भावों से होती ज्ञान मयी भावों की सृष्टि । कारण के अनुसार कार्य हों निश्चित उपादान को दृष्टि । एवं अज्ञानी जन में भी हों जितने जैसे परिणाम । वे विवेक से शुन्य विकृत हों रागद्वेष रंजित, अविराम । ( १३०-१३१ ) स्वर्णमयी कुंडल का होता यथा स्वर्ण से ही निर्माण । लोह पात्र निर्मित होता है लोह धातु से नियम प्रमाण । त्यों अज्ञानी जन के होते भाव सदा सद्ज्ञान विहीन । ज्ञानी के परिपूर्ण भाव हों ज्ञानमयो पावन अमलीन । ( १३२ ) अज्ञान भाव का स्वरूप, प्रकार एव मिथ्यात्व जिसके उदय जीव को होती तत्वों की उपलब्धि सदोष । वह दूषित अज्ञान भाव है, इसके भेद चार निर्दोष । प्रथम भेद मिथ्यात्व विश्रुत है, हो जिससे मिथ्या श्रद्धान । जीवाजीवादिक तत्वों में तथा कथित विभांति महान । (128) विकृत-विकारी, सदोष । रंजित-रंजायमान, युक्त । अबिराम-उसी समय (132) विभुत-प्रसिय । विभ्रांति-विशेष प्रकार का प्रम, मोह। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कत्ता-कर्माधिकार ( १३३ ) असंयम व कपाय का परिणाम उदय असंयम का हो तब हों अविरति रूप मलिन परिणाम । जिनके विवश पाप तज चेतन व्रत धारण नहि कर अकाम । जब कषाय का उदय प्राप्त हो तब कलुषित हों भाव अशेष । रागद्वेष मे सना हुवा है जिनसे जन जीवन निः-शेष । ( १३४ ) योग की विशेषता योग उदय चेष्टाएं होतीं मन वच काय जन्म अविराम । इच्टानिष्ट कार्य में होते तब सचेष्ट निष्चेष्ट सकाम । यों मिथ्यात्व कषाय असंयम योग वश हवा जीव-प्रवीण ! सम्यकदर्शन ज्ञान चरण से वंचित रहता, सतत मलीन ! ( १३५ ) अजान मयी भावों का परिणाम भावों का निमित्त पा पुद्गल कर्म वर्गणायें तत्काल । ज्ञानावरणदिक वसु विधिकर कर्मरूप धर रहे विशाल । यथा उदर में भक्त असन का रसरुधिरादि रूप परिणाम । सप्त धातुमय हो जाता है, त्यों परमाणु परिणाम वाम । (133) अकाम-बिना किसी सांसारिक भोग की इच्छा के। अशेष-सब । निःशेषपरिपूर्ण । (134) सचेष्ट-चेष्टा सहित । निश्चेष्ट-चेष्टा रहित । सकाम-कामना सहित । (135) भुक्त असन-किया हुआ भोजन ।बाम-विकारमयी, विकृत । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैमव ( ६४ ) अज्ञान में कर्मों की उत्पत्ति किस प्रकार है ? भ्रमित जीव का होता जिसक्षण त्रिवधि विकृत उपयोग निनांत । कलुषित भावमयी वह करता आत्म विकल्प तभी मतिभ्रांत । क्रोधमग्न क्रोधी बन जाता, मान निरत मानी विभ्रांत । यों उपयोग विकृत कर चेतन तत्कर्ता बन रहे नितांत । (६५ ) परिणामत -अज्ञान भाव ही कर्मकता सिद्ध होता है । मिथ्यादर्शनज्ञानचरण-रत विविध भ्रांतिवश बन अनजान-- धर्मादिक परद्रव्य ज्ञान-जयों को रहता अपना मान । जब उपयोग ज्ञेय में होता तब रहता वह निज को भूल । पर मे रम तद्रूपज्ञान का कर्ता बन, चलता प्रतिकूल । (६६ ) भूत ग्रस्त जनवत् करता है मंदबुद्धि, संकल्प विकल्प । निज में पर, पर मे निज की कर भ्रांत कल्पना अन्तर्जल्प । कारण है अज्ञानभाव ही जिससे यह चिद्रूपअनूप । पर में होकर मुग्ध स्वयं का भूला परमानंद स्वरूप । (94) निरत-चूर मस्त । तत्कर्ता-उसका करने वाला। (95) रम-रति कर के । (96) अंतर्जल्प-मन में होने वाली कल्पनाएँ । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता कर्माधिकार ( ९७/१ ) पर में प्रात्म विकल्प यही है भ्रम मूलक अतिशय प्रज्ञान ! अज्ञानी अज्ञान भावका यों निश्चित कर्ता भमठान निज निज है, पर-पर-एवं जब हो उत्पन्न भेद विज्ञान । तब निज पर संबंधित भामक कृत भाव का हो अवसान । ( ६७/२ ) शंका समाधान जान मात्र से नश जाता क्या चिर कर्तृत्व भाव भगवन् ! गुरु कहते-सुन, प्रथम वस्तु का तत्व ज्ञान कर भव्य ! गहन । तब सराग समदृष्टि बन करे अशुभ कर्म कर्तृत्व विनाश । वीतराग समदृष्टिबन कर पुनः शुभाशुभ कर्म विनाश । (६८ ) जीव पर द्रव्य का क उपचार से है। कहलाता उपचार नयाश्रित घटपट का कर्ता चैतन्य । इन्द्रियादि करणों का या नो कर्म-कर्म का जो पर जन्य । इस प्रकार निज-भिन्न द्रव्य का कर्ता है व्यवहार प्रमाण । है उपचार मात्र वह केवल, निश्चय पर कर्त्त त्व न जान । (97/1) अवसान-अंत । भ्रामक-भ्रम में डालने वाला । (98) करणों-साधनों। परजन्म-दूसरों से उत्पन्न होने वाला। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ समयसार-वैभव ( ६६ ) वास्तविक दृष्टि से पर कर्तत्व मानने में हानि यदि चेतन पर द्रव्य भाव का कर्ता माना जाये नितांत । तब चेतन तद्रूप परिणमन कर जड़ बन जाये, मतिभ्रांत ! यतः जीव पर रूप परिणमन कर न बन चैतन्य विहीन । पर कर्त्त त्व सिद्ध यों होता-निराबुद्धि-भ्रम चिर कालीन । ( १०० ) जीव वस्तुतः अपनी शक्तियो का कर्ता है। घट पटादि में ज्यों न जीव का करता है कर्तत्व प्रवेश । पुद्गल कर्म द्रव्य का भी त्यों जीव नही है कर्ता लेश । तब फिर किस का कर्ता चेतन ? सुनो, योग उपयोग अभिन्न । प्रात्म शक्तियाँ है चेतन में उन हो का कर्त त्व अछिन्न । ( १०१ ) ज्ञानी कर्मो को पौद्गलिक ही जानता है । ज्ञानावरणादिक प्रसिद्ध है कर्मागम में विविध प्रकार । वे परणतियाँ पुद्गल की है, नहि चेतन वे किसी प्रकार । स्व-पर द्रव्य की स्व-पर रूप ही परणति होती है स्वाधीन । निश्चय नय के इस रहस्य का ज्ञाता ही ज्ञानी अमलीन । (99) यतः-पयोंकि । मिराबुद्धि भ्रम-बिलकुल ज्ञान का बोष। (100) अछिन्न जिसका खंग्न न किया जा सके। (101) अमलीन-स्वच्छ, निर्मल। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता कर्माधिकार ( १०२ ) अज्ञानी भी पर द्रव्य या भाव का कर्त्ता न होकर अपने विकार भावो का ही कर्ता है। संसारोजन भाव शुभाशुभ जितने करता बन सविकार । उनका वह निश्चित कर्ता है, उपादान कारण अनुसार । यतः शुभाशुभ रूप परिणमन करता जीव स्वयं स्वाधीन । उन भावों का वेदनकर्ता तद्भोक्ता भी वही मलीन । ( १०३ ) पर द्रव्य या भाव का कर्तृत्व निपिन हे जो होते हैं जिन द्रव्यों मे गुण एवं पर्याय स्वकीय । वे न अन्य मे जा सकते है और न आसकते परकीय । नहिं संक्रमण गुणों मे संभव; तब कर्मों को जो जड़ जन्यकिस प्रकार परिणमा सकेगा नियम विरुद्ध 'बंधु ! चैतन्य ? ( १०४ ) निष्कर्ष यों जब जीव कर्म मे गुण या पर्यय नहि कर्ता उत्पन्न । उन्हें न कर भी किस प्रकर वह तत्कर्ता होगा निष्पन्न ? जड़ कर्मों का कर्ता जड़ हो, चेतन का चेतन अभिराम । जड़ कर्मों का कर्ता कैसे हो सकता चेतन परिणाम ? (102) वेबन-अनुभव । तभोक्ता-उसका भोगने वाला । (103) स्वकीय-अपने। करकीय-दूसरे के। संक्रमण-बदलना, संक्रांति, बदलाव । जन्य-उत्पन्न होने वाले । (104) अभिराम-सुन्दर। ललाम-सुन्दर । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ समयसार-वभर ( १०५ ) शका समाधान जब कि जीव कर्मों का कर्ता इस प्रकार होता प्रतिषिद्ध'जीवकर्म कर्ता है' जगमें, फिर क्यों यह लोकोक्ति प्रसिद्ध ? सुनो, बंधु ! शुभ-अशुभ भाव ही करता सदा जीव विभ्रांत । जिन्हे देख जीवो में होता कर्ता का उपचार नितांत । दृष्टात सुभट समर मे रण करते है, उन्हें विलोकन कर तत्काल । लोक कहे साश्चर्य कि नप ने किया युद्ध कितना विकराल ! पुद्गलाणु त्यों कर्मरूपधर यदपि परिणमें विविध प्रकार । चेतन तन्निमित्त होता, यों तत्कर्त त्व मात्र उपचार । ( १०७ ) जीव कर्मो का कर्ता उपचार सही है। नय उपचार यही कहता है-जीव कर्म करता उत्पन्न । स्थिति बंधन का कर्ता या सुख दुख का भोक्ता वही विपन्न । कर्म ग्रहण करता, परिणमता कर्म विवश ही वह अविराम । यह सब है उपचार कथन ही, लोक जहाँ पाता विश्राम । (105) प्रतिषिद्ध-निषिद्ध, अस्वीकार जिसको 'न' कह दिया आवे। (106) तत्कतं त्व-उसका कर्त्तापन । साश्चर्यचकित होकर । (107) तन्निमित्त-उसका निमित्त कारण । विपन्न-जिस पर विपत्ति आई हो। अविराम-तुरंत,तत्काल । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता-कर्माधिकार ५४ ( १०८ ) दृष्टांत 'राजा जैसी प्रजा' विश्रुत है जगती पर लोकोक्ति, निदानप्रजा मात्र के गुण दोषों का नृप निमित्त है एक प्रधान । अतः दोष-गुण, उत्पादकता का है ज्यों नृप में व्यवहार । त्यों जीवों में जड़ कर्मो प्रति है कर्तृत्व मात्र उपचार । ( १०६ ) बध के कारण और भेद जैनागम में मिथ्यादर्शन, अविरति एवं योग कषाय । यही चार बंधन के कारण प्रतिपादन करते जिनराय । नमहोता मिथ्यात्व उदय में, हों कषायवश रागद्वेष । अविरति से इंन्द्रियासक्ति, प्रययोगों से चांचल्य विशेष । ( ११० ) बध के चार कारणो के तेरह भेद इनके भेद त्रयोदश, मिथ्या सासादन सम्यक्मिथ्यात्व । प्रविरति समदृक देशविरत वा विरत प्रमत्त इतर विख्यात । करण अपूर्व तथा अनिवृत्तिज सूक्ष्मकषाय और उपशान्त । क्षीण कषाय सयोग केबली ये हैं गुणस्थान निन्ति । (108) विद्युत-विशेषरूप में प्रसिद्ध । (110) निर्भान्त-भांति रहित, ठीक यथार्थ । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( १११ ) __निश्चय नय से जीव विकार का नही--स्वभाव का कर्ता है शुद्ध दृष्टि से गुण स्थान ये यतः नहीं है जोव स्वभाव । पुद्गल कर्मोदय से होते अतः अचेतन सकल विभाव । कर्ता भोक्ता भी कर्मों का इसी दृष्टि से नहि चैतन्य । निश्चय कर्ता निज स्वभाव का नहि विकार का-जो पर जन्य । ( ११२/१ ) उक्त कथन का समर्थन गुण स्थान संज्ञक प्रत्यय ही कर्मों के कर्ता निर्धान्त । जीव यूं न जड़कर्मों का प्रिय ! कर्ता होता सिद्ध नितान्त । यह निश्चय नय को कथनी है, जो कि एक है दृष्टि विशेष । भिन्न द्रव्य कत्तु त्व न जिसमें परिलक्षित होता निःशेष । ( ११२/२ ) पति पत्नी संयोग निमित्तज होती जो कोई संतान । किसी दृष्टि से पति की या फिर पत्नी की ली जाती मान । यो मिथ्यात्वादिक संयोगज हैं जितने परिणाम प्रशेष । होते समुत्पन्न जीवन में पुद्गल कर्म जनित निःशेष । (111) परजन्य-पूसरों से उत्पन्न होने वाला। (1121) प्रत्पय-कारण । परिलक्षित-भली भांति जाना हुआ। निःशेष-परिपूर्ण। (112/2) अशेष-सब। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता-कर्माधिकार ( ११२/३ ) देखें जब परमार्थ दृष्टि ये जीवरूप नहि दिखें नितांत । और न पुद्गल रूप बंधु ! वे शद्ध दृष्टि में रहें नितांत । किन्तु सूक्ष्म निश्चय कहता है एक बात गंभीर महान । अज्ञानोद्भव कल्पित ही है रागद्वेष परणतियाँ म्लान । ( ११२/४ ) इसका यह तात्पर्य कि जो जन मन में धारण कर एकांत इन्हें जीव के ही कहता या कहता-पुद्गल के, वह भ्रान्त । ज्यों संयोगज पुत्र में नहीं, पति पत्नी का हो एकांत । त्यों रागादिक परणतियाँ भी संयोगज ही है निन्ति । भव्य ! जीव में ज्यों है दर्शन ज्ञान रूप उपयोग अनन्य । त्यों यदि जीवमयी ही होवें क्रोध मान रागादि अनन्य । तब फिर जीव और पुद्गल में हुई एकता ही सम्पन्न । यों अजीव एवं सजीव में अनन्यत्व होगा निष्यन्न । (11213) अज्ञानोभव-अशाम से उत्पन्न होने वाले। (11214) संयोगज-संयोग से उत्पन्न । (113) अनन्य-अभिन्न, तादात्म्य संबंध वाला। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( १३६/१ ) पुद्गल कर्मरूप धारण कर बँध रहता है चेतन संग । जिसके उदय-योग में चेतन लगे बदलने अपना रंग । प्रश्रद्धान अज्ञान, असंयमरूप विविधकर नव परिणाम । कर्ता बन रहता, तन्मय हो अभिनय कर वह पाठों याम । ( १३६/२ ) बध कब होता और कब नही ? । सुख दुख-कर्मफलास्वादन कर उदयकाल में जब अविराम - जीव विकारी बन रहताहै, रागद्वेषमय कर परिणामतब बंधता है। किन्तु मानले यदि सुखदुख वह एक समानतदा साम्य भावों से संवर-होगा-प्रास्त्रव का अवसान । ( १३६/३ ) द्रव्य कर्म के उदय मात्र से होता नहीं जीवको बंध । उपसर्गों में भी समभावी बन रहता निश्चित निर्बध । राग-द्वेष पर विजय प्राप्तकर बन समाधि में लीन पुमान् । कर्म शक्तियाँ इक क्षण में ही-क्षीण बना, पाता निर्वाण । (136/1) आठोयाम-आठ पहर-चौबीस घंटे निरंतर। (136/3) पुमान्–महापुरुष । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता-काधिकार ( १३६/४ ) विधि के उदय जन्य सुख दुःख में यदि रति परति क्रिया अनिवार्यमान चलें बो बुद्धि पुरस्पर तप ध्यानादि न हों सत्कार्य । यतः निरंतर ही रहता है जीवों में कर्मोदय वाम । प्रतः बंध अनिवार्य सिद्ध हो, मुक्ति प्रसंभव हो निष्काम । ( १३७ ) पुद्गल कर्म संग जीवों के होते रागादिक परिणाम । यथा रक्त होकर परिणमती सुधा-हरिद्रा मिल अविराम । यों माने तो जीव कर्मद्वय हों रागादि भाव सम्पन्न । तब पुद्गल को भी चेतन वत् बंध भाव होगा निष्पन्न । ( १३८ ) आत्मा के रागादिभाव पुद्गल कर्मों से भिन्न है दृष्ट विरुद्ध मान्यता है यह, यतःराग-चेतन परिणामपुद्गल कर्म परिणमन से है भिन्न भाव सर्वथा सकाम । कर्मोदय केवल निमित्त है, जो कि जीव से रहता भिन्न । कामी जन परनारि निरख ज्यों होता स्वयं विकारापन्न । (136/4) पुरस्सर-पूर्वक, सहित । वाम-विकार रूप। (137) सुधा-चूना, कलई। हरिता-हल्दी । मिल-मिलकर । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव पुद्गल के परिणाम जीव से भिन्न है ऐसे ही पुद्गल में होते कर्म रूप जो विविध विकार । वे पुद्गल मय ही होते है, ज्ञानावरणादिक साकार । तन्निमित्त यद्यपि रागादिक चिद्विकार होते तत्काल । फिर भी पुद्गल-पुद्गल एवं जीव-जीव रहता त्रयकाल । ( १४० ) निष्कर्ष है सारांश यही कि पौद्गलिक परणतियाँ वसुकर्म स्वरूपजीवों या उनके भावों से है स्वतंत्र निश्चित जड़ रूप । त्यों ही जीव भाव रागादिक है, स्वतंत्र कर्मो से भिन्न । यों जड़-चेतन को परणतियाँ भिन्न भिन्न ही है, न अभिन्न । ( १४१ ) शंका समाधान जीव कर्म बद्ध है या अबद्ध? । कर्मजीव में बद्ध और संस्पर्शित है या नहि भगवन् ? क्या यथार्थ इसमें रहस्य है, सरल करें-यह प्रश्न गहन । बंधु ! सुनो, है जीव कर्म से बद्ध और संस्पर्शित म्लान । यह व्यवहार कथन सम्यक् है, निश्चय बद्ध नहीं, अम्लान । (141) संस्पशित-पके हुए । म्लान-मलीन । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फर्ता-कर्माधिकार (१४२/१ ) कर्म बद्धता और अबद्धता-दो नयों की दो दृष्टियों है कर्मजीव से बद्ध हुए हैं, नहीं बंधे है, यों दो पक्षदिखते है व्यवहार और निश्चय से यद्यपि पक्ष विपक्ष; किन्तु उभय नय पक्ष मानसिक है विकल्प ही एक प्रकार । समयसार विज्ञान धनमयो निर्विकल्प ही है अविकार । ( १४२/२ ) सर्वनयों का पक्षपात तज साम्यभाव द्वारा चिद्रूप । निर्विकल्प बन सत्समाधि में तन्मय हो शुद्धात्म स्वरूप । राग द्वेष मय तज समस्त ही वैभाविक परणतियाँ म्लान । निविकार शुद्धोपयोग में करता चिदानंद रसपान । ( १४३/१ ) पक्षातिकात बन आत्म स्वरूप मे रमना ही समयसार है उभयनयों द्वारा प्रतिपादित वस्तु स्वरूप समझ अम्लान । कभी किसी नय का नहि करता जब किंचित् भी पक्ष, निदान । तब समस्तनय पक्ष परिग्रह से विहीन बन साध प्रवीण । समयसार सर्वस्व प्राप्त कर निष्कलंक बनता स्वाधीन । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ समयसार-बंभव ( १४३/२) समयसार पक्षातिकात है विश्व चराचर प्रकट जानते यद्यपि श्री अरिहंत समस्त । मतिश्रुतादि ज्ञानों के भी त्यों ज्ञाता दृष्टा मात्र प्रशस्त । कभी किसी भी नय का करते पक्षपात नहिं किन्तु नितान्त । समयसार ज्ञाता भी त्यों ही होता नय पक्षातिक्रांत । ( १४३/३ ) यतः एकनय पक्ष स्वयं ही मिथ्यादर्शन है-एकांत । एक नयाश्रित मुख्य कथन में चरित मोह रहता सम्भांत । यतः राग का समावेश है इकनय मुख्य कथन में मित्र ! अतः पक्ष बिन श्रुतज्ञानी भी वीतराग सम महापवित्र । ( १४४ ) यों सम्पूर्णनयों के पक्षों और विपक्षों से प्रतिक्रांत । ज्ञाता 'समयसार' कहलाता निर्विकल्प निस्पृह निर्भान्त । सम्यक्दर्शन ज्ञान उसी के व्यवहाराश्रित हैं व्यपदेश । कर्ता-कर्म, गुण-गुणी ज्ञाता, प्रादि भेद निश्चय नहि लेश । इति कर्ताकर्माधिकारः (143/2) प्रशस्त-उत्तम । पक्षातिकांत-पक्ष से रहित । (143/3) विताम-चंदोबा, घेरा। (144) निष्पह-बिना किसी वासना वाला, मिरेन्छ । व्यपदेश-नाम भेव । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ . पुण्य-पापाधिकार ( १४५ ) कर्म परिचय कर्म वही जो लिपट रहे है पुद्गलाणु चेतन संग म्लान । कर्म मात्र बंधन का कारण, बंध दृष्टि सब कर्म समान । अशुभ-कुशील, सुशील-कर्म शुझ, द्विविध कर्मगत है व्यवहार । निश्चय से कैसा सुशील वह जिसने भरमाया संसार ? ( १४६ ) बधक दृष्टि से कर्मो मे समानता पग में पड़े स्वर्ण की बेड़ी या फिर पड़े लोह को म्लानलोह स्वर्ण का भेद भले है, बंध दृष्टि द्वय एक समान । त्यों शुभ हो या अशुभ , कर्म-प्राखिर बंधन ही है मतिमान ! भव संतति में यनिमित्त यह पीड़ित है चैतन्य महान । ( १४७ ) संबोधन प्रतः संत ! इन बंधन शीलों से न कभी तुम करना राग । दूर रहो संसर्ग मात्र से मोहजन्य ममता परित्याग । तव अनादि से जिनके कारण हुवा प्रात्म स्वातन्त्र्य विनाश । इन बंधन शोलों से फिर क्यों सुख पाने की रखता प्राश । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसारमा ( १४८ ) दृष्टांत द्वारा पुण्य पाप कर्मों का निषेध बुद्धिमान जब अनुभव करता-अपना सहयोगी मक्कारया चरित्र से हीन व्यक्ति है, उसे छोड़ते लगे न वार । वह ठुकरा कर उसे न करता फिर उससे संसर्ग नवीन । भाषण भी करना न चाहता, उदासीन बन रहे प्रवीण । ( १४६ ) कर्म प्रकृति टगिनी अनुभव कर त्यों ही ज्ञानी साधु महान । प्रकृति मात्र को हेय जान कर करता है परित्याग समान । यथा चतुर वनहस्ति हस्तिनी को लख कामातुर भरपूर । निज बंधन का हेतु समझकर उससे रहता दूर हि दूर । ( १५० ) बध-मुक्ति कब और किस प्रकार ? जीव कर्म बंधन से बंधता बन रागादि विकाराक्रांत । वर विराग वंभव प्रसाद पा-पाता मुक्ति वही निर्धान्त । सार भूत भगवज्जिनेन्द्र का यही दिव्य संदेश महान । प्रतः न किंचित् कर्मजाल में कभी उलझना ए मतिमान ! Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य पापाधिकार ७२ ( १५१ ) वीतराग शुद्धात्मतत्व ही समयसार है ब्रह्म स्वरूप । मुनि, ज्ञानी, केवलि कहलाता वही शुद्ध चैतन्य अनूप । चित्स्वभाव संस्थित योगी जन स्वानुभूति का कर रसपान । नित्य निरंजन निर्विकार बन पाते पद निर्वाण महान । ( १५२ ) मुक्ति के लिये स्वानुभूति का कितना महत्व है ? दृढ़ प्रतिज्ञ बन, व्रत धारण कर पालन करता शील निदान । दुर्धर तप करता अरण्य में, सहे परीषह अतुल महान ! किंतु नहीं दुर्भाग्य वश हुवा जिन्हें प्राप्त परमार्थ प्रवीण । उन्हें कहाँ से मुक्ति मिलेगी, जो है स्वानुभूतिरसहीन ? है परमार्थ ज्ञान से जिनको शून्य, दृष्टियां राग मलीन । वे व्रत नियमशील पालन या तप धारण कर भी है दीन । उन्हें मुक्ति संप्राप्त न होती बाह्यवृत्ति में रहकर लीन । परमसमाधि-लीन मुनि पाते-त्वरित मुक्ति-सुस्थिर स्वाधीन । (१५१) संस्थित-स्थिर स्वानु ति-प्रात्मानुभव । (१५२) अरण्य-वन । (१५३) त्वरित-शीघ्र। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ समयसार-वैभव ( १५४ ) स्वानुभूति शून्य पुण्य मुक्ति में सहायक नही जिसकी अंतरात्मा रहती परम-अर्थ से शून्य नितान्त । वह अज्ञानी मोहभाव कर केवल पुण्य चाहता झांत । जो संसार परिभ्रमण एवं बंध हेतु है सिद्ध, प्रवीण ! उससे मुक्ति कहाँ से होगी, बिन समाधि में हुए विलीन । ( १५५ ) वास्तविक मक्ति मार्ग क्या? जीवाजीवादिक तत्वों की श्रद्धा है सम्यक्त्व महान । तत्पूर्वक तत्त्वों का अवगम कहलाता है सम्यक्ज्ञान । रागद्वेष मय वृत्तिहीन वर वीतरागता है चारित्र । इनकी एक रूपता सम्यक् मुक्ति मार्ग है परम पवित्र । ( १५६ ) ___ बाह्य वृत्तियो मे उलझने से मुक्ति नहीं निश्चयार्थ साधक समाधि है, उसे त्याग कर जो विद्वान् । केवल बाह्य वृत्तिरत रहकर उससे चाहे मुक्ति महान । उसे कहां से मुक्ति मिलेगी, रहकर सत्समाधि से दूर । पथ परमार्थ ग्रहण कर ऋषिगण कर्मकुलाचल करते चूर । (१५४) परमअर्थ-शुख प्रात्म स्वरूप । (१५५) अवगम-जान-जानपना । (१५६) कुलाचल-पहार पर्वत । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष वायाधिकार toY ( १५७ ) सम्यक्दर्शनादि गुणो मे विकार का कारण सत्ता में प्रात्मस्थ दुष्ट मोहादिकर्मपरिप्रष्ट अशेष । यही आत्म बंधन कारण बन संतापित करते निःशेष । यथा वस्त्र की उज्ज्वलता को मल करता है बंधु ! मलीन । सम्यकदर्शन की प्राभा त्यों । करता है मिथ्यात्व मलीन । ( १५८-१५६ ) उज्ज्वल प्राभा यथा वस्त्र की मल करता है मलिन प्रवीण ! त्यों अज्ञान भाव से होता जीव ज्ञान गुण विकृत मलीन । यथा वस्त्र की उज्ज्वल परणति मल से होती मलिन कुरूप । त्यों कषाय-रंग बनें कषायी रागी द्वेषी जीव विरूप । ( १५६/२ ) कर्मोदय से आत्मगुणों मे विकार होता है-विनाश नहीं दर्शन ज्ञान चरित्र प्रादि गुण नहि समूल हों कभी विनष्ट । बद्ध कर्ममल द्वारा केवल शुद्ध परिणमन होता नष्ट । समकित बन मिथ्यात्व परिणमें, ज्ञान बनें अज्ञान, निदान । वर चरित्र गुण परिणत होता पाप कषाय रूप बन म्लान । (१५७) भात्मस्थ-आत्मा में स्थित-बंधे हुए। (१५८) सरवरित-श्रेष्ठ चरिता Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ समयसारस्वैनब ( १६० ) किमाश्चर्यमत परम् सर्वज्ञान दर्शन स्वभाव से होकर भी सम्पन्न, प्रवीण । स्वापराध वश जीव कर्मरज-पाच्छादित हो बना मलीन । चिर प्रज्ञान भाव से पीड़ित भ्रमित हुप्रा सारा संसार । होकर भी विज्ञान धनमयी स्वात्म तत्व जाने नहि-सार । ( १६१/१ ) वास्तव में आत्मविकार होना ही गणो का धात है कारण है सम्यक्त्व मुक्ति का प्रतिपादित जिनवचनप्रमाण । प्रति पक्षी मिथ्यात्व उसी का बंधा हुवा दुष्कर्म महान । उस मिथ्यात्व कर्म का होता जब जब उदय तीव्र या मन्द । जीव स्वरूप भलकर तब ही मिथ्यादृष्टि बनै मतिमंद । ( १६०२ ) मिथ्यात्व द्वारा सम्यक्त्व की हानि मद्य पान कर यथा शराबी होकर मत बने उन्मत्त । हा हा हू हू ही ही करता-फिरता बना विकारासक्त । त्यों मिथ्यात्व कर्मवश चेतन भूल रहा शुद्धात्म स्वरूप । अहंकार ममकार मगन हविषयातुर बन रहा विरूप । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य पापाधिकार ७६ ( १६२ ) अज्ञान से ज्ञान भाव का पराभव श्री जिनेन्द्र ने आत्म ज्ञान को आच्छादित करने वालाकहा कर्म अज्ञान अपरिमित अंधकार वत् ही काला । यथा सूर्य किरणों को रजकण ढक लेते है, या घनश्याम । प्रज्ञानाच्छादित रह त्यों ही चेतन अज्ञ बना अविराम । ( १६३.१ ) कषाय से वीतरागता की हानि । वीतरागता सुखद प्रात्म का सम्यक चरित धर्म अभिराम । उसे नष्ट कर दुष्ट कषायें जनती सतत मलिन परिणाम । मलिन भाव रत बन कषाय से चेतन बने चरित्र विहीन । हो कुकर्म रत नित कर्मों का प्रास्रव बंधन करता दीन । ( १६३/२ ) बंधन मुक्ति का उपाय पुण्य पाप वैविध्य कर्म में प्रतिपादित जिन वचन प्रमाण । वह व्यवहार दृष्टि से सम्यक, निश्चय से सब कर्म समान। उभय कर्म से विरत-स्वानुभव रत रह करता समरस पान । वही कर्म बंधन विमुक्त हो पाता पद निर्वाण महान । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ समयसार-वैभव ( १६३/३ ) विषम कषायी जीव मुक्त नही हो सकता जिसके मन वच काय कषायों या विषयों में रहें निमग्न । वह संसारासक्त मुक्त नहि हो सकता होकर भी नग्न । साधुजनों की सतत साधना रहती प्रात्म सिद्धि के अर्थ । स्वानुभूति रत बन जाने पर पुण्य पाप की चर्चा व्यर्थ । स्वानुभूति रत रह न सके तो उसका रखकर लक्ष्य महानव्रत तप संयम शील साधना-लीन रहे जिन वचन प्रमाण । यह व्यवहार मुक्ति-पथ-साधन प्रथम भूमिका में अभिरामइसे त्याग स्वच्छंद बना तो कहाँ मिलेगा फिर विश्राम ? इति पुण्यपापाधिकारः Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्रवाधिकार ( १६४ ) आस्रव का स्वरूप प्रास्त्रव है मिथ्यात्व, अविरमण योग, कषाय अनेक प्रकार। जीव और पुद्गल दोनों का भिन्न भिन्न परिणाम विकार। इनमें जो जीवाश्रित होते मिथ्यात्वादि मलिन परिणाम । वे अनन्य ही है जीवों के सापराध उपयोग सकाम। ( १६५ ) पुद्गल भी ज्ञानावरणादिक कर्म प्रकृति बन विविध प्रकार । होता स्वयं परिणमित चेतन के शुभ अशुभ भाव अनुसार। प्रास्त्रव है यों परस्पराश्रित-कर्मोदय निमित्त पा जीवराग द्वेष करता, इससे फिर कर्म रूप परिणमे अजीव । ( १६६ ) वीतराग सम्यक्दृष्टि के बध का अभाव वीतराग समदृष्टि न करता पाखव एवं बंध नवीन । बद्ध कर्म ज्ञाता ही रह वह उदासीन बन रहे प्रवीण। बंध मूल मिथ्यात्व भाव है सर्व प्रमुख चैतन्य विकार। जिससे जीव मोह में फंस कर मत हो रहा विविध प्रकार। (१६४) अविस्मण-प्रविरति-पर वस्तु में प्रासक्ति । सकाम-विषयों की कामना सहित । (१६५) परिणमित-परिवर्तित । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ समयसार-वैनन ( १६७ ) आस्रव का उदाहरण चुम्बक सँग स्वयमेव सुई में चञ्चलता होती उत्पन्न । त्यों रागादिविभाव परिणमन से द्रमास्त्रब हो निष्पन्न । ज्यों संतप्त लोह जल में पड़ उसे खींचता अपनी प्रोर । त्यों कषाय संतप्त चेतना कर्मास्त्रब करती है घोर । ( १६८ ) उदय में आ चुकने पर कर्म की दशा फल पकने पर यथा वृक्ष से भू पर आ पड़ता तत्काल । पुनः वृन्त में नहि जुड़ता वह लाख यत्न भी किये विशाल । त्यों हो बद्ध कर्म उदयालि में प्रा फल देता है इक बार। कर्म भाव च्युत हो रहता, फिर उस से जीव न हो सविकार। ( १६६ ) कर्म की सत्ता मात्र आस्रव का कारण नही पूर्व बद्ध जो कर्म बच रहे सत्ता में ज्ञानी के शेषपृथ्वी पिंड समान न उसमें द्रव्यास्रव कर सकें प्रशेष । मुष्टि बद्ध विषवत् रहते वे, अतः न करते रंच विकार । कार्माण देहोपबद्ध रह ज्ञानी पर कर सकें न वार। (167) संतप्त-अत्यंत उष्ण, गर्म । वृन्त-गल्छा । कर्मभावच्युत-कर्मदशा रहित । (169) मुष्टिबढ-मुठ्ठी में बंधा हुमा । बेहोपबद्ध-वारीर से बा हुआ। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसवाधिकार o ( १७० ) ज्ञानी निरास्रव क्यों है ? ज्ञानी जीव निरास्त्रव रहता, यतः बंधके कारण चारमिथ्यादर्शन अविरत्यादिक, पूर्व किया इनका निर्धार । अज्ञानी इनमें रत होकर बंध किया करता बन म्लान । नहि बंधन की कारण होती ज्ञानी की परणति अम्लान । ( १७१ ) ज्ञानी को आस्रव कब और क्यों होता है । ज्ञानी को जो किचित् प्रास्रव-बंध कहा, उसका यह अर्थजब तक सूक्ष्म कषायें रहतीं तत्कृत कर्म बंध भी सार्थ । जब जघन्य ज्ञानादि गुणों कर परिणत होता जीव, प्रवीण ! तब कषाय कर बंध रहता; यूं-निःकषाय ही बंधनहीन । ( १७२/१ ) शका-समाधान जब कषाय नहि नष्ट हुई तब कैसे ज्ञानी है निर्बन्ध ? भव्य ! न सद् दृग ज्ञान चरण से कभी जीव को होता बंध । किन्तु जघन्य भाव परिणत हो जब रत्न त्रय कर्माधीन-- तब होती कर्मास्त्रव एवं बंधमयी परिणति भी हीन । (१७०) अम्लान-शुद्ध। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ समयसार-वैभव ( १७२२ ) एक ज्ञातव्य रहस्य एक रहस्य यहाँ जो ज्ञानी करता है रागादि विभाव-- वे अबुद्धिपूर्वक होते है, अतः बंध का कहा प्रभाव । छमस्थों को हीन दशा में कर्मोदय निमित्त से राग-- होता, अतः उन्हें मिलता ही रहता सदा बंध में भाग ! ( १७२/३ ) और सुनो, ज्ञानी जन रुचि से करता नहि रागादि प्रशेष । अतः न संसृति का कारण है तज्जन्यास्रव बंध विशेष । इसी दृष्टि से कहा निरानव, किन्तु अबुद्धिजन्य अनुरागरहने से बंधन भी होता, बंध हीन है भाव-विराग । ( १७३ ) वास्तब मे रागद्वेष मयी परिणाम ही बध का कारण है सत्ता में रहता ज्ञानी के पूर्व बद्ध प्रत्यय का योग। तदपि नहीं बंधन का कारण-माना वह प्रत्यय संयोग । कर्मोदय में जबकि ज्ञान का राग द्वेष मय हो परिणामपुद्गलाणु तब कर्म बन बंधैं जीव संग परिणत हो वाम । (१७२/२) छमस्मों-अल्पज्ञानियों। (१७२/३) संसृत्ति-संसार परिप्रमण । (१७३) सज्जन्याखव-उससे होने वाला आत्रव। प्रत्यय-कारण । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवाधिकार ८२ ( १७४ ) बद्ध कर्म उदय मे कब आते है ? एक पुरुष ने बाला कन्या से विवाह कर लिया अकाल-- किन्तु नहीं उपभोग योग्य वह हो जाती बाला तत्काल । यथा समय तरुणी बन बाला होती जब रति करने योग्य-- तब आकर्षण का बनती है केन्द्र वही एवं उपभोग्य । ( १७५ ) त्यों नवीन कर्मों का होते ही संयोग न वे तत्कालफल देने के योग्य कहे है, सत्ता में ही रहें अकाल । जब वे यथा समय अवसर पा उदय भाव को हों संप्राप्त । तब चेतन सुख दुख का अनुभव कर होता बंधन को प्राप्त । ( १७६ ) ज्ञानी के निरास्रव रहने का कारण किंतु सुदृष्टि प्राप्त संज्ञानी-जीव हिताहित अपना जान-- सुख दुख में सम भाव प्राप्त कर रागी द्वेषी बनें न म्लान । इस कारण वह रहे प्रबंधक पालव भाव-रहित अम्लान । रागादिक के असद्भाव में सत्व उदय नहि बंधक जान । (१७६) सत्व-पत्ता। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार- समय ( १७७ ) सम्यक्दृष्टिजीव के होते राग द्वेष मोहादि न म्लान । मलिन भाव बिन केवल प्रत्यय प्रास्रव हेतु न हों, मतिमान ! जब तक अपने भाव विकारी करे न चेतन, तावत् लेश-- कर्म वर्गणाओं से किचित् बँधते नहि सर्वात्म प्रदेश । ( १७८ ) आस्रव और बध के कारण ज्ञानावरणादिक वसु कर्मों के बंधन में कारण चार--- मिथ्या दृक् , कषाय, अविरति सह योग प्रात्म के प्रमुख विकार। इनका कारण पूर्वबद्ध कर्मों का उदय कहा भगवान् । इनकी अनुपस्थिति में होते कभी न प्रास्त्रव-बंधन म्लान । ( १७६ ) यथा मनुज के उदर मध्य जो जाता अन्न-पान-माहारजठर अग्नि के माध्यम से वह परिणमता है विविध प्रकार। रस से रुधिर मांस मज्जा वा वसा अस्थि वीर्यादिक रूप। विविध भांति स्वयमेव परिणमित सप्त धातु मय हों तद्रूप। (१७७) सर्वात्मप्रदेश-मात्मा के सम्पूर्ण प्रदेश । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ areerfuerr ( १८० / १ ) त्यों चेतन जब निजस्वरूप से विचलित होकर कर्माधीनपूर्व बद्ध कर्मोदय कारण राग द्वेष कर बनें मलीन । ज्ञानी श्रात्रव बंध न करता, श्रज्ञानी रागादि विकारकर ज्ञानावरणादिक कर्मों से बँधता है विविध प्रकार | ( १८०/२ ) ज्ञानी का यह अर्थ कि जो है रागद्वेष मोहादि विहीन । वीतरागता बिना न होती कभी शुद्ध परणति स्वाधीन । शास्त्र ज्ञान से ग्रात्म तत्व को समझ, न कर मिथ्या श्रद्धान । पाप कषाय प्रवृत्ति विरत हो, सम्यक्ज्ञानी वही महान । ८४ इति आवाधिकारः Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 समयसार-बैमा संवराधिकार ( १८१ ) सवर का लक्षण, कारण एवं भेद विज्ञान निदर्शन प्रास्त्रव का रुकना संवर है, उसका हेतु भेद विज्ञान । प्रात्म तत्व उपयोगमयी है, क्रोधादिक से भिन्न महान । दर्शन ज्ञानमयी होता है चेतन का उपयोग, प्रवीण ! उससे भिन्न क्रोध मानादिक है कषाय की वृत्ति मलीन । ( १८२ ) जीब का उपयोग कर्म नोकर्म से भी भिन्न है न हि ज्ञानावरणादि कर्ममय परिणमता उपयोग, निदान । शरीरादि नोकर्मों से भी उसकी सत्ता भिन्न महान । नहि उपयोग मध्य करते है कर्म और नोकर्म प्रवेश। दोनों ही जड़रूप, कभी चैतन्यमयी परिणमें न लेश । उल्लिखित भेद विज्ञान से संवर का लाभ एवं भेवज्ञान से हो जब जीव स्वस्थ, मिथ्यात्व विहीन । उसी समय शद्धात्म तत्व का दर्शन होता उसे नवीन । शुद्ध भावरत बन करता नहि फिर किंचित् रागादि मलीन । जीवन में कर्मालव इससे हो जाता है स्वयं विलीन । (१८३) विलीन-गायब । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्राधिकार (१४) उदाहरण पावक का संयोग स्वर्ण पा होकर भी संतप्त निदान--- स्वर्ण पना नहि तजे तनिक भी; किन्तु निखर बनता अम्लान । त्यों ज्ञानी भी घोर असाता-उदय जन्य सह तीव्र प्रहार-- नहि स्वभाव से विचलित होता रंचमात्र भी किसी प्रकार। ( १८५ ) जीव की प्रति बुद्ध-अप्रतिबुद्ध दशा इस प्रकार नानी सुदृष्टि से प्रात्म तत्व अनुभव कर शुद्ध, पर को अपना मान, न रत हो, वही वस्तुतः है प्रतिबुद्ध । अज्ञानी प्रज्ञान तमावृत रह कर बनें विकाराक्रांत । नित पर द्रव्य भाव अपनाकर अप्रतिबद्ध रहता दिग्भांत । ( १८६ ) परमात्मा कौन बनता है ? अनुभव कर शुद्धात्म तत्व का जो बन रहता है तल्लीन । वह शुद्धात्म ध्यान से करता शुद्ध प्रात्म ही प्राप्त प्रवीण । किन्तु अशुद्ध अनुभवन करने वाला रागी जीव मलीन-- अपने को अशुद्ध ही पाता अप्रतिबुद्ध संज्ञान-विहीन । (१८५) प्रतिबुद्ध-जिसमें ज्ञान जाग्रत हुमा है, शानी। तमावृत्त-अंधकार से ढका हुमा । (१८६) संज्ञान-सम्यक्तान । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( १८७ ) सवर कब और किस प्रकार होता है ? शुभ या अशुभ वचन मन तन को वश प्रवृत्तियाँ कर निःशेष निजस्वरूप में निज के द्वारा शांत भाव से करें प्रवेश । सम्यक् दर्शन ज्ञान चरणयुत् सतत स्वानुभवलीन प्रवीणअन्य वस्तु को बांछात्रों से रहकर विरत स्वस्थ स्वाधीन । ( १८८ ) बाह्याभ्यंतर सर्व संग से होकर पूर्ण मुक्त, निष्काम । अात्म द्वार पाकर निजात्म को उसमें ही करता विश्राम । कर्म और नो कर्म द्रव्य पर नहिं किंचित् भी देकर ध्यान । अनुपम प्रात्मध्यान रत होकर करता चिदानन्द रसपान । ( १८६) वह शुद्धात्मतत्त्व का ज्ञाता दृष्टा स्वानुभूति संलीन । प्रात्माश्रय ले बन जाता है-पावन कर्म कलंक विहीन । संवर की बस यही रीति है-ज्ञाता दृष्टा रह अम्लान । रागद्वेष मय सर्व विकृति तज करना चिदानंद रस पान । (१८७) नि:शेष समस्त । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवराधिकार (१६० ) संवर का क्रम राग द्वेष का मूल जिन कथित कर्मशक्तियाँ ही है म्लान । जो मिथ्यात्व कषायादिक जड़रूप, कथित है अध्यवसान । इनके उदय काल रागादिक भाव जीव कर विविध प्रकार । कर्म बन्ध करता, कर्मों से , देह, देह-प्रतिफल संसार । (१६१) रागद्वेष मोहादि विकारी भाव सतत प्रास्रव के द्वार । ज्ञानी बने निरास्त्रव, इनका कर प्रभाव, निज रूप संभार । यतः विना कारण न कार्य हो यही प्राकृतिक वस्त-विधान । प्रास्त्रव भाव विकार न हों तो, प्रास्त्रव का भी हो अवसान । ( १९२) सवर से लाभ कर्मों का पालव रुकने से, नो कर्मों का भी अविरामहोता सहज विराम नियम से, प्रात्म तभी पाता विश्राम । कर्म तथा नो कर्मो का जब संवर हो परिपूर्ण पवित्र । तब संसार संसरण का भी अंत स्वयं हो जाता, मित्र ! इति संवराधिकार (१९०) मध्यवसान-बिकारी भाव । इसके यो मद हैं १ जीव गत २ पुद्गलगत । जोवगत मध्यवसान-मिथ्यात्व रागढवादि भाय। पुदगल-मध्यवसान-मिथ्यात्व कषायादि शक्ति परिणत कर्म प्रकृतियां। प्रतिफल-जो बदले में प्राप्त हो। (१६१) पत:-क्योंकि। (१९२) विराम-कावट । विश्राम-शांति । संसरण-परिभ्रमण । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमयसार-बमव निर्जराधिकार ( १९३) सम्यक्दृष्टि के भोग भी निर्जराके निमित्त है जड़-चेतन द्रव्यों का करता जो सुदृष्टि ऐंद्रिय उपभोग । कर्म निर्जरा का निमित्त वह बन रहता है सहज नियोग । यतः भोग में तन्मय हो नहि रस लेता वह रंच प्रवीण । यों नब कर्म नहीं बंधते है, उदयागत हो जायें क्षीण । ( १९४) द्रव्य निर्जरा में भाव निर्जग कारण है पर द्रव्यों के भोग समय जो सुख दुख होते है उत्पन्न । उन्हें जानता, किन्तु न होता तन्मय स्वयं विकारापन्न । यतः कर्मफल में सुदृष्टि को विद्यमान रहता समभाव, अतः न नव कर्मों से बंध कर, बद्ध कर्म करता वह छार । (१९३) ऐन्द्रिय-इन्द्रियों संबंधी। नियोग-सगम । उदयागत-उदय में आये हुए । (१९४) बसकर्म-पंधे हुए कर्म । छार-पष्ट । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नर्जराधिकार ( १९५) दृष्टांत द्वारा ज्ञान सामर्थ्य प्रदर्शन विष भक्षण कर भी कुमृत्यु से ज्यों बच जाए वैद्य प्रवीण । त्यों उदयागत कर्म फलों में ज्ञानी रहता बंध विहीन । भक्षण पूर्व नष्ट कर देता वैद्य मंत्र से ज्यों विष शक्ति । त्यों ज्ञानी नव बंध न करता सुख दुख भोग बिना प्रासक्ति । दृष्टांत द्वारा वैराग्य मामर्थ्य प्रदर्शन । यथा व्याधि के प्रतीकार हित करके भी जन मदिरा पानमत्त न होता, यतः पान से पूर्व मिलाता औषधिजान । त्यों यदि अरतिभाव रत रह कर करना पड़ जाए उपभोग । नूतन कर्म न बाँध, पुरातन का करता वह सहज बियोग । ( १९७/१ ) वैराग्य द्वारा निर्जरा का समर्थन उदासीन रह सेवन कर भी सेवक नहि बनता समदृष्टि । नहि सेवन कर भी रागोजन करता सतत बंध की सृष्टि । यथा सेवकों द्वारा स्वामी हित हो जो आदान प्रदान । स्वामी ही तल्लाभ हानिमय प्रतिफल पाता नियम प्रमाण । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-मन ( १९७२ ) है सुदृष्टि में निहित शक्तियाँ ज्ञान और वैराग्य महान । प्रौदामीन्य भावरत रह वह विषय विरत रहता अम्लान । वीतरागता से परि लावित अन्तदृष्टि स्वस्थ स्वाधीन । रहता बंध विहीन, किंतु नित रागी करता बंध नवीन । ( १६८ ) माम्यक्दृष्टि का म्व-पर में सामान्य प्रतिभास श्री जिन कथित विविध कर्मों के है विपाक मय जो परिणाम, मम स्वभाव नहि वे समग्रतः मैं इकज्ञायक भाव ललाम । यों संदृष्टि सतत रहता है प्रात्मसाधना में तल्लीन । वीतराग दर्शन प्रसाद से उसके होते बंधन क्षीण । ( १९६ ) सम्यक्दृष्टि का म्व-पर मे विशेष प्रतिभास पुद्गल कर्म विपाक जनित जो होते है रागादि विभाव । नहि कदापि ये ममस्वभाव है, मम स्वभाव चिर ज्ञायकभाव । रागद्वेष मोहादिक जितने भी संभव है आत्मविकार । व सब ममस्वरूप नहि, मै हूं ज्ञानानंदमयी अविकार । ( १९७/२) परि सावित-इमा हुना। (१९८) समग्रत. पूर्ण रीति से । मम-मेरे । (१६६) प्रतिमास-मान। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार ( २००१ ) भेद विज्ञान का माहात्म्य एवं सम्यक् दृष्टि स्वात्म को ज्ञायक भाव स्वभावोजान । सर्व कर्म एवं तत्फल में नहि करता रागादिक म्लान । उसमे विद्यमान रहता है ज्ञान विराग-भाव अमलीन । जिससे निश्चय मुक्ति पथिक बन सतत कर्म मल करता क्षीण । ( २००२ ) राग द्वेष में सना हुआ है अंतरंग जिसका विभांत । फिर भी घोषित करता वंचक- मै हूं सम्यक्दृष्टि, नितांत । मुझे तनिक नहि कर्म बंध-यों मान गर्व से बना स्वछंद । वह पापी सम्यक्त्व शून्य जन काटेगा कैसे भवफंद ? (२०१) अणुमात्र भी राग करनेवाला सम्यक्दृष्टि नही है अणु जितना भी विद्यमान है यदि घट में रागादि विभाव । प्रात्म ज्ञान परिशून्य व्यक्ति वह सिद्ध इसी से स्वतःस्वभाव । उसने नहीं प्रात्म पहिचाना पर में कर सुख भ्रांति नितांत । होकर भी सिद्धांत-सिंधु का पारग-रहा भ्रांत का भ्रांत । (२००२) विभ्रांत-विशेष मोही (२.१) सिद्धांत सिंधु पारग-सम्पूर्ण शास्त्रो का Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( २०२/१ ) उक्त कथन का समर्थन जिसने नहीं प्रात्म को जाना वह अनात्म क्या समझे दीन ? स्व-पर भेद विज्ञान बिना वह कैसा सम्यग्दृष्टि प्रवीण ? जीवाजीव तत्व बिन समझे रागादिक नहि होते शांत । राग भाव बिन छुटे व्यक्ति भी सम्यक्दृष्टि नहीं निर्घात । ( २०२।२ ) शका-समाधान रागी सम्यक्दृष्टि न होता भगवन् ! यह दूषित सिद्धांत । प्रागम में सर्वत्र कहा है, जब सराग सम्यक्त्व नितान्त । सुनो, भव्य ! है कथन यहां पर वीतराग सम्यक्त्व प्रधान । वीतरागता प्राप्ति लक्ष्य है, इतर पक्ष सब गौण, निदान । ( २०२/३ ) सबोधन यह प्राणी संसार दशा में राग द्वेष रत हुवा प्रमत्त । पर पव-निजपद मान बन रहा सतत अपद में ही संतप्त । भव्यबंध ! अब तो सचेत हो, अपना पावन पद पहिचान । तू निश्चित चैतन्य धातु है, राग द्वेष है मैल समान । (२०२/१) निर्धान्त-प्रम रहित । (२०२/२) पद-स्थान, स्वल्प। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिर्जराधिकार ( २०३ ) अन्य द्रव्य भावाश्रित होते निज मे जो चैतन्य विकारबे सब नहि तव पद हो सकते, तू शुद्धात्म तत्व अविकार । तज सब पर पद, स्वपद ग्रहण कर ज्ञानविराग मयो निर्धान्त । स्वाभाविक जो शाश्वत पावन एक शुद्ध चिद्रप नितांत । ( २०४१ ) ज्ञान के भेद व्यवहार से है, निश्चय से नही मति, श्रुत, अवधि तथा मन-पर्यय केवल गत जो भेद अनेक । नय व्यवहार प्रमाण सही है, निश्चय ज्ञान चेतना एक । होनाधिक होता रहता ज्यों रवि प्रकाश धन पटलाधीन । किंतु वस्तुतः रवि प्रकाश है एक, अखंड, स्वस्थ, स्वाधीन । ( २०४/२ ) ज्ञानाश्रय लेने मे अनेक लाभ तथा ज्ञान भी प्रात्माश्रित है एक अखंड नित्य सर्प । जिसका आश्रय ले योगीजन पाते परमानंद अनूप । यत् प्रसाद हों नष्ट मांतियाँ, कर्म शक्तियाँ होती क्षीण । एवं रागादिक परणातियाँ जीवन में हो जाय विलीन । (२०३) चिरस्थायी-अविनाशी । समुपलब्ध-प्राप्त, हात । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( २०४/३ ) एक भ्राति और उसका निराकरण । कुछ जन कहते - 'जीव सर्वथा ही विशुद्ध है सूर्य समान । केवलज्ञानमयी होकर भी बाहय् दृष्टि ही दिखता म्लान ।, यह भ्रम है प्रिय ! यतः विकृतिरत बद्ध जीव नहिं शुद्ध प्रबुद्ध । अज्ञानी असंयमी पर्यय-दृष्टि कर्म संश्लिष्ट अशुद्ध। ( २०४/४ ) जीव किसी नय से शुद्ध और किसी नय से अशुद्ध स्याद्वाद द्वारा _ सिद्ध होता है। शुद्ध नयाश्रित जीव शुद्ध है इतर नयाश्रित वही अशुद्ध । अनेकांत दर्शन सुसिद्ध है स्याद्वाद नय कर अविरुद्ध । द्रव्य दृष्टि से प्रात्म-प्रात्म है अन्य द्रव्यभावादि विहीन । अतः शुद्ध है, पर अशुद्ध वह राग द्वेष रत रहै मलीन । ( २०५ ) भव्यात्म-सबोधन भव्य ! चाहता यदि कर्मों से मुक्ति और पावन पद प्राप्ति । तदि ज्ञायक भावाश्रयले तू, जिससे हो कृत बंध समाप्ति । कायक्लेश आदिक अनेक विध तपश्चरण कर भी अजान । वीतराग विज्ञान विना नहि पावे पद निर्वाण महान । (२०४/३) संश्लिष्ट-चिपक कर एकमेक मिले हुए पूध पानी के समान हो जाने वाला। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार ( २०६/१ ) अतः भव्य ! तू ज्ञान भाव में रत हो, तज मिथ्यात्व निदान । रागद्वेष परणति से बचकर रुचि से ज्ञानामृत कर पान । प्रास्वादन कर इस का ही जो हो जाये संतुष्ट प्रयोण । वही अतीन्द्रिय सुख सागर में केलि करै शाश्वत स्वाधीन । ( २०६/२ ) अतुल ज्ञान चितामणि राजित, वर प्रचित्य सामर्थ्य निधान । तू सर्वार्थ - सिद्धि संभूषित स्वयं देव-चिद्रूप महान । स्व-पद विरच, जो अजर अमर है, निर्विकार शाश्वत सुखलान अन्य परिग्रह को चिंता कर क्यों व्याकुल है बन अनजान ? ( २०७ ) प्रात्मभिन्न जड़-चेतन जितने विद्यमान है भाव अनंत । ज्ञानी कौन कहेगा उनको ये सब मेरे ही है, संत ! यतः स्व जो है वही रहेगा अतः स्व को तू कर पहिचान ! स्व में स्व को संप्राप्त व्यक्ति हो पाता-पद परमात्म महान । (२०६/१) केनि-कोटा । शाश्वत-स्थायी । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( २०८ ) ज्ञानी के उच्च विचार । मैं पर बनजाऊं तो, निश्चित ही आत्म तत्व का होगा नाश । पर बन जाने पर न स्वयं में रह सकता चैतन्य प्रकाश । ज्ञानपुंज मैं देव स्वयं हूँ सर्व परिग्रह मुझ से अन्य । ज्ञायक भाव स्वभावी हूं मैं अन्य भिन्न सब पुद्गल जन्य । ( २०६ ) ज्ञानी का परिग्रह में परत्वकी भावना छिद जाये, भिद जाये अथवा विलय प्रलय को हो संप्राप्त । किसी दशा में भी न परिग्रह स्वत्व कभी कर सकता प्राप्त । देह गेह धन जन सब पर है, पर ही रहते सर्व प्रकार । यों ज्ञानी निश्चय कर रहता स्वस्थ, परिग्रह गिन कर भार । ( २१० ) ज्ञानी की परिणति वह ज्ञानी पुण्य क्यों नही चाहता इच्छा को ही कहा परिग्रह, जो निरच्छ वह परिग्रहहीन । ज्ञानी रह निरच्छ नहिक रता धर्मेच्छा भी रंच प्रवीण । प्रात्म ज्ञान सम्पन्न साधु के ऐहिक सुख समृद्धि को होनचाह न रहती, अतः पुण्य की बांछा करता नहीं मलीन । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार ( २११) जबकि परिग्रह इच्छा ही है, चाहे वह हो किसी प्रकार । यूं न पाप को बांछा करता संज्ञानी जो विरत-विकार । क्रोध मान माया लोभादिक राग द्वेष मिथ्यात्व निदान । सब संकल्प विकल्प व्याधितज निज,में रम रहता, मतिमान ! ( २१२--२१३ ) असन पान की चाह अंततः इच्छा ही है एक प्रकार । अतः व ज्ञानी असन पान की इच्छा कर बनता सविकार । यद्यपि असन पान करता वह, किंतु निरच्छ रहे तत्काल । अनासक्त रहता ज्ञायक बन पात्म साधना लीन त्रिकाल । ( २१४ ) इस प्रकार ज्ञानी के होता सर्व परिग्रह का परित्याग । इच्छात्रों का दास न बनकर, धारण करता पूर्ण विराग । बाह्य विषयचिता विमुक्त हो पावन परमानंद स्वरूपस्वानुभूति रस पान मगन बन ध्याता वह चिद्रूप अनूप । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( २१५/१ ) इन्द्रिय भोग सहज ही में जो ज्ञानी को होते है प्राप्तनश्वर जान न रमता उनमें वह विराग वैभव संप्राप्त । एवं आगामी विषयों को बांछा कर होता नहि म्लान । भूतकाल में भुक्त भोग भी याद नहीं करता मतिमान । ( २१५/२ ) अज्ञानी जीव की दशा जीव मोह वश रह अनादि से सतत स्वानुभव शन्य नितांत । परमें सुख की प्रांत कल्पना करता चला आ रहा मात । दुख सहते बीते अनन्त युगमृगतृष्णा पर हुई न शांत । फिर भी विषय वासना विषमें सुख को खोज रहा दिग्भ्रांत । (२१६/१) ___ ज्ञानी पर्यायों को जानता हुआ भी द्रव्य दृष्टि रखता है जो जाने वह वेदक, जाना जाता वेद्य वही, मतिमान ! वेवक वेद्य भाव का प्रतिक्षण होता रहता नाश, निदान । जो बांछा करता वह प्रिय की प्राप्ति काल तक रहे न दीन । जो प्रिय प्राप्त हुवा है उसको उत्तर क्षण पर्याय विलीन । (२१६/१) वेदक-अनुभव करने वाला। वेध-जिसका अनुभव किया जावे। उत्तरक्षण उस मण के अनन्तर (दूसरे क्षण में) त्वरित-शीघ्र । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार १०० ( २१६/२ ) प्रति पल नष्ट हो रहे वेदक, वेद्य-भाव पर्याय विकार । नश्वर शोलों में ज्ञानीजन नही उलझ ते बन सविकार । पर्यायाश्रित मतिभ्रम होता, उसे क्षीण कर त्वरित प्रवीण । ज्ञानी शुद्ध स्वभाव भावका अनुभव कर रहता स्वाधीन । ( २१७) सुख दुख कर्म फलों मे ज्ञानी राग द्वेष नही करता इंद्रिय भोगों के निमित्त से देहाश्रित सुख दुख हों म्लान । रागद्वेष जीवाश्रित होते, बंध हेतु द्वय अध्यवसान । नहि संसार देह भागों में ये ज्ञानी के हों उत्पन्न । वह रहता ज्ञायक भावाश्रित, वरविराग वैभव सम्पन्न । (२१८ ) ज्ञानी को नवीन कर्मों का बंधन होने का कारण यतः जानता वह चेतन को पुद्गलादि द्रव्यों से भिन्न । फलतः ज्ञानी पर द्रव्यों में राग द्वेषकर हो नहि खिन्न । कर्ममध्य रहकर भी यों वह कर्म रजों में हो नहि लिप्त । यथा पंक में पड़ा स्वर्ण शुचि-रहता उसमें सदा अलिप्त । (२१७) मध्यवसान-विकार । (२१८) पंक कीचड़। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( २१६ ) अज्ञानी के बंध होने का कारण उद्यानों में कुसुम निरख ज्यों बाल मचलता कर अनुराग । मोह विवश अज्ञानी भी त्यों पर द्रव्यों में करता राग । कर्म बद्ध वह पहिले ही है, फिर करता, दुर्भाव नितांत । फलतः कर्मबद्ध हो रहता यथा लोह कर्दम-पाक्रांत । ( २२०-२२१ ) ज्ञानी का ज्ञान अन्य के द्वारा अज्ञान रूप नही परिणमता शंख सचित्ताचित्त द्रव्य का भक्षक है यद्यपि अविराम । किन्तु स्वयं का शुक्ल भाव तज वह पर कृत होता नहि श्याम । त्यों ज्ञानी भी विरत भाव से विविध वस्तु का कर उपभोग । नहिं अज्ञान रूप परिणमता स्वात्माश्रित जिसका उपयोग । ( २२२--२२३।१ ) प्राणी प्रज्ञापराध स्वयं ही वश अज्ञान रूप परिणमन करता है। यथा शंख शुक्लत्व त्याग जब स्वयं परिणमें कृष्ण स्वरूप । उसकी यह परणति उसमें ही हो रहती है सहज विरूप । त्यों प्राणी प्रज्ञापराध वश करता जब रागादि विकार । तब प्रज्ञान रूप परिणम कर अज्ञ स्वयं बनता सविकार । (२१९) लोह लोहा । कर्दम-कोचढ़। (२२२) प्रतापराध-मतिप्रम। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार ( २२३/२ ) वस्तु के परिणन मे निमित्त और उपादान का स्पष्टीकरण अभिप्राय यह है कि वस्तु में सर्व परिणमन विविध प्रकार होता निश्चित निज स्वभाव से अन्य न कर सकता सविकार । बाह्य वस्तु होती निमित्त वह, जो परणति में हो अनुकूल । परिणमता जो स्वयं कार्य बन, उपादान करण वह मूल । (२२३/३ ) उपादान एव निमित्त का दृष्टात कार्योत्पादक उपादान-निज, पर-निमित्त-सहयोगी जान । कार्य काल म ही निमित्त वा उपादान का हो परिज्ञान । वैद्य प्रक्रिया कर शीशक जब स्वर्ण रूप परिणमें, नितांतउपादान शीशक रहता तब वैद्यादिक निमित्त संभ्रांत । ( २२३/४ ) यों बाह्याभ्यंतर निमित्त का कार्य काल में हो सद्भाव । कभी कहीं इच्छानुकूल भी मिलजाते वे स्वतः स्वभाव । जब इच्छानुकल मिलते तब अहंकार की होती सृष्टि : अहंकार ममकार न करता किन्तु कभी जो सम्यक्दृष्टि । (२२३/३) शीशक-शीशा (एक धातु)। प्रक्रिया-विशेष रासायनिक विधियां (शीशे को स्वर्ण बनाने की क्रियायें)। (२२३/४) बाह्याभ्यंतर-अंतरंग (भीतरी) और बहिरंग (बाहिरी) सष्टि-रचना, उत्पत्ति । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ समयसार-वैभव ( २२३/५ ) उपादान एवं निमित्त है स्वपराश्रित कारण व्यवहार । कार्य बिना संभव नहि होता उभय कारणों का निर्धार । जननी जनक कौन कहलावे हुई न होवे यदि संतान । एवं नियमित परस्पराश्रित है सब कारण कार्य विधान । ( २२३/६ ) जिनका आलंबन लेने से होती कार्य सिद्धि सम्पन्न । उन में भी निमित्त कारणता निरपवाद होती निष्पन्न । जिनवाणी सुन जब होता है भव्य जीवको सम्यक ज्ञानतब वाणी निमित्त कहलाती, उपादान वह व्यक्ति सुजान । ( २२४--२२५ ) अज्ञानी सख हेतु कर्म कर्ता और उसका फल भोगता है इसका दृष्टांत द्वारा समर्थन धन का इच्छुक व्यक्ति नृपति की जब सेवा करता दिनरात । तब प्रसन्न होकर नरपति भी करता उसकी पूरी प्राश । त्यों इंद्रिय सुख भोग प्राप्ति हित जीव कर्म करते अविराम । बँध कर कर्म उन्हें प्रतिफल दें, तत्पश्चात् करे विश्राम । (२२३/५) स्व-जो स्वयं कार्य रूप परिणमन करे वह (उपादन) । पर-जो कार्य रूप परिणमन करते हुए को सहयोगी बन जाय (निमित्त)। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार १०४ ( २२६---२२७ ) । ज्ञानी विषय सुख हेतु कर्म न कर उसके फल का भोक्ता भी नही बनता वही व्यक्ति जब वृत्ति हेतु नहि सेवा करता, बन स्वाधीन । तब नृप भी सुख सामग्री से वंचित करता उसे प्रवीण । त्यों ही सम्यक्दृष्टि न करता जब विषयों हित कार्य सकाम । तब कुछ भी फल दान न देकर कर्म प्रकृतियाँ लें विश्राम । ( २२८ ) सम्यक्दृष्टि की नि शंकता सम्यक्दृष्टि सदा रहता है जीवन में निःशंक नितांत । अतुल प्रात्म वैभव बल पाकर निर्भय रहता बन निर्घात । इह-परलोक, अगुप्ति, अरक्षा, मरण, वेदना या अातंक । अकस्मात् इन सप्तभयों से स्वतः मुक्त हो, बनें निशंक । ( २२६ ) उसकी निःशकता निर्जरा काकारण मागम वणित दुःख हेतु हैं समुत्पन्न चैतन्य विकार । तथा कथित मिथ्यात्व अविरमण योग कषाय बंध के द्वार । इन्हें बंद कर विरत भाव रख करता चिदानंद रस पान । संवर पूर्वक बद्ध कर्म का यूं करता क्रमशः अवसान । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( २३०/१ ) सम्यक्दृष्टि की निष्कांक्षिता मक्ति साधना हेतु निरंतर धर्माराधन कर अभिराम । अनासक्त बन कर्मफलों की चाह न कर रहता निष्काम । पर में सुख भम से होती है विषयों की बाँछा उत्पन्न । अतः न पर विषयों का बांछक होता वह सुदृष्टि सम्पन्न । ( २३०/२ ) अनासक्त से ही होते है बन्द कर्म बन्धन के द्वार । कर्म निजर्रा भी उसके ही होसकती जो विरत विकार । विषयों में सुख मान हो रहा उनमें जो पासक्त निदान । सम्यक्दृष्टि व्यक्ति वह कैसा ग्रंथ पठन कर भी अनजान ? SP ( २३१/१ ) उच्च-नीच,निर्धन-समृद्ध या रुग्ण-स्वस्थ पर्याय विकारसमुत्पन्न होते है जितने भी जीवन में विविध प्रकार । तथा शुभाशभ स्पर्श गंध रस रूप पौद्गलिक परणति जान । इष्टानिष्ट कल्पनायें कर वह सुदृष्टि नहि बनता म्लान । (२३१/१) रुग्ण-रोगी। होते है जितप पौद्गलिक लता म्लान । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार १०६ ( २३११२ ) जिन्हें वस्तु धर्मों में होती इष्टानिष्ट कल्पना हीन । उन्हें जुगुप्सा होती, पर की हीन दशाएं निरख मलीन । किन्तु तत्व ज्ञानी न जुगप्सा करता किचित् भी भ्रमहीन । सम भावी बनकर रहता है प्रायः प्रात्म साधना लीन । ( २३२ ) अमूढादृष्टित्व सम्यक्दर्शन के प्रसाद से पाता वह जब दृष्टि नवीन । लोक तथा पाखंडि मढ़ता उसकी होती त्वरित विलीन । नुतन चमत्कार लख जग में मोहित होते मूढ़ महान । किंतु सुदृष्टि कुदेवादिक में होता नहि आकृष्ट सृजान । ( २३३ ) उपगूहनन्त्र प्रतिपल अपने दोष ढूंढ कर उन्हें नष्ट करता है कौन ? एवं पर कृत दोष निरखकर धारण कर रहता है मौन ? वह सुदृष्टि ही है, जो रहता सिद्ध भक्ति रत सतत महान । मिथ्यात्वादि नष्ट कर करता प्रात्मिक गुण विकसित अम्लान । (२३१/२) जुगुप्सा-लानि । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ समयसार-वैभव ( २३४ ) सम्यकदृष्टि का स्थितिकरणत्व विषय वासनाओं का उरमें आता जब अदम्य तुफान । मानव मन उन्मार्गो बन तब हो जाता है पतित निदान । किंतु सुदृष्टि न विचलित होता किसी प्रलोभन वश स्वाधीन । सुस्थिति करणस्वपर का कर वह कर्म काटता सतत मलीन । ( २३५ ) सम्यक्दृष्टि मे वात्सल्य मक्ति मार्ग में साध त्रय पर रखकर वत्सल भाव नितांत । दर्शन ज्ञान चरण साधन रत वह रहता निश्छल निर्धान्त । प्रात्मधर्म में रुचि-सुदृष्टि का है निश्चय वात्सल्य महान । धर्म-धाममें वत्स वत् सहज प्रेम-भाव व्यवहार प्रमाण । ( २३६ ) सम्यक्दृष्टि की प्रभावना प्रात्म अनन्त शक्ति अनुभव कर विद्यारथ में हो आसीन । ध्यान खङ्ग से प्रात्म विकृति रिपुदल करता जो क्षीण प्रवीण । वही वीर बन स्वात्म प्रभावक नव बंधन का कर अवसान । बद्ध कर्म परिपूर्ण नष्ट कर पाता पद निर्वाण महान । इति निर्जराधिकार : Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ बंध-अधिकार ( २३७/१ ) बध का स्वरूप बाह्याभ्यंतर कारण पाकर करता जीव मलिन परिणाम । तन्निमित्त पुद्गल अणुओं में भी, विकार होता अविराम । जल-पयवत् जड़ चेतन का तब हो संश्लेष रूप संबंध । प्रालिगित हों उभय परस्पर, यही तत्व कहलाता बंध । ( २३७-२३८ ) बंध का कारण और दृष्टांत धूलि बहुल धूसर प्रदेश में मुद्गरादि ले कर में शस्त्र-- तैलादिक मर्दन कर करता जब व्यायाम मल्ल निर्वस्त्रवांस, ताल, कदली दल, पर भी कर वह बारंबार प्रहार-- सचित, अचित द्रव्यों का करता छेदन भेदन विविध प्रकार। ( २३६ ) घात और प्रतिघातमयी है जिसका सब व्यापार प्रशांतइस व्यायामशील जन को-जो चेष्टमान है सतत नितान्तधूलि चिपकती क्यों कर तन में? प्रश्न यहाँ यह है गंभीरशस्त्र, प्रदेश, शरीर-क्रिया या अन्य हेतु क्या सोचें धीर ! Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-संभव ( २४०-२४१ ) बध हेतु का स्पष्टीकरण तन को तैल सचिक्कणता ही उसका दिखता कारण एक । धूप चिपकती नहि शरीर में चेष्टाएँ कर अन्य अनेक । त्यों मिथ्यात्वग्रस्त जन बनकर नित रागादि विकाराक्रांत - कर्म रजों से बंध रहता है-मन वच काय क्रिया कर भांत । ( २४२-२४३ ) बध हेतु के अभाव मे बंध का अभाव यही मल्ल तन प्रक्षालन कर जब भी न कर तैल अभ्यंग-- धूलि बहुल व्यायाम सदन में मुद्गरादि लेकर भी संग-- तालपत्र कदली वंशों का छेदन भेदन कर अविराम. सचित् अचित् द्रव्यों का करता-घात, न ले किंचित् विश्राम ( २४४-२४५ ) उक्त सकल चेष्टाएं नाना-अस्त्रों से भी कर निष्पन्न । क्या कारण जो धूलि कणों से नहिं तन होता है प्रापन्न ? रजकण बंधन का समप्रतः निश्चय से कारण है एक-- तैल सचिक्कणता शरीर की, वपु चेष्टाएँ नहीं अनेक । (२४०) वयु-शरीर । (२४२) मध्यंग-मालिश । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध-अधिकार ११० ( २४६ ) सम्यक्दृष्टि को बंध क्यों नहीं होता त्यों सुदृष्टि के मन वच तन से संबंधित सब क्रिया कलापवीतराग परणति के कारण नहिं बनते बंधन-अभिशाप । रागादिक दुर्भाव बंध के कारण है, रह उनसे दूर--- वह स्वच्छन्द करता प्रवृत्ति नहि, जिससे बंध न होता क्रूर। ( २४७ ) सम्यक् और मिथ्यादृष्टि की श्रद्धा मे अतर 'मै परको माया पर से मारा जाऊँ यों अनजानमांति विवश जो नहीं समझता तत्व रहस्य निपट नादान । वह संमूढ, मूढ, मिथ्यात्वी या बहिरातम है दिग्भांत । इससे भिन्न सुदृष्टि वस्तुतः रखता सत् श्रद्धान नितांत । ( २४८-२४६ ) प्राय कर्म को परिसमाप्ति ही कहलाता है मरण, निदान । तू न प्राय क्षय कर भी कहता 'मैं पर को मारा' अनजान ! यतः मरण श्रीमज्जिनेन्द्र ने कहा प्रायुका ही अवसान-- प्रायु न क्षय कर सकता कोई रख कर भी सामर्थ्य महान । (२४७) संभू-मोहो । सत्-सम्यक्, ठीक । (२४८) अवसान-प्रस । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( २५०-२५१ ) मैं पर को जीवन दूं या पर मुझको देवे जीवन-दान । यों भम बुद्धि जिसे है, वह ही मिथ्या मति है मढ़ महान । उदय प्रायु का यतः जहाँ तक तावत् रहता जीवन, मित्र ! आयुदान तु नहि करता, तब जीवदान की बात विचित्र । ( २५२-२५३ ) उपरोक्त कथन का पुन समर्थन । आयु उदय में ही जोते है जब कि जीव जिन वचन प्रमाण । आयदान कर सके न कोई, अतः न पर कृत जीवन दान । एवं निज को पर का, पर को निज का सुख-दुखदाता जानजो होता संमूढ भांति वश-वह ज्ञानी कैसा, प्रज्ञान ? ( २५३-२५४ ) ज्ञानी की श्रद्धा यथार्थ ही यूं रहती निर्धान्त नितांत । सुख दुख-पूर्व कर्म कृत फल हैं, नहिं पर दत्त उभय सम्मांत । जीवन-मरण, हानि लाभादिक जब स्वकर्म फल सिद्ध, निदानफिर क्यों कर्म फलों का दाता समवश बन, करता अभिमान ? (२५०/२५१) तावत्-तब तक । (२५३) निभात-भ्रम रहित । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ-अधिकार ( २५५-२५६ ) कर्मोदय में ही होते है सुख दुख समुत्पन्न, मतिमान ! उन्हें कौन दे सकता? यह तो भ्रम है-कोई कर प्रदान । हमें तुम्हें सुख दुख का दाता-अन्य नहीं कोई, सम्भ्रान्त । स्वकृत कर्म फल हो पाते है संसारी जन सकल नितांत । ( २५६-२५७ ) सुख-दुख में हम-तुम निमित्त है, वे यद्यपि हों कर्माधीन । उनमें हर्ष विषाद न कर वर-ज्ञानी रहता बंधन हीन । मरे, जिये या सुख दुख पाये जबकि जीव निज कर्माधीन'पर ने मारा या कि दुखाया' है यह मिथ्या मांति मलीन । ( २५८-२५६ ) पर न मरे या दुखी न होवे-यह भी पूर्व कर्म फल जान । 'मैं मारा या दुखी किया नहिं तजो मानसिक मांति, निदान । सुखी दुखी में करता पर को एवं अहंकार वश दोन-- जीव शुभाशुभ कर्मों का ही बंधन करता नित्य नवीन । (२५५) समुत्पन्न-पैथा। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैश्य ( २६०-२६१ ) 'पर को सुखी दुखी मै करता' यू होता जो अध्यवसान । पुण्य-पाप कर्मों का बन्धक वह बन रहता सूत्र-प्रमाण । मै जीवों को मारूं अथवा उनको दूं जीवन का दान । यह भी पाप-पुण्य बंधक है-समुद्भूत जीवाध्यवसान । ( २६२--२६३ ) हिसादि पराश्रित न होकर अपने भावों पर निर्भर हैं जीव मरें या जियें, उन्हें मारो-मतमारो; किंतु, प्रवीण ! अध्यवसान भाव तब होते निश्चय बंधन हेतु मलीन । हिंसा सम मिथ्या भाषण या करना ग्रहण अदत्तादान । मैथुन और परिग्रह-भावों से अनुरंजित जीव-निदान ( २६४ ) सविकारी बन अशुभ रूप में परिणत हो बन जाता म्लान । तनिमित्त पापास्रव पूर्वक बंधन में होता अवसान । एवं सत्य, अचौर्य ब्रह्म, या अपरिग्रह में शुभ परिणाम जो होते .वे पुण्यबंध के हेतु कहे श्रीजिन-निष्काम । (२६०) मध्यवसान-विकारी न समुद्भूत-उत्पन्न हुआ। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध-अधिकार ११४ ( २६५/१ ) वाह्य वस्तुओं के आलबन से अध्यवसान होते है और अध्यवसानों से बध होता है जीवों में जितने भी होते अध्यवसान भाव उत्पन्न । वे सब बाह्य वस्तुओं का ही प्रालंबन ले हों निष्पन्न । किंतु तनिक भी बाह्य वस्तु कृत बंध नहीं है क्वचित् नवीन । वह होता प्रज्ञापराध वश कलुषित अध्यवसानाधीन । ( २६५/२ ) एक प्रश्न कर्म बंध यदि भावों से ही होता है सम्पन्न नितांत । बाह्य वस्तु का त्याग तदा क्यों करते है मुनि गण संभ्रांत ? राज्य-पाट, धन वैभव परिजन और स्वजन तज कर वनवास । तीर्थकर पद प्राप्त व्यक्ति भी बाह य संग तज बर्न उदास । ( २६५३ ) प्रश्न का समाधान अध्यवसानों का कारण है बाह्य वस्तु का संग मलीन । अतः त्याज्य है; किंतु बंध हो स्वाध्यवसानाश्रित ही हीन । यद्यपि अध्यवसान बिना नहि बाह्य वस्तु कृत बंध नवीन । फिर भी अध्यवसान त्याग हित बाह्य संग है त्याज्य मलीन । (२६५) प्रतापराध-मतिम गम्य दोष। (२६५/३) स्वाध्यवसानाधित-अपने विकारी भावोंपाभितात्याय-छोड़नेमोम्बा . . Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ समयसार - वैभव ( २६६ ) अध्यवसान सम्पूर्ण अनर्थों की जड़ है पर को सुखी दुखी में करता, बाँधूं या कि करूं उन्मुक्त यही वासना तव निर्थिका - मिथ्या महाभ्रांति संयुक्त । इस वश चेतन हो रहता है मिथ्या अहंकार में लीन । कर्म बंध कर भव संतति में भटक रहा बन भ्रांत मलीन ? ( २६७ ) अध्यवसान स्वार्थ क्रियाकारी नही है अध्यवसानों के निमित्त से कर्म बंध करते जन भ्रांत | कितु मुक्ति पथ का श्राश्रय ले बंधविहीन बने निर्भ्रान्त : हे प्रिय ! यदि यह नियम सत्य है जिन वर्णित शंकातिक्रांत । फिर तू ने क्या किया अन्य प्रति बन कर व्यर्थ विकाराकांत ( २६८ ) अध्यवसानो की भर्त्सना कहें कहाँ तक अध्यवसानों की दुख गाथा तुम्हें, नितांत । इन वश जीव जहां भव धरता होता वहीं सदा दिग्भ्रांत । देव नरक नर तिर्यग्गति में हो संप्राप्त शुभाशुभ देह । आत्म उसे ही मान प्रांति वश, पुण्य पाप में करतास्नेह ? (२६६) उन्मुक्त - बंधन मुक्त, । मिर्विकाव्य.. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध-अधिकार ११६ ( २६६ ) लोकालोक, जीव पुद्गल वा धर्माधर्म काल सम्भ्रांत । अध्यवसानों द्वार मानता - मेरे है सब द्रव्य नितांत | मारक भव घर बनें नारकी - श्वान योनि घर माने श्वान । श्रात्म स्वरूप भूल ग्रम करता, फिर भटकता बना प्रजान । ( २७० ) अध्यवसानों के अभाव में बंध का अभाव जिन मुनिवर के अस्त होगई अध्यवसानों की संतान । उन्हें तनिक भी कर्म बंध का अवसर नहि आता है म्लान । हिंसन, कर्मोदय, ज्ञेयार्थज, होते जो संकल्प विकल्प | इन्हें नहीं करते जो यतिवर उन्हें कर्म रज लगे न स्वल्प । ( २७१ ) अध्यवसान का स्वरूप प्रध्यवसान वही जो होते वैभाविक परिणाम मलोन । नामांतर इनके निम्नांकित प्रागमोक्त हैं भ्रष्ट प्रवीण ! बुद्धि, चित्त, व्यवसाय, भाव, मति, परिणामाध्यवसान । एक अर्थ वाचक हैं सब ही उपर्युक्त परणतियां म्लान । (२६६) श्वान - कुला । (२७०) हिंसन-हिंसा के कार्य । शेथार्थज-ज्ञान के विषय मूत पदार्थों से उत्पन्न होने वाला । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ समयसार-वैभव ( २७१/१ ) अध्यवसान व्यवहार नय का वियय होने से निश्चय नय द्वारा वह प्रतिषिद्ध है पराश्रयी के सर्व शुभाशुभ होते ये परिणाम मलीन । शुद्ध स्वात्म प्राश्रय पा मुनिजन निज स्वभाव में रहते लीन । यों निश्चय से हो जाता सब पर-प्राश्रित व्यवहार निषिद्ध । शुद्ध स्वात्म संश्रयो साधुजन पाते पद निर्वाण प्रसिद्ध । ( २७२/२ ) पर्यायों का सतत परिणमन ही व्यवहार कहा अमलीन । निश्चय है ध व अंश वस्तु का, अतः तदाश्रयणीय, प्रवीण ! व्यवहारी संकल्प विकल्पों में ही उलझा रहता दीन । धव स्वभाव का आश्रय ले मुनि कर्म शक्तियां करते क्षीण । ( २७३ ) मम्यक्त्व शून्य अभव्य शुभ क्रियाओ का पालन कर भी मुक्त नही होता श्रीजिन कथित शील, व्रत, तप या समिति गप्ति व्यवहार चरित्र नित पालन कर भी अभव्यजन मुक्ति नहीं पाता है मित्र ! धर्म मूल स्वत्वानुभूति से जिनका जीवन शून्य नितांत । वे अज्ञानी वा असंयमी भ्रांत पथिक ही है सम्भ्रांत ! (२७२/१) प्रतिषिद्ध-निसका निषेध किया जावे । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध-अधिकार ११८ ( २७४ ) अभव्य के मुक्त न होने का कारण उस अभव्यजन का क्या कहना, जो न मक्ति माने मति भ्रांत । प्राचारांग आदि श्रुत पढ़कर भी रहता दिग्भ्रांत नितांत । शास्त्र पठन से लाभ क्या हुअा, रुची न जिसको प्रात्मविशुद्धि ? बाह्य क्रिया साधन में हो जो उलझा रहता है ममबुद्धि । ( २७५ ) अभव्य की धार्मिक श्रद्धा का उद्देश्य यद्यपि करता है अभव्य भी धर्म कर्म पर दृढ़ श्रद्धान । वह लाता प्रतीति भी उरमें, रुचता उसे धर्म परिज्ञान । अनुष्ठान से धर्म स्पर्श कर देव- वंदना करता दीन । कितु विषय सुख प्राप्ति हेतु ही, नहीं कर्म क्षय हेतु मलीन । ( २७६ ) व्यवहार धर्म का स्वरूप सम्यग्दर्शन कहा जिन कथित तत्वों का करना श्रद्धान । प्राचारांगादिक सूत्रों का पटन मनन ही सम्यक्ज्ञान । षट्कार्यों की रक्षा करना है सम्यक्चारित्र ललाम । यों व्यवहार धर्म वणित है श्री जिन वचन द्वार अभिराम । (२७५) अनुष्ठान-किसी इष्टफल के निमित्त देव की माराधना करना। (२७६) लमाम-सुन्दर । मनिराम-सुनदर। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( २७७१ ) निश्चय धर्म का स्वरूप निश्चय धर्म प्रात्म ही है-सद् दर्शन ज्ञान चरण में लीन । प्रत्याख्यान वही है पावन-संवर योग स्वस्थ स्वाधीन । आत्म तत्व उपलब्ध जिसे है सार्थक है उसका सब ज्ञान । दर्शन भी उसका यथार्थ है सफल सकल चारित्र महान । ( २७७/२ ) निश्चय मे व्यवहार स्वय विलीन हो जाता है यों निश्चय धर्मस्थ योगि के हो जाता व्यवहार विलीन । यतः पराश्रय नहि लेकर वह रहता स्वात्म साधनालीन । इस कारण निश्चय नय द्वारा किया गया व्यवहार निषिद्ध । निश्चय बिन व्यवहार धर्म का-लोप-स्वछंद वृत्ति प्रतिषिद्ध । ( २७८--२७६ ) ___ आत्मा का रागादि अध्यवसान रूप परिणमन पर निमित्तक है इसका दृष्टांत द्वारा समर्थन शुद्ध स्फटिक मणि सुना आपने, वह न स्वयं होता है रक्त । जपा कुसुम को संगति पाकर ही परिणमता बन अनुरक्त । त्यों ज्ञानी की शुद्ध चेतना स्वयं न होती विकृत, निदान । मोहादिक कर्मोदय द्वारा अनुरंजित हो बनती म्लान । (२७८) बयाकुसुम-एक प्रकार का फूल, जो लाल होता है। अनुरक्त- लालिमा सहित । अनुरंजित-रागमय । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध-अधिकार ( २८० ) ज्ञानी बुद्धिपूर्वक रागादि न कर बंधक नहीं बनता प्रात्म लीन ज्ञानी नहि करता राग द्वेष मोहादि विकार । स्व-पर वस्तु का रूप जान वह स्वस्थ रहे परमार्थ विचार । क्रोध मान माया लोभादिक कलुषित भाव न कर मतिमान । पावन ज्ञायक भाव मात्र को वह लेता है शरण महान । ( २८१-२८२ ) अज्ञानी के बंध क्यों होता है ? वस्तु स्वभाव न जान तत्वतः मिथ्यादृष्टि जीव अज्ञान । भांति विवश रागादि भाव कर कर्म बंध करता है म्लान । इससे सिद्ध हुआ कि कषायों से अनुरंजित जो परिणाम - राग द्वेष मोहादि विश्रुत है, वही बंध कारक अविराम । ( २८३ ) कर्म बंध अन्य किन कारणों से होता है ? द्रव्य भाव द्वारा विभक्त है अप्रतिक्रमण अप्रत्याख्यान । ये भी बंधक सुप्रसिद्ध है उभय विकृत जीवाध्यवसान । उभय विकृतियां हो जाती हैं जीवन में समग्र जब क्षीण-- तब ज्ञानी के भी न कर्म का बंधन होता रंच प्रवीण । (२८१) विश्रत-प्रसिद्ध । (२८३) विभक्त-विभाजित, मेवरूप । प्रतिक्रमण-पूर्वकृत पापों का प्रायश्चित न करना। प्रनत्याल्यान-भविष्य में होने वाले पापो का त्याग न करना। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ समयसार-वैभव ( २८४ ) सारांश कहने का अभिप्राय यही है-रागादिक परिणाम मलीनजीवन में अन्याश्रित होते कर्मोदय निमित्त पा हीन । विकृत रूप नहि परिणमता जब जागृत होकर सम्यक्दृष्टि । निर्विकार परणति के कारण तब न बंध को होती सृष्टि । ( २८५/१ ) किंतु वही करने लगता जब मोहित हो रागादि विभाव । तन्निमित्त कर्मों का भी तब बंधन होता स्वतः स्वभाव । प्रतिक्रमण प्रत्याख्यानाश्रित बंधन करता जीव कभी न । मोह न कर पर द्रव्य-भाव में, शुद्ध बना रहता स्वाधीन । ( २८५२ ) द्रव्य भाव में रहता केवल नैमित्तिक-निमित्त संबंध । पर न निमित्त कभी नैमित्तिक रूप परिणमन करता अंध । रागादिक परणतियां होतीं पा निमित्त कर्मोदय म्लान । यो निमित्त को दृष्टि कर्म ही तत्कर्ता, नहिं जीव निदान । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध - श्रधिकार' १२२ ( २८५ / ३ ) फिर भी जब तक रागादिक के जो निमित्त होते पर द्रव्य-उनका प्रतिक्रमण नहि होता या हो प्रत्याख्यान न लभ्य -- तब तक नैमित्तिक विभाव का भी होता नहिं प्रत्याख्यान | प्रति क्रमण भी नहि होता, यों तत्कर्त्ता है चेतन म्लान | C ( २८६ / १ ) अधः कर्मादि दोषों का ज्ञानी अकर्ता है अधः कर्म उद्देशिक ये दो श्राहाराश्रित दोष दोष विशेष | पुद्गल के प्राश्रित वर्णित हैं, ज्ञानी इन्हें न कर्ता लेश । अन्य वस्तु के गुण दोषों का कर्त्ता नहि होता है अन्य । जड़ पुद्गल श्राश्रित दोषों की आत्म कर्त ता है भ्रमजन्य । ( २८६ / २ ) अधः कर्म और उद्देशिक आहार का स्वरूप होन पाप कर्माजित धन से प्रसन पान जो हो निष्पन्न । वही किया जाता श्रागम में श्रधः कर्म संज्ञा सम्पन्न । पर निमित्त निर्मित समस्त ही प्रसन पान उद्देशिक जान । इन पर द्रव्य भाव का कर्ता ज्ञानी कैसे है ? मतिमान ! (२८५ / ३) लभ्य-प्राप्ति करने योग्य, प्राप्त । ( २८६ / 1 ) प्रधः कर्म - अन्याय और पाप से उपार्जित धन से निर्मित भोजन । उद्देशिक- जो भोजन किसी व्यक्ति के उद्देश्य से बनाया गया हो । