________________
२७
समयसार-वैगन
(४६/१४) निश्चय निरपेक्ष व्यवहार भी व्यवहाराभास है । निश्चय को अलक्ष्य कर करते केवल पुण्य क्रिया अविराम । ख्याति, लाभ, पूजाहित-धार्मिक अनुष्ठान रत रहें सकाम । वे व्यवहाराभासी तप कर भी न मुक्त हों लक्ष्यविहीन । संसृति में स्वर्गादि प्राप्त कर रह जायें बेचारे दीन ।
( ४६/१५ )
हेयोपादेय विवेचन शुद्ध, शुभ, अशुभ भावत्रय में उपादेय सर्वथा हि शुद्ध । शुद्ध न हो संप्राप्त, तदा शुभ उपादेय होता अविरुद्ध । किन्तु अशुभ सर्वथा हेय है श्री जिनेन्द्र के वचन प्रमाण । अतः अशुभ तज शुभ प्रवृत्ति कर लक्ष्य शुद्ध का ही श्रेयान् ।
हेयोपादेय का निर्णय परिस्थिति पर निर्भर उपादेय या हेय व्यक्ति की योग्यतानुगत है व्यवहार । जो चलता नित द्रव्य, क्षेत्र, कालादि परिस्थिति के अनुसार । उपादेय नौका ज्यों उसको, डूब रहा हो जो मझधार । वही हेय बन जाय स्वयं, जब हो जाता है बेड़ा पार । (46/14) ख्याति-नामवरी, यश । व्यवहाराभासी-नकली व्यवहार (मिथ्यात्व युक्त) आचरण करने वाला । लक्ष्यविहीन-आत्म सिद्धि के उद्देश्य से शून्य । (46/15) भावप्रय-तीन प्रकार के भाव । उपादेय-ग्रहणकरने योग्य; अविश्व-निविरोष । हेप-छोड़ने
योग्य । श्रेयमान-कल्याणकारी । (46/16) योग्यतानुसार-पात्रानुसार।