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समयमारक्य
( ३१०) जीव द्रव्य अन्य द्रव्य का कार्य या कारण नहीं है यतः कभी भी नहीं किसी से जीव द्रव्य होता उत्पन्न । अतः कार्य वह अन्य द्रव्य का बंधु ! न हो सकता निष्पन्न । तथा जीव नहिं अन्य द्रव्य-गुण पर्यय का करता निर्माण । प्रतः न कारण भी वह पर का मान्य हुमा-होगा मतिमान ।
कर्ता कर्म की सिद्धि परस्पराश्रित है कर्माश्रित कर्ता, कर्ताश्रित-कर्म नियम से हों निष्पन्न । हो सकता निश्चित न अन्यथा कर्त्ता-कर्म भाव सम्पन्न । कर्म विना कर्ता नहिं सम्भव, त्यों न कर्त विन कर्म विचार । परस्पराश्रित ही चलता है कर्ता और कर्म व्यवहार ।
(३१२ )
आत्मा की दुर्दशा क्यों है ? यह प्राणी अज्ञान दशा में कर्म प्रकृतिवश हुमा विपन्न । नित नूतन कर विकृति स्वतः ही होता नष्ट और उत्पन्न । सुख-दुख कर्म फलों में रत हो यह करता रागादि विकार । तन्निमित्त पा कर्म रूपधर पुद्गल परिणमता साकार । (३१२) विपन:-विपत्ति या संकट में पड़ा हमा।