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________________ १२३ समयसार-वैभव ( २८७१ ) अधःकर्म-उद्देशिक है प्राहार मात्र पुद्गल परिणाम । दोष तदाश्रित अपने कैसे निश्चय कर हो सकते वाम ? ज्ञानी मन वच तन कृत कारित मोदन से कर तत्परिहार । किंचित् राग द्वेष नहि करता असन पान में रह अविकार । ( २८७२ ) अधः कर्म से उत्पादित हो या उद्देशिक हो प्राहारजानी यह विचारता इनका पुद्गल ही है बस प्राधार । यह मुझ कृत कैसे हो सकता जो कि प्रकट पुद्गल परिणाम ? यों विज्ञान विभव बल से वह बंध न कर, पाता विश्राम । ( २८७/३ ) ज्ञानी साधु को आहारादि क्रिया में बंध क्यों नहीं होता ? ज्ञानी साधु निरोहवृत्ति रख करता जो आहार विहार । उससे उसे बंध नहिं होता जिनवाणी करतो निर्धार । आहारादि क्रिया में होता जो प्रमाद किंचित् तत्कालउससे उसे बंध भी किंचित् होता है; नहि किंतु विशाल । (२८७/३) निरीह पत्ति-विषयवासनामा ऐहिक कामना से रहित इति।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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