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( ३३४ ) पुण्य कर्म से जीव स्वर्ग में करता है सानंद निवास । पाप कर्म से पीड़ित होकर नरकों में करता वह वास । मर्त्य लोक में तर तन पाकर भी पाता दुख जीव प्रतीव । कर्म शुभाशुभ के प्रसाद से नाना रंग बदलता जीव ।
( ३३५ ) एकांत रूप में कर्म का कत्तत्व मानने में हानि इष्टानिष्ट वस्तुएं सब ही कर्म जीव को करें प्रदान । सब संयोग वियोग कर्म कृत, इससे कर्म महा बलवान । यों तथोक्त यदि कर्मों को ही लीला मानी जाय नितांत । जीव तदा एकांत अकर्ता ही ठहरा तव मत से, मोत !
( ३३६ ) नारी वेद सजन करता है पुरुषों से रमने का भाव । पुरुष बेद त्यों ही नारी से रमने का करता दुर्भाव । परम्परागत प्राचार्यों की यह श्रुति हो करलें यदि मान्य । विषयवासनादिक जीवों कृत हो जाती तब स्वयं अमान्य । (३३५) तथोक्त-इस प्रकार ऊपर कही गई, वणित । वारसारा।
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