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________________ समयसार-वैभव ( २०४/३ ) एक भ्राति और उसका निराकरण । कुछ जन कहते - 'जीव सर्वथा ही विशुद्ध है सूर्य समान । केवलज्ञानमयी होकर भी बाहय् दृष्टि ही दिखता म्लान ।, यह भ्रम है प्रिय ! यतः विकृतिरत बद्ध जीव नहिं शुद्ध प्रबुद्ध । अज्ञानी असंयमी पर्यय-दृष्टि कर्म संश्लिष्ट अशुद्ध। ( २०४/४ ) जीव किसी नय से शुद्ध और किसी नय से अशुद्ध स्याद्वाद द्वारा _ सिद्ध होता है। शुद्ध नयाश्रित जीव शुद्ध है इतर नयाश्रित वही अशुद्ध । अनेकांत दर्शन सुसिद्ध है स्याद्वाद नय कर अविरुद्ध । द्रव्य दृष्टि से प्रात्म-प्रात्म है अन्य द्रव्यभावादि विहीन । अतः शुद्ध है, पर अशुद्ध वह राग द्वेष रत रहै मलीन । ( २०५ ) भव्यात्म-सबोधन भव्य ! चाहता यदि कर्मों से मुक्ति और पावन पद प्राप्ति । तदि ज्ञायक भावाश्रयले तू, जिससे हो कृत बंध समाप्ति । कायक्लेश आदिक अनेक विध तपश्चरण कर भी अजान । वीतराग विज्ञान विना नहि पावे पद निर्वाण महान । (२०४/३) संश्लिष्ट-चिपक कर एकमेक मिले हुए पूध पानी के समान हो जाने वाला।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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