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ समयसार-वैभव ( २८७१ ) अधःकर्म-उद्देशिक है प्राहार मात्र पुद्गल परिणाम । दोष तदाश्रित अपने कैसे निश्चय कर हो सकते वाम ? ज्ञानी मन वच तन कृत कारित मोदन से कर तत्परिहार । किंचित् राग द्वेष नहि करता असन पान में रह अविकार । ( २८७२ ) अधः कर्म से उत्पादित हो या उद्देशिक हो प्राहारजानी यह विचारता इनका पुद्गल ही है बस प्राधार । यह मुझ कृत कैसे हो सकता जो कि प्रकट पुद्गल परिणाम ? यों विज्ञान विभव बल से वह बंध न कर, पाता विश्राम । ( २८७/३ ) ज्ञानी साधु को आहारादि क्रिया में बंध क्यों नहीं होता ? ज्ञानी साधु निरोहवृत्ति रख करता जो आहार विहार । उससे उसे बंध नहिं होता जिनवाणी करतो निर्धार । आहारादि क्रिया में होता जो प्रमाद किंचित् तत्कालउससे उसे बंध भी किंचित् होता है; नहि किंतु विशाल । (२८७/३) निरीह पत्ति-विषयवासनामा ऐहिक कामना से रहित इति। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध-अधिकार ( २८७/४ ) निर्बंध । प्रबन्ध | वह नगण्य होने से उसको गौण कर कहा है अनंतादुबंधी बिन जैसे पूर्व कहा सद्दृष्टि हो जाता अनंत भव कारण का सुदृष्टि जन में अवसान । इसी दृष्टि को मुख्य कर कहा है प्रबन्ध सद्दृष्टि महान । ( २८७/५ ) इस संबध मे भ्रम और उसका निवारण १२४ इससे यह न समझना ज्ञानी करता है उद्दिष्टाहार । याकि पाप कर्माजित धनकृत भुक्ति ग्रहण करता स्वीकार । जान मान करता सदोष यदि वह उद्दिष्टाहार विहार । तब तत्क्षण संयम विहीन बन मार्ग भ्रष्ट होता साकार । ( २८७/६ ) अन्य द्रव्य भावाश्रित जितने भी विकार हैं अमित शेष । श्रात्म भिन्न कह दरशाई है यहां सुनिश्चय दृष्टि विशेष । शुद्ध नयाश्रित ज्ञानी में नित जाग्रत रहता परम, विवेक प्रतः न बंधक प्रतिपादित है श्राहारादि क्रिया प्रत्येक । इति बंध -अधिकार: (२८७ / ५) उद्दिष्टागर- जो भोजन पपने उद्देश्य से बनाया गया हो । (२८७ /६) अमित - प्रसीम-अस्वेष्यात । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ समयसार-वैभव मोक्षाधिकार ( २८८ ) दृष्टान्त द्वारा बंध का स्पष्टीकरण लोह शृंखलाबद्ध पड़ा इक-कारागृह में जन संभ्रांत । मृदु-कठोर, दृढ़ -शिथिल-बंध को सर्व स्थिति संज्ञात नितांत । यों युग बीते पारतन्त्र्य में पीड़ाओं को सहते मार । मुक्ति हेतु फिर भी न यत्न कर वह रहता है बंध चितार । ( २८६-२६० ) बंध का ज्ञान करने से ही मुक्ति नहीं मिलती एवं युग युगांत में भी वह कैसे हो सकता स्वाधीनमोह श्रृंखला काट यत्न कर नहि यावत् हो बंधन-हीन ? त्यों यदि प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभागबंध सब हों परिजात । फिर भी कर्मों का दृढ़ बंधन बिना यत्न कटता नहि मात ! Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षाधिकार १२६ ( २६१ ) ___ बध की चिता और ज्ञान-दोनों करने से मुक्ति नही मिलतो चिंतन या तद् ज्ञान मात्र से कटती नहीं कर्म जंजीर । अतः बंध के ज्ञान मात्र से ही संतुष्ट न होना धीर ! बंध छेद बिन किये न बंदी-पा सकता स्वातन्त्र्य, प्रवीण ! कर्म बंध छेदन बिन त्यों ही जीव न हो सकता स्वाधीन । ( २६२ ) बधनों का काटना ही बध मुक्ति का उपाय यदि वह बंधन बद्ध काट दे पग में पड़ी बेढ़ियां हीन । तब होकर उन्मुक्त विचरता यत्र, तत्र, सर्वत्र, प्रवीण ! त्यों चेतन पावन समाधि सज कर्मबंध का कर अवसान-- अनुपम अचल अमल अविनाशी पद पाता-निर्वाण महान ( २६३ ) बधन से मुक्ति कब सभव है ? बंधन एवं प्रात्म तत्व को पृथक् पृथक् सम्यक् पहिचानबंध दुःख का हेतु जान कर-माना प्रात्म-शांति सुख खान । बंध विरत हो कर दृढ़ता से काटे विकट कर्म जंजीर । परमानन्द मयी अविनाशी मुक्ति वही पाता वर वीर । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ समयसार-वैभव ( २६४-२६५) बधन हेय एवं आत्म स्वभाव उपादेय है। नियत स्वलक्षण से विभिन्नता प्रज्ञाकृत होती है सिद्ध : बद्ध कर्म जड़ भाव लिये है, ज्ञानमयो चैतन्य प्रसिद्ध बंधन निश्चित पारतन्त्र्य का ही प्रतीक है दुख की खान । अतः हेय है, किंतु स्वात्म है उपादेय सुख शांति निधान । ( २६६ ) शुद्धात्म स्वरूप का ग्रहण कैसे हो? शुद्ध स्वात्म हम भगवन् ! कैसे ग्रहण करें सम्यक् निर्धार ? भव्य ! सदा प्रज्ञा द्वारा ही प्रात्म ग्राह्य होता साकार । भिन्नज्ञात ज्यों हुआ बंध से पाल तत्व अनुपम अभिराम । प्रज्ञा से ही ग्रहण करो त्यों तव विशुद्ध चिद्रूप ललाम । ( २६७ ) मै कौन और कैसा हू ? प्रज्ञा से जो ग्रहण किया है सच्चिद्रप स्वस्थ अम्लान । मैं ही हूँ वह तत्व वस्तुतः परंज्योति विज्ञान निधान । मम स्वभाव से सर्व भिन्न है वैभाविक परिणाम मलीन । में निज में निजकर निज के ही लिये ग्रहण के योग्य प्रवीण । (२६४) प्रशाहत-जाम से संपन । - - Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षाधिकार १२८ ( २९८ ) आत्म संबोधन ! प्रज्ञा से जो ग्रहण किया वह दृष्टा भी मै हूँ स्वाधीन । चित्स्वभाव से सकल भिन्न है वभाविक परिणाम मलीन । वे विकार विरूप लिये है ज्वरवत् दुःखमयी साकार । में चेतन चिद् बहु म चिरंतन परमानंदमयी अविकार । ( २६०-३००/१ ) पुन आत्म सबोधन ! प्रज्ञा से ग्रहीत मैं ही हूँ, ज्ञाता भी निःशंक ललाम । मुझ से भिन्न भाव सब पर है, मै हूँ निर्विकार निष्काम । कौन विवेकी जान स्वयं को अन्य द्रव्य-भावों से भिन्न-- यह मानेगा और कहेगा 'मुझ से ये जड़भाव अभिन्न ?' ( ३००/२ ) आत्मस्वरूप की अज्ञता ही बंधन का मूल है शुद्ध बुद्ध ज्ञायक स्वभाव तू एक बार अनुभव कर, भात ! तव कल्याण इसी में निश्चित, यही मुक्ति का पथ अवदात । निज स्वभाव परिज्ञात किये बिन चेतन भटक रहा भव मात । मोह राग द्वेषादि विकृति वश बंधन में फंस बना प्रशांत । (२६८) विदम्प-बोटापा Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपराधी जीव बँधता और निरपराध मुक्त होता है चौर्य आदि अपराध शील जन कर कुकर्म पाता नहि शांति । कहीं न बाँधा मारा जाऊं ! यों रहती मन घोर अशांति । जहां कहीं जाता रहता है प्राशंकाओं से प्राक्रांत । पापी मन में परितापों से पीड़ित रहता निपट प्रशांत । ( ३०२-३०३ ) जो धर्मी अपराध न करता वह रहता सर्वत्र निशंक । देश विदेश विचरता, उसको रोके-कौन जान निकलंक । त्यों चेतन बंधन में पड़ता जब भी करता वह अपराध । निरपराध रह वही मुक्ति पा करता पूर्व प्रमत्म की भाव। (३०) अपराध का स्वरूप व नामातर राष, सिद्ध, साषित, पाराधित या संसिद्धि प्रादि सब नाम । एक अर्थ बाचक है, इनमें अर्थ भिन्नता सनिक न वाम । कर पर का परिहार स्वात्म की सिद्धि-साधना ही है राध । जो हो राध रहित बह निश्चित ही कहलाता है अपराध । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षाधिकार ( ३०५-३०६ ) निर्विकल्प दशा में प्रतिक्रमण का विकल्प विष कुंभ है निरपराध चेतन रहता है सतत निशंक और स्वाधीन । निज को शुद्ध अनुभवित कर वह निज में ही रमता अमलीन । प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, धारणा, निंदा, गर्हा और निवृत्ति । शुद्धि तथा परिहार, अष्ट बिध है विषकुंभ सदा चिवृत्ति । ( ३०७/१ ) अप्रतिक्रमण (निर्विकल्प दशा) अमृत कुंभ है अप्रतिक्रमण, निदा गर्दा, अथवा अधारणा निः परिहार । वा अनिवृत्ति, अशुद्धि ये कहे अमृत कुंभ मुनि जीवन सार । यतः स्वानभव रत रहता जन निर्विकल्प बन निजरसलीन । उपर्युक्त परिपूर्ण कथन भी उसे लक्ष्य कर किया, प्रवीण ! ( ३०७/२ ) विकल्प मात्र बंधन का कारण प्रतिक्रमणाप्रतिक्रमण प्रादि कृत जब तक है संकल्प विकल्प - तब तक कर्म बंध होता है, अस्त न यावत् अंतर्जल्प । 'मैं हूं प्रतिक्रमण का कर्ता' यों जागृत हो जब अभिमान । मात्म साधना की न गंध तब रहती, होता बंध निदान । (३०७/२) अंतवल्प-मानसिक विकार । तादात्म्य-पणिमता एकत्व । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( ३०७/३ ) इस संबंध में प्राति का निराकरण यह न समझना प्रतिक्रमणादिक सर्व दृष्टि है धर्म विरुद्ध । यतः विकल्प दशा में मुनि को वे प्रावश्यक हैं अविरुद्ध । हो जाने पर दोष न करता यदि मुनि प्रतिक्रमण कर शुद्धि । है सविकल्प दशा में यदि वह तब मुनि ही न रहा दुर्बुद्धि । ( ३०७/४ ) परम समाधि दशा में होते सर्व शुभाशुभ भाव विलीन । व्यवहाराश्रित धर्म क्रिया सब हो जाती निश्चय में लीन । स्वानुभति में रमण करें या प्रतिक्रमण में देखें ध्यान ? स्वानुभति तज प्रतिक्रमण में चित्तवृत्ति ही पतन महान । इति मोक्षाधिकारः Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ सर्व विशुद्ध ज्ञानाधिकार ( ३०८ ) प्रत्येक द्रव्य अपने अपने गुण-पर्यायों का ही कर्ता है जिन यात्मीय गुणों से होता स्वतः प्रत्येक द्रव्य उत्पन्न । वह उनसे अनन्य ही रहता, गुण न द्रव्य से होते भिन्न । स्वर्ण मुद्रिका आदि रूप धर ज्यों परिणमता विविध प्रकार । निश्चित ही वे मुद्रिकादि सब स्वर्णमयी होते साकार । त्यों अजीव या जीव द्रव्य में होते जो परिणाम विभिन्न । वे उनसे अनन्य ही होते-पर्यायों से द्रव्य न भिन्न । अभिप्राय यह है कि द्रव्य कहलाता है-गुण पर्ययवान । किंतु सहज तादात्म्य द्रव्य गुण पर्यय में रहता अम्लान । (३०९) तादात्म्य-अभिन्नता, एकत्व । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयमारक्य ( ३१०) जीव द्रव्य अन्य द्रव्य का कार्य या कारण नहीं है यतः कभी भी नहीं किसी से जीव द्रव्य होता उत्पन्न । अतः कार्य वह अन्य द्रव्य का बंधु ! न हो सकता निष्पन्न । तथा जीव नहिं अन्य द्रव्य-गुण पर्यय का करता निर्माण । प्रतः न कारण भी वह पर का मान्य हुमा-होगा मतिमान । कर्ता कर्म की सिद्धि परस्पराश्रित है कर्माश्रित कर्ता, कर्ताश्रित-कर्म नियम से हों निष्पन्न । हो सकता निश्चित न अन्यथा कर्त्ता-कर्म भाव सम्पन्न । कर्म विना कर्ता नहिं सम्भव, त्यों न कर्त विन कर्म विचार । परस्पराश्रित ही चलता है कर्ता और कर्म व्यवहार । (३१२ ) आत्मा की दुर्दशा क्यों है ? यह प्राणी अज्ञान दशा में कर्म प्रकृतिवश हुमा विपन्न । नित नूतन कर विकृति स्वतः ही होता नष्ट और उत्पन्न । सुख-दुख कर्म फलों में रत हो यह करता रागादि विकार । तन्निमित्त पा कर्म रूपधर पुद्गल परिणमता साकार । (३१२) विपन:-विपत्ति या संकट में पड़ा हमा। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुद्ध मानाधिकार १३४ ( ३१४--३१३ ) कर्म बंध का मूल कारण जड़-चेतन गत विकृत भाव से होता उभय परस्पर बंध । जिससे संसृति चत्र चल रहा, कर्ता और कर्म संबंध । जब तक जीव प्रकृति रत रह, नहि-करता दोषों का परिहार । तावत्, अज्ञानी, असंयमी, मिथ्यादृष्टि रहे सविकार । ( ३१५ ) बंध का अभाव कव होता है ? कर्म अनंत फलों में जब वह राग द्वेष कर हो न मलीन । ज्ञाता दृष्टा मात्र बन रहे, नहि करता तब बंध नवीन । अभिप्राय यह है कि कर्म फल में विरक्त ज्ञानी निर्धान्तनहिं भोक्तृत्व भाव विन करता तब कर्मोंका बंध नितांत । ( ३१६ ) अज्ञानी एवं ज्ञानी के भावों मे अन्तर सुख-दुख कर्म फल निरत होकर अज्ञानी जड़ कर्माधीन । अहं भाव कर सुखी दुखी बन-बंधन करता नित्य नवीन । जब कि भेद विज्ञानी सुख-दुख मात्र कर्म फल जान प्रवीण । ज्ञाता दृष्टा बनस्वभाव रत तनिक न करता बंध मलीन । (३१६) निहित-सल्लीन । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-मंग ( ३१७ ) शास्त्र पाटी होकर भी अभव्य मिथ्यादृष्टि ही बना रहता है । चिर प्रज्ञान भाव संस्कारित रह कर सदा विकाराक्रांत - भली भांति कर शास्त्र अध्ययन भी अभव्य रहता दिग्नांत । दुग्धपान कर भी ज्यों निविष प्रकृति दोष वश हों न भुंजग । त्यों अभव्य प्रज्ञान भाव वश परिहरता नहिं प्रकृति कुसंग । ज्ञानी की कला निराली है ... ज्ञानी रह संसार, देह, भोगों से उदासीन स्वाधीन - सुख दुख केवल कर्मोदय कृत मधुर कटुक फल जान मलीन - ज्ञाता दृष्टा बन परिणमता, तन्मय हो लेता नहि स्वाद । स्वानुभतिगत निजानंद का पाकर सम्यक् महा प्रसाद । ( ३१६ ) ज्ञान चेतना का परिणाम कर्म-कर्मफल शन्य चेतना जिसकी हुई ज्ञान में लीन । वह न कर्म कर्ता या उनका फल भोक्ता-रहकर स्वाधीन । सुख-दुख मान कर्मफल ज्ञानी, उनसे कभी न करता प्यार। पुण्य-पाप द्वय कर्म बंध भी करता नहि वह समता धार । (३१७) प्रकृति-स्वभाव । (३१८) कृत-कर्म के मानावरगादि भेद । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाधिकार १३६ ( २.) मानी को परिणति शानी का वर ज्ञान चक्ष सम केवल जाने तत्व विशेष । बंध-मोक्ष निर्जरा आदि या कर्म जन्य सुखदुःख अशेष । इन में रत हो कभी न भोक्ता और न कर्ता बनें प्रवीण । नश जाता है मान ज्योति से उसका तम प्रज्ञान मलीन । कों को आरम परिणाम का कर्ता मानने में दोष सुर, नर, असुर, चराचर सबकी सृष्टि विष्णु कर्ता यों मानचलते कर्त्तावादी, स्यों यदि श्रमणों का भी हो श्रद्धान । यह कि प्रात्म ही षट्कायों का-संसृति में कर्ता निर्माण । कर्तावादी बत् श्रमणों का ठहरा तब सिद्धांत समान । ( ३२२ ) पर कर्तृत्व स्वीकार करने में सैद्धांतिक हानि विष्णु वहां जीवों का स्रष्टा-श्रमण रच देहों के वेश । यों दोनों को लजन क्रिया कर सिद्ध हो रहा राग द्वेष । राग द्वेष बिन मूर्ख व्यक्ति भी करता नहिं किंचित् ज्यों काम । सृष्टि और देहों को रचना संभव हो कैसे निष्काम ? (३२१) भमणों व शिपया साधु । संमृति-संसार परिवार। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ पर कर्तृत्व भाव रखने वाला श्रमण मुक्ति का पात्र नही इस प्रकार नहिं सजक विष्णु सम श्रमण भी न पा सकते मुक्ति । कुंभकार सम यतः सिद्ध है राग द्वेष मय उभय प्रवृत्ति । करता विष्णु सुरासुर सब का ज्यों निर्माण कार्य सम्पन्न - त्यों कायों की श्रमण सृष्टि कर निश्चित हुमा विकरापन्न । बुद्धि भ्रम क्यों होता है ? पर द्रव्यों में 'मेरा तेरा' यू जो है उपचार नितांत । तत्व ज्ञान से शन्य जन उसे सत्य मान बनता दिग्भ्रांत । आखिर पर तो पर ही रहता, कल्पित है इसमें ममकार । निश्चय से परमाणु मात्र पर क्या तेरा अधिकार ? विचार । ( ३२५ ) लौकिक जन यों मान चल रहे मेरा है यह गृह अभिराम । अथवा भारत देश हमारा, या कि नगर, पुर, पत्तन, प्राम । किंतु वस्तुतः किसका क्या है, यह तेरा-मेरा संसार ? सचमुच ये परमार्थ दृष्टि से मोह जन्म हैं मांत, विचार । