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________________ सर्व विशुशानाधिकार १४२ १४२ ( ३३७-३३८ ) कोई फिर अब्रह्मचारी भी नहीं रहा तव उक्ति प्रमाण । अमुक वेद जब इतर वेद का इच्छुक मान किया श्रद्धान । यों ही जब परघात नाम की एक प्रकृति करली स्वीकार । जो कि बार करती तदन्य पर विविध भांति कर तीव्र प्रहार । ( ३३६-३३४० ) उपर्युक्त कर्तृत्व का सिद्धात स्वीकार करने मे दोषोद्भावन इसीलिये हिंसक नहिं तब फिर ठहरेगा कोई भी जीव । यतः प्रकृति ही अन्य प्रकृति की घातक ठहर रही निर्जीव । इस प्रकार जिन जिन श्रमणों को स्वीकृत हुप्रा सांख्य सिद्धांत । