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________________ समयसार-मन ( १९७२ ) है सुदृष्टि में निहित शक्तियाँ ज्ञान और वैराग्य महान । प्रौदामीन्य भावरत रह वह विषय विरत रहता अम्लान । वीतरागता से परि लावित अन्तदृष्टि स्वस्थ स्वाधीन । रहता बंध विहीन, किंतु नित रागी करता बंध नवीन । ( १६८ ) माम्यक्दृष्टि का म्व-पर में सामान्य प्रतिभास श्री जिन कथित विविध कर्मों के है विपाक मय जो परिणाम, मम स्वभाव नहि वे समग्रतः मैं इकज्ञायक भाव ललाम । यों संदृष्टि सतत रहता है प्रात्मसाधना में तल्लीन । वीतराग दर्शन प्रसाद से उसके होते बंधन क्षीण । ( १९६ ) सम्यक्दृष्टि का म्व-पर मे विशेष प्रतिभास पुद्गल कर्म विपाक जनित जो होते है रागादि विभाव । नहि कदापि ये ममस्वभाव है, मम स्वभाव चिर ज्ञायकभाव । रागद्वेष मोहादिक जितने भी संभव है आत्मविकार । व सब ममस्वरूप नहि, मै हूं ज्ञानानंदमयी अविकार । ( १९७/२) परि सावित-इमा हुना। (१९८) समग्रत. पूर्ण रीति से । मम-मेरे । (१६६) प्रतिमास-मान।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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