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुद्ध ज्ञानाधिकार ( ३२६ ) एवं ज्ञानी भी जब पर में करता अहंकार ममकार । निश्चित मिथ्या दृष्टि बन रहे वह परात्मवादी साकार । इससे यह भी जाना जाता उक्त सृष्टि कर्त्त त्व निदान । भांति मात्र है, यतः जगत का है शास्वत अस्तित्व महान । ( ३२७ ) पर मे कर्ता कर्म का व्यवहार मात्र उपचार है ज्यों सुदृष्टि-संप्राप्त विज्ञजन तजता पर ममत्व परिणाम । वह तथव कर्तत्व अन्य का नहि धारण करता, निष्काम । पर मै कर्त-कर्म का चलता जो लौकिक जन गत व्यवहार । वह परमार्थ दृष्टि में दिखता केवल आरोपित उपचार । ( ३२८ ) पौद्गलिक कर्म जीव को वास्तव मे विकारी नही बनाता यदि मिथ्यात्व प्रकृति जीवों को-मिथ्यादृष्टि बनाती म्लान । तब यह सिद्ध हुआ कि प्रकृति में ही रहता कर्त्त त्व, निदान । जीव नहीं अपराध करे तो उसे न होगा बंध नवीन । बंध-बिना संसार प्रक्रिया का हो जाये अंत, प्रवीण ! Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ समयसार - वैभव ( ३२६ ) जीव भी पुद्गल में विकार उत्पन्न नही करता त्यों यदि पुद्गल में हम करते मिथ्यात्वादि मलिन परिणाम । तब पुद्गल मिथ्यात्वी ठहरे और जीव निर्दोष ललाम । बंधन तब पुद्गल को होगा, बंधन से होगा संसार । पुद्गल हो सुख दुख भोगेगा -जीव सिद्ध होगा श्रविकार । ( ३३० ) पुद्गल कर्म की परिणति पुद्गल कृत ही है यदि जड़-चेतन मिल पुद्गल में मिथ्या भ्रांति करें उत्पन्न । तत्फल प्राप्ति दोष दोनों को तब प्रवश्य होगा निष्पन्न | फिर मिथ्यात्वादिक से होगा पुद्गल को निश्चित ही बंध । यह सिद्धांत विरुद्ध मान्यता इष्ट नहीं हो सकती, ग्रंथ ! ( ३३१ / १ ) प्रकृति-जीव मिल पुद्गल में यदि नहि करते मिथ्यात्वोत्पन्न । तब मिथ्यात्व रूप पुद्गल को परणति स्वतः हुई निष्पन्न । इससे सिद्ध हुआ - पुद्गल में होतीं जो परणतियां म्लान ये पुद्गल के ही विकार हैं--मात्र निमित्त चेतना म्लान । - Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मे पिनाधिकार १४० जीव की विकार परिणति जीव की ही है त्यों चेतन में जो होते है-राग द्वेष परिणाम मलीन-- में चेतन के ही विकार है, तनिमित्त कर्मोदय हीन । निज परणति निज में निज से ही होती है निश्चित स्वाधीन । किंतु विकृति में पर निमितता टाली जा सकती न, प्रवीण ! (३३२ ) एकांत रूप में कर्म कर्तृत्व का पूर्व पक्ष ज्ञानावरण कर्म से चेतन किया जा रहा है अज्ञान । क्षय-उपशम के द्वार उसी के जीव प्राप्त करता है ज्ञान । निद्रा कर्म सुलाता, उसका उपशम हमें जगाता है। मोह प्रकृति से प्रेरित चेतन भव भव में भरमाता है । ( ३३३ ) साता कर्म-उदय जीवन में सुख साता करता उत्पन्न । हो संतप्त दुखों में रोता जीव असाता-उदय विपन्न । माम होता मिथ्यात्व कर्म के उदय जीव में विविध प्रकार । चरित मोह कृत संयम भावों में होते रागादि विकार । (३३१/२) विलि-विकार Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३४ ) पुण्य कर्म से जीव स्वर्ग में करता है सानंद निवास । पाप कर्म से पीड़ित होकर नरकों में करता वह वास । मर्त्य लोक में तर तन पाकर भी पाता दुख जीव प्रतीव । कर्म शुभाशुभ के प्रसाद से नाना रंग बदलता जीव । ( ३३५ ) एकांत रूप में कर्म का कत्तत्व मानने में हानि इष्टानिष्ट वस्तुएं सब ही कर्म जीव को करें प्रदान । सब संयोग वियोग कर्म कृत, इससे कर्म महा बलवान । यों तथोक्त यदि कर्मों को ही लीला मानी जाय नितांत । जीव तदा एकांत अकर्ता ही ठहरा तव मत से, मोत ! ( ३३६ ) नारी वेद सजन करता है पुरुषों से रमने का भाव । पुरुष बेद त्यों ही नारी से रमने का करता दुर्भाव । परम्परागत प्राचार्यों की यह श्रुति हो करलें यदि मान्य । विषयवासनादिक जीवों कृत हो जाती तब स्वयं अमान्य । (३३५) तथोक्त-इस प्रकार ऊपर कही गई, वणित । वारसारा। mmaNPATHA--- Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुशानाधिकार १४२ १४२ ( ३३७-३३८ ) कोई फिर अब्रह्मचारी भी नहीं रहा तव उक्ति प्रमाण । अमुक वेद जब इतर वेद का इच्छुक मान किया श्रद्धान । यों ही जब परघात नाम की एक प्रकृति करली स्वीकार । जो कि बार करती तदन्य पर विविध भांति कर तीव्र प्रहार । ( ३३६-३३४० ) उपर्युक्त कर्तृत्व का सिद्धात स्वीकार करने मे दोषोद्भावन इसीलिये हिंसक नहिं तब फिर ठहरेगा कोई भी जीव । यतः प्रकृति ही अन्य प्रकृति की घातक ठहर रही निर्जीव । इस प्रकार जिन जिन श्रमणों को स्वीकृत हुप्रा सांख्य सिद्धांत । उनके यहां प्रकृति ही कर्ता, जीव अकर्ता ठहर, भांत ! ( ३४१-३४२ ) कुछ अन्य भ्रमों का निराकरण अथवा स्वयं प्रात्म ही अपने द्वार प्रात्म में करे विकार । ऐसा मान्य किये भी मिथ्या ठहरेगा तव उक्त विचार । यतः असंख्य प्रदेशी शास्वत नित्य मान्य है प्रात्म नितांत । उसमें कुछ भी होनाधिकता लाना शक्य किसे ? मतिभ्रांत ! Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( ३४३-३४४ ) जीव लोक व्यापी बन सकता स्वीय य प्रदेश प्रसार । उन्हें हीन या अधिक कौन करने समर्थ तब किसी प्रकार ? यदि चिद्ज्ञायक ज्ञान स्वभावी कर लेते हो तुम स्वीकार । तदा न संभव आत्म मात्र में आत्म द्वार, रागादि विकार । ( ३४४२ ) जीव में कूटस्थ नित्यता संभव नहीं मिथ्यात्वादि मलिन भावों को करता किन्तु जीव अज्ञान ; अतः न उनका कर्ता कसे मानेगा फिर तु ? अनजान ! नहि कूटस्थ नित्य में संभव हो सकता नूतन परिणाम । अतः नित्य वत् वह अनित्य भी सिद्ध कथंचित् है चिद्धाम । ( ३४४१३ ) जीव की अनेकांतात्मकता ज्ञायक चित् सामान्य दृष्टि से प्रादि अंत विन ज्ञान स्वरूप । किंतु विशेष दृष्टि परिणामी सादि सांत है वही अनूप । अनेकांत सिद्धांत वस्तु को स्वयं सुरुचिकर है, मतिमान ! हम तुम क्या कर सकें, जब कि सत् अनेकांत मय है सप्रमाण । (३४) कूटस्थ-जिसमें कुछ परिवर्तन न हो। (३४/३) चित-मात्मा। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समिरमानाधिकार आत्मा कथंचित् नित्यानित्य है, सर्वथा नही यतः किन्हीं पर्यायों द्वारा-होता जीव नाश को प्राप्त । और किन्हीं द्वारा न नष्ट हो पर्यायों में रहकर व्याप्त । धोव्य दृष्टि में एक हि कर्ता, अध्न व दृष्टि से भिन्न नितांत । यों कर्त्त त्व विषय में निश्चित, सिद्ध नहीं होता एकांत । वस्तु अनेकांतात्मक है इस प्रकार कुछ पर्यायों से चेतन होता नष्टोत्पन्न । कुछ से स्थिर रहता, यों वेदक वही या कि होता तद्भिन्न । कर्ता-भोक्ता वही ठहरता शाश्वत अन्वय दृष्टि प्रमाण । पर्यायों को दृष्टि उभय में रहता है भिन्नत्व महान । (३४७/१) अनित्यकांत में दोषोभावन 'कर्ता से भोक्ता सदैव ही निश्चित होता भिन्न नितांत' क्षण भंगुर पर्याय निरख यों जिसमें ग्रहण किया एकात । उसका यह सिद्धांत मांत है, अतः जीव वह मिथ्यादृष्टि । जिनमत वा प्रमाण से मिथ्या-क्षणिक बाद की दिखती सृष्टि । (३४५) श्रीब्य-टिकने वाला, । ३४६ वेवक-अनुभव करने वाला । मन्वय-जिसका जिससे लगातार संबंध हो उस सातारधीयवाही हैं। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ समयसास्म न ( ३४७/२ ) बाल्य काल में मैं बालक था, मैं ही युवा हुआ, नहि अन्य । बाल्य-यवावस्था में दिखता-भेद, किन्तु में वही अनन्य । यो अन्वय से नित्य सिद्ध है जबकि स्वीय प्रात्मत्व महान, भिन्न भिन्न तब कर्ता भोक्ता माने, वह मिथ्यामति जान । ( ३४७/३ ) जो यह मान चलें कि सर्वथा-क्षणिक तत्व हो रहता शुद्ध । उसका यह सिद्धांत द्रव्य को दृष्टि ठहरता दृष्ट विरुद्ध । अतः कर्म का करने वाला भोक्ता नहिं होता-सिद्धांत - मिथ्या पूर्ण प्रमाणित होता, जिनमत-दृष्ट विरुद्ध नितांत । ( ३४८ ) वस्तु मे अनेकांतात्मकता स्वतः सिद्ध है अभिप्राय यह है कि वस्तु है स्वतः सिद्ध गुण पर्ययवान् । इसीलिये गण दृष्टि नित्य-एवं अनित्य पर्याय प्रमाण । कर्ता-भोक्ता भिन्न भिन्न हो जिसका है ऐसा सिद्धांत । वह मानव मिथ्यात्व ग्रस्त है-अर्हन्मत विपरीत नितांत । (३४७/२) स्वीय-अपना.। (३४८) प्रहन्मत-महंत, भगवान का मत, अन मत । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुद्ध मानाधिकार ( ३४६ ) जीव कर्म को निमित्त दृष्टि से करता होकर भी तन्मय नही होता शिल्पी यथा स्वर्ण से करता विविध भूषणों का निर्माण ; किंतु स्वयं नहि भूषण बनता, शिल्पी-शिल्पी रहे, निदान । त्यों कर्मों का कर्ता चेतन स्वयं न परिणमता बन कर्म । स्वर्णाभूषण वत् पुद्गल ही परिणमता बन कर्म-अकर्म । ( ३५० ) दृष्टांत पुरस्सर उक्त कथन का समर्थन यथा शिल्पि उपकरणों द्वारा भूषण का करता, निर्माण । किन्तु स्वयं उपकरण रूप नहि परिणमता है वह, मतिमान ! तथा करण मन वचन काय से जीव कर्म करता निष्पन्न । किन्तु स्वयं नहि मन वच काया बन करता उनको सम्पन्न । ( ३५१ ) . यथा शिल्पि उपकरण ग्रहण कर भी न उपकरण बने, प्रवीण ! त्यों चेतन यद्यपि योगों से कर्म ग्रहण कर बने मलीन ; किन्तु स्वयं मन वच काया नहिं बन परिणमता है चैतन्य । दोनों ही सत्ता स्वरूप में सदा भिन्न है, अन्य हि अन्य । (३५०) पुरसर सहित । करण-जिसके द्वारा कार्य संपन्न हो । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ समयसार-वैभव ( ३५२ ) यथा शिल्पि अपनी कृतियों के फल स्वरूप धन पाता है । किंतु कभी वह परिवर्तित हो स्वयं न धन बन जाता है । तथा जीव भी पुण्य-पाप मय कर्म बंध कर नित्य नवीन । तत्फल पाता, किन्तु कभी वह स्वयं न फल बन जाय, प्रवीण ! ( ३५३ ) वर्णन यों संक्षिप्त पराश्रित बंधु ! किया व्यवहाराधीन । जिसमें है निमित्त नैमित्तिक भाव-दृष्टि प्राधान्य प्रवीण ! अब निश्चय का कथन सुनो, जो रहकर निज परिणामाधीतम्वाश्रित ही वर्णन करता है, जहाँ पराश्रित दृष्टविलीन । ( ३५४-३५५ ) निश्चय नय से आत्मा स्वय रागी द्वेषी एवं सुखी दुखी होता है (उपादान उपादेय की दृष्टि से) । शिल्पी कर चेष्टाएँ अगणित रहता उनसे सदा अभिन्न । चेष्टमान रागादिक से त्यों जीव नहीं रहता है भिन्न । यथा शिल्पि नाना चेष्टा कर होता स्वयं व्यग्र, नहिं अन्य । त्यों चेतन भी चेष्टमान बन दुख मय परिणत हो तदनन्य । (३५४) व्यप-परेशान, माकुल, व्याकुल। मिति-नीवार। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुद्ध कानाधिकार १४८ ( ३५६ ) उल्लिखित कथन का दृष्टात द्वारा समर्थन चूना स्वतः शुक्ल है, नहि वह भित्ति कृत हुआ शुक्ल नवीन । त्यों चेतन नहि ज्ञायक पर से, वह है ज्ञानमयो स्वाधीन । पुतने पर ही नहि चूने में आता शुक्ल पने का भाव । त्यों पर द्रव्य ज्ञान से ही नहिं चेतन में है ज्ञायकभाव । ( ३५७-३५८ ) चने में ज्यों भित्ति प्रादि से शुक्ल भाव नहि हो उत्पन्न । त्यों दर्शक नहि पर दर्शन से, दर्शक स्वयं दृष्टि-सम्पन्न । चूना स्वतः श्वेत, नहिं परकृत-वह शुक्लत्व भाव को प्राप्त । त्यों संयत चेतन स्वभाव से, नहि पर त्यागवृत्ति-संप्राप्त । ( ३५६-३६० ) चूने में शुक्लत्व स्वतः है, नहिं वह पर कृत शुक्ल, प्रवीण ! त्यों पर श्रद्धा जन्य न दर्शन, दर्शन की सत्ता स्वाधीन । अभिप्राय यह है कि वस्तुतः दर्शन ज्ञान चरित्र निधान - जीव स्वतः स्वाभाविक ही है, नहि पर कृत हैं वर्शन ज्ञान । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ समयसार-वैभव (३६०-३६१) व्यवहार नय से आत्मा अन्य द्रव्यों का ज्ञाता दृष्टा है इसका दृष्टांत पुरस्सर समर्थन यों निश्चय से प्रतिपादित है दर्शन ज्ञान चरण स्वाधीन । अब संक्षिप्त कथन सुनिये जो पर आश्रित व्यवहाराधीन । यथा भित्ति को निज स्वभाव से चना करता शुक्ल अशेष । त्यों ज्ञानी जायक स्वभाव कर अन्य द्रव्य शाता निःशेष । ( ३६२-३६३ ) चूना करता निज स्वभाव से दीवारें ज्यों श्वेत अशेष । त्यों ज्ञानी दर्शन गुण द्वारा अवलोकन करता निःशेष । यथा भित्ति को निज स्वभाव से चूना कर देता है श्वेत । त्यों ज्ञानी वैराग्य भाव से बाह्य वस्तु त्यागी अभिप्रेत । ( ३६४-३६५/१ ) चना निज स्वभाव से करता दीवारें ज्यों श्वेत अशेष । त्यों सुदृष्टि श्रद्धा करता है तत्यार्थों पर प्रिय ! सविशेष । एवं दर्शन ज्ञान चरण में अन्याश्रित होता व्यवहार । अन्याश्रित व्यवहार कथन सब होता रहता इसी प्रकार । (३६२) अभिप्रेत- मान्य । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुद्ध जानाधिकार ( ३६५/२ ) अन्य व्यवहार कर्तृत्व का स्पष्टीकरण निर्मित किया यथा गृह मैने अथवा किया दुग्ध का पान । विष त्यागा कंटक निकलाया आदि सर्व व्यवहार विधान । मै पर का ज्ञाता दृष्टा हूँ यह कथनी भी है व्यवहार । निश्चय से चेतन है निज का ही बस जानन देखन हार । ( ३६६-३६७ ) निश्चय से पर के कर्तृत्व का स्पष्टीकरण दर्शन ज्ञान चरित्र नहीं है जड़ इन्द्रिय विषयों में लेश । इनका धात क्या करें चेतन,इसका जब उनमें न प्रवेश । जड़ कर्मों में भी ज्ञानादिक गुण करते है नहीं प्रवेश । अतः जीव जड़ कर्मों का भी घात करेगा कैसे लेश ? ( ३६८-३६६ ) जड़ काया में भी रत्नत्रय होते नहीं रंच गतिमान् । अतः जीव काया का भी नहिं घात कर सके निश्चय जान । अज्ञानी प्रज्ञान भाव से करता रत्नत्रय का लास । पुद्गलादि पर द्रव्यों का वह कर सकता नहि रंच विनाश । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ समयसार-मय ( ३७०-३७१ ) अन्य द्रव्य के गुण धर्मो का अन्य द्रव्य में हो न प्रवेश । इसीलिये इन्द्रिय विषयों में हो सुदृष्टि को राग न लेश । राग, द्वेष, मोहादि विकारी-जीवों के परिणाम अभिन्न । शब्दादिक जड़ परणतियों से प्रकट राग द्वेषादिक भिन्न । ( ३७२ ) राग-द्वेष परिणाम निश्चय से जीव के ही हैं अन्य द्रव्य द्वारा न अन्य में गुण हो सकते है उत्पन्न । नित स्वकीय भावों से निश्चित द्रव्य हुआ करते निष्पन्न । राग द्वेष परिणाम तत्वतः जीव परिणमन है निन्ति । पुद्गल पर कर्त्त त्व रोपना है केवल उपचार नितांत । ( ३७३ ) इन्द्रिय विषयो मे राग-द्वेष जीब के अज्ञान से होते है शब्द वर्गणायें भाषा बन परिणमनी हैं विविध प्रकार । जीव जिन्हें सुन राग द्वेष कर सुखी दुखी बनता सविकार । इष्ट वचन सुन तुष्ट, किंतु प्रतिकूल सुन बनें रुष्ट महान । अहंकार ममकार मगन बन भव भव. भटक, रहा .