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________________ बंध-अधिकार ११६ ( २६६ ) लोकालोक, जीव पुद्गल वा धर्माधर्म काल सम्भ्रांत । अध्यवसानों द्वार मानता - मेरे है सब द्रव्य नितांत | मारक भव घर बनें नारकी - श्वान योनि घर माने श्वान । श्रात्म स्वरूप भूल ग्रम करता, फिर भटकता बना प्रजान । ( २७० ) अध्यवसानों के अभाव में बंध का अभाव जिन मुनिवर के अस्त होगई अध्यवसानों की संतान । उन्हें तनिक भी कर्म बंध का अवसर नहि आता है म्लान । हिंसन, कर्मोदय, ज्ञेयार्थज, होते जो संकल्प विकल्प | इन्हें नहीं करते जो यतिवर उन्हें कर्म रज लगे न स्वल्प । ( २७१ ) अध्यवसान का स्वरूप प्रध्यवसान वही जो होते वैभाविक परिणाम मलोन । नामांतर इनके निम्नांकित प्रागमोक्त हैं भ्रष्ट प्रवीण ! बुद्धि, चित्त, व्यवसाय, भाव, मति, परिणामाध्यवसान । एक अर्थ वाचक हैं सब ही उपर्युक्त परणतियां म्लान । (२६६) श्वान - कुला । (२७०) हिंसन-हिंसा के कार्य । शेथार्थज-ज्ञान के विषय मूत पदार्थों से उत्पन्न होने वाला ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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