अनजान । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुद्ध शानाधिकार १५२ ( ३७४ ) 'मझे यों कहा' यह विचार कर हर्ष विषाद करें मतिहीन । यह न समझता-शब्द पौद्गलिक जड़ परणति है ज्ञान विहीन । तुझे कुछ नहीं कहा शब्द ने, त क्यों रूस रहा नादान । शब्द रूप पुद्गल परणति में तव न हिताहित है अनजान । ( ३७५-३७६ ) शब्द शुभाशुभ तुम्हें न कहते-'हमें सुनो तुम देकर ध्यान'प्रोर न शब्द रूप परिणमता कभी जीव या उसका ज्ञान । 'मुझे देखिये' यों न रूप ने भी आकर की कभी पुकार, नहिं प्रवेश करता बर बस वह तेरे चक्षु पुटों के द्वार । ( ३७७-३७८ ) त्यों सुगंध दुर्गध न कहती उन्हें सूघने को कुछ बात, या न नासिका में प्रवेश कर बल प्रयोग करती वे, भ्रात ! रस भी कब दुनिया से कहता-मुझे चखो, मै हूँ स्वादिष्ट और न रसना से प्रालिंगन कर बनता वह इष्ट-अनिष्ट । (३४) सरहा-नाराज हो पहा । निहित स्थापित । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ समयसार वैभव ( ३७६-३८०) स्पर्श प्रिय अप्रिय भी नहि कहता कोई हमें छए लवलेश । वह बरबस लिपट नहिं पाकर या न गहों में करें प्रवेश । यों जड़ के गुण दोष न करते अाग्रह हमसे रंच, प्रवीण ! बुद्धि द्वार भी नहि प्रवेश कर गुप्त प्रेरणा करते दोन । ( ३८१-३८२ ) द्रव्य, शुभाशुभ जिन्हें मान हम जान रहे मग क्षण सविशेष । त्यागो, भोगो, जानो, या तुम ग्रहण करो, कहते नहि लेश । यह सुस्पष्ट भासता सब को, फिर भी मढ़ न होता शांत । समता सुधा पान तज विषयों में ही रमता चिर चिभ्रांत । ( ३८३-३८४ ) प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान का स्वरूप पूर्व शुभाशुभ कर्मोदय में हर्ष विषाद न कर, बन शांतउनसे अपना पिड छुड़ाना, प्रतिक्रमण है यही नितांत । कर्म बंध संभावित रहता जिन भावों के द्वारा म्लान । सम भावों से उन्हें विसजित करना ही है प्रत्याख्यान । (२८३) विणित करता त्याग करना । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुद्ध ज्ञानाधिकार १५४ ( ३८५-३८६ ) आलोचना और चरित्र का स्वरूप वर्तमान उदयावलि में जो कर्म, शुभाशुभ करें प्रवेश । उनमें राग द्वेष नहि करना, पालोचन है यही विशेष । पूर्व कर्म का प्रति क्रमण कर आगामी का प्रत्याख्यान । वर्तमान को समालोचना करना ही चरित्र महान । ( ३८७-३८८ ) दुःख बीज-कर्म और उसका कारण कर्म फलों को वेदन कर जो अपनाता उनको अनजान । दुःख बीज वसुकर्म मयी वह पुनः वपन करता है म्लान । कर्मफलों को वेदन कर जो उन्हें स्वकृत रहता है मान । दुःख बीज वसु कर्म रूप वह भी बो लेता है नादान । ( ३८६/१ ) जीव कर्म फल वेदन कर जब सुखो दुखी हो विसर स्वरूप । तब वसु कर्म बंध करता है, होता जो दुख-बीज विरूप । स्वाधित कर्म निवृत्ति हेतु सुन, उपयोगी संक्षिप्त विधान । जो निश्चय से पालोचन, प्रतिक्रमण और है प्रत्याल्यान । (३८६/१)विकप-सदोष । (३८६/२) समता-पूर्णता । (३८६३) लिनुद्ध-माल । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ समयसार-वैभव ( ३८६/२ ) आस्तविक आलोचन प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान का स्वरूप भूत, भविष्यत, वर्तमान में जितने पाप जान-अनजान-- मन-वचन-तन, कृत-कारित-मोदन द्वार हुए, हों-होंगे म्लान । उनमें तज ममता समग्रतः करना चिदानंदरसपान । यही वस्तुतः पालोचन है प्रतिक्रमण या प्रत्याख्यान । ( ३८६/३ ) ज्ञान, कर्म और कर्मफल चेतना चिदानंद रस लीन प्रात्म ही ज्ञान चेतना है स्वाधीन । राग द्वेषमय परणति ही है कर्म चेतना सतत मलीन । हर्ष विषाद मयी परणति हो सुख दुख कर्म फलों में वाम । वही कर्मफलमयी चेतना अप्रति बुद्धता का परिणाम । ( ३८६/४ ) चेतनात्रय का शुद्ध और अशुद्ध चेतना में विभाजन कर्म-कर्मफल उभय चेतना है अशुद्ध चेतन के रूप । ज्ञान चेतना ही निश्चय से निविकार शुद्धात्म स्वरूप । राग-द्वेष तज, सुख-दुख में जब जीव न करता हर्ष-विषाद । तब कैवल्य प्राप्त कर पाता चिदानंद का महा प्रसाद । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुरानाधिकार ( ३६० ) शास्त्रों से ज्ञान की भिन्नता ज्ञान-भाव श्रुत, शास्त्र-द्रव्य श्रुत, दोनों में भिन्नत्व अतीव । शास्त्र चेतना शून्य वस्तु है जो न स्वयं जाने निर्जीव । ज्ञान जब कि चैतन्य मयी है, शास्त्रों से जो भिन्न नितांत । यों शास्त्रों में ज्ञान सर्वथा भिन्न सिद्ध होता निर्धान्त । ( ३९१ ) ज्ञान की शब्दों से भिन्नता शास्त्र समान शब्द भी जड़ है, ज्ञान भाव से भिन्न महान । पुद्गल की व्यंजन पर्यायों में गभित है शब्द, निदान । शब्द जान सकता न तनिक भी, जब कि ज्ञान चैतन्य स्वभाव । यों पौद्गलिक शब्द से निश्चित ज्ञान भिन्न है स्वतः स्वभाव । ( ३९२-३९६ ) ज्ञान की आकृति एवं रूप रसादि से भिन्नता प्राकृतियां भी जितनी दिखती, वे क्या है ? पुद्गल संस्थान । चेतन का अस्तित्व न उनमें, अतः ज्ञान से भिन्न महान । प्राकृति या रस रूप, गंध वा स्पर्श प्रादि पुद्गल के वेश । ज्ञान सिद्ध नहिं हो सकते है-जिनमें नहीं चेतना लेश । (३९.) प्रतीव-बहुत ज्यादा । (३९२) संस्थान-रचना, प्राकार। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ समयसार वैभव ( ३६७-४०१ ) ज्ञान की पुद्गल कर्म एव धर्म अधर्मादि से भिन्नता कर्म भी नहीं ज्ञान बन सके जो पुद्गल परिणाम मलीन । ज्ञान चेतना का स्वभाव है, अतः भिन्न है वह स्वाधीन । पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल, नभ, ये सब चेतन शून्य नितांत । अतः ज्ञान से भिन्न सदा ही स्वतः सिद्ध हैं जड़ निर्धान्त । ( ४०२-४०३ ) अध्यवसानों से ज्ञान की भिन्नता अध्यवसान अचेतन हैं जो पुद्गल कर्मों से निष्पन्न । ज्ञान रूप परिणमन न वे भी कर सकते रह कर चिन्नि । चेतन ज्ञायक है स्वभावतः सतत ज्ञान सम्पन्न अनूप । ज्ञान रहा करता ज्ञानी से अव्यतिरिक्त तादात्म्य स्वरूप । ( ४०४ ) सम्यग्दर्शन, शुचि संयम या अंग पूर्वगत सूत्र महान । धर्माधर्म प्रवज्या ये सब ज्ञान समाहित हैं, मतिमान ! जीव न आहारक बन सकता-माना जिसने उसे अमूर्त । कर्म और नो कर्म पौद्गलिक सर्वाहार जब कि है मूर्त । (४०२) मध्यवसान-विकारी भाव। अव्यतिथि-मिन। . . Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुद्ध ज्ञानाधिकार १५८ ( ४०६ ) निश्चय से जीव पर वस्तु का त्याग ग्रहण नहीं करता स्वाभाविक या प्रायोगिक निज-गुण धर्मों से जीव कभी नपर का त्याग-ग्रहण करने को रखता है सामर्थ्य,प्रवीण । (४०७/१ ) एवं नहिं शुद्धात्म तत्वविद् वीतराग समदृष्टि उदारकिसी सचित्ताचित्त वस्तु का त्याग ग्रहण करता स्वीकार । निश्चय नय की दृष्टि निजाश्रित ही रहती है सतत अनन्य । तदनुसार निज भावों का ही त्याग ग्रहण करता चैतन्य । ( ४०७/२ ( व्यवहार नय से पर वस्तु का त्याग ग्रहण स्वीकृत है नय व्यवहार किंतु करता है पर के त्याग ग्रहण की बात । पर निमित्त आश्रित रहती है जिसको दृष्टि-सृष्टि अवदात । 'यह त्यागा, वह ग्रहण किया' यों भाव किया करता चैतन्य । किन्तु वस्तु का त्याग ग्रहण नहिं निश्चय नय में मान्य तदन्य । (४०७/१) तत्वविद्-तत्वमानी। (४०७२) प्रवात-निर्दोष । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैभव ( ४०८/१ ) निश्चय से शारिरिक लिग (वेश) मुक्ति मार्ग नही गृह या बन में परिग्रहीत जो देहाश्रित होते हैं वेश । मूढ़ उन्हें ही मान मुक्ति पथ रत हों, जिसमें तथ्य न लेश । गर्दभ सिंह नहीं बन सकता धारण कर उसका परिवेश । अंतर शुद्धि बिना त्यों जन को लिंग मात्र से मुक्ति न लेश । ( ४०८/२ ) यों भी निश्चय नय से चेतन ग्रहण न करता कुछ भी अन्य । तब कैसे ग्रहीत हो सकते देहादिक-जो पुद्गल जन्य ? जबकि देह का ही न त्याग या ग्रहण जीव को है स्वीकार । देहों के नाना वेशों को कर लें कैसे अंगीकार ? ( ४०६ ) पहन-तज परिपूर्ण देहगत अहंकार ममकार विकार । सम्यक्दर्शन ज्ञान चरण में रत हो पाते मुक्ति उदार । बाह्यभ्यंतर सर्व परिग्रह से बिहीन मुनि बन स्वाधीनमात्म साधना में रत होते प्रात्म सिद्धि के हेतु, प्रवीण ! Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुद्ध शानाधिकार ( ४१० ) इस प्रकार श्रीमन्जिनेन्द्र ने पाखंडी जो वेश अशेष-- या गृहस्थ के विविध वेश है, उन में तथ्य न पाकर लेश-- दर्शन ज्ञान चरित्र मयी ही स्वाश्रित मुक्ति मार्ग निर्धार-- घोषित किया भालिंगी को समयसार सम्प्राप्त्याधिकार । ( ४११ ) वस्तुतः शारिरिक वेश शुक्ति मार्ग न होकर रत्नत्रय ही मुक्तिमार्ग है प्रतः संत ! सागार तथा अनगारों के शारीरिक वेश-- सर्व प्रात्म से भिन्न समझ कर मुक्ति मार्ग में करो प्रवेश । मुक्ति मार्ग जिन कथित सुनिश्चित सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान । सम्यक्चरित नाम से व्यवहृत स्वात्मस्थिति, रुचि, ज्ञप्ति महान । ( ४१२ ) आत्म-संबोधन चेतन ! तू प्रज्ञापराधवश कब से बना हुआ दिग्भात ? अब भी चेत, स्वात्म संस्थितिकर, मुक्ति पथ-पथिक बन निर्धान्त केवल उस ही का चितन कर, उसमें कर सानंद विहार । पर द्रव्यों भावों वेशों में उलझ न भ्रमवश कर ममकार । (४१०) पाषंडी-मुनि के बाद्य बेश । (४११) सागार-गृहस्य । अनगारों-साधुनों । शाप्ति-जानमा, शानभाव। (४१२) प्रमापराध-महानता अन्य भाव । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार वैभव ( ४१३ ) सागारों या अनगारों के बाह्य वेश जो विविध प्रकार । उनमें मोहित जन क्या जाने पावन समयसार अविकार ? भावलिंग बिन द्रलिंग में अहंभाव घर हुआ विमूढ़ । वह परमार्थ शून्य तंडल तज तुष संचय करता है मूढ़ । ( ४१४/१ ) व्यवहारनय मोक्ष मार्ग में दोनों लिगों का वर्णन करता है नय व्वहार किंतु करता द्वय लिंग मुक्ति पथ में स्वीकार । द्रव्य-लिंग को भावलिंग का सहचारी सम्यक् निर्धार । परमार्थो को मुनि श्रावक के उभय लिंग पड़ते अनुकूल । अतः इन्हें स्वीकृत कर भी वह इनमें हो जाता नहि फल । (४१४/२ ) "मैं हूँ श्रमण या कि श्रावक हूँ" यूँ कर अहंकार ममकारभावलिंग से शुन्य जन कभी पा न सके संसृति का पार । निश्चय नय को नहिं अभीष्ट है किंचित् भी बहिरंग विचार । इससे यह न समझना-रहता अर्थ शून्य जिनलिंग उदार । (४१३) तुष-छिलका । (४१४१) व्य-दो । लिंग-शारीरिक बाह्य वेश । मालिंग-मात्मा के भावों में बालविक निता। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुद्ध जानाधिकार १६२ ( ११४/३ ) "तथा दुराशय यह मत लेना-मनि बनना है व्यर्थ समानहम स्वछंद विचरण कर निश्चय नय से कर लेंगे कल्याण।" जो स्वछंद विचरण करता वह मार्ग भ्रष्ट व्यवहार विहीननिश्चय पथ से बहुत दूर है ' स्वैराचारी सतत मलीन । ( ४१४/४ ) श्रावक-श्रमण वृत्ति या तप, व्रत, संयमादि नहि व्यर्थ, निदान । निश्चय पथ में परम सहायक बन करते जो जन कल्याण । इन्द्रिय विषयासक्त, पापरत, पाखंडी, व्यसनों में चूरशठ से रहती प्रात्म साधना-सत्समाधि सब कोसों दूर । ( ४१४/५ ) जबकि पाप सह विषय वासना विषका सम्यक कर परिहार । द्रव्यलिंग मुनि-श्रावक का गह पाता व्यक्ति समय का सार । अभिप्राय यह है कि समन्वित नय सुदृष्टि द्वारा सविशेषतत्व समस्त निष्पक्ष भाव से समयसार में करो प्रवेश । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार-वैमव ( ४१४/६ ) निरपेक्ष ज्ञान एवं क्रिया नय से मुक्ति नहीं मिल सकती । मात्र ज्ञान नय पक्ष ग्रहण कर जो स्वछंद बन रहा नितांत । क्रिया पक्ष की निंदा करता, वह डूबेगा-गह एकांत । त्यों ही केवल क्रियाकांड में जो रत रहता ज्ञान विहीन । वह संस्मृति में ही भटकेगा भ्रांत पथिक बेचारा दीन । ( ४१७/७ ) मुक्ति कौन प्राप्त करता है ? किंतु वासना पाप कषायों का मन वच तन कर परिहार-- जो मुनि ज्ञान क्रिया मैत्री गह समदर्शी बन रहें उदार । स्याद्वाद कौशल कर निश्चल संयम साधन में बन लीन । भवसागर से हो जाते है पार परम योगीन्द्र प्रवीण । इति सर्व विशुद्ध शानाधिकारः अत मगल ( ४१५ ) समयसार वैभव असीम है, झलक मात्र यह ग्रंथ, निदान । इसे मनन कर प्रथम तत्व को जो यथार्थ कर वर पहचानश्रद्धारत रम रहे उसी में कर वर चिदानन्द रसपान । उन्हें मुक्ति साम्राज्य सहज ही हो जाये संप्राप्त महान । इति श्री समयसार-वैभव ग्रन्थ समाप्तम् Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 अंतिम प्रशस्ति श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्द ने प्रात्म विभव प्रकटा अम्लान - समयसार चिर ज्योति जगाई जगती पर जिनवचन प्रमाण / भगवन्नमृतचन्द्र श्रीमज्जयसेन सूरि गुरुवर्य उदार / प्रात्मख्याति तात्पर्यवृत्ति रच उसी तत्व का किया प्रसार / (2) विद्वद्वर जयचन्द्र सुधी ने लिखकर भाषा में भावार्थ-- प्रात्मख्याति कृति पुनः सरल कर भव्यजनों को किया कृतार्थ / प्रिय ! इन सब पर आधारित यह समयसार वैभव परमार्थजैसा कुछ बन सका गूंथकर प्रस्तावित है लोक हितार्थ / इस नवीन कृति का निमित्त बन स्याद्राद नय कर अभिराम / वस्तु तत्व का कियाविवेचन अनेकांत मय 'नाथूराम' गुरु सिद्धांत शास्त्रि विद्वधर जगमोहन ने प्रथम महान - तद्गुरू स्याद्वाद वारिधि श्री वंशीधर ने पुनः प्रमाण - नय सुदृष्टि से परिशीलन कर बृहत् साधु श्रम किया प्रवीण ! तदनंतर यह कृति प्रामाणिक बन मुद्रित है सार्वजनीन / यदि त्रुटियां हों सुधी सुधारें, अल्पज्ञों से हों बहु भूल / शब्द अर्थ, पद, मात्रा या फिर भाव समझने में अनुकल / श्री दि० जैन मारवाड़ी मंदिर विनीत शक्कारशाजा इन्दौर माधुराम डोंगरोय जैन ( न्यायतीर्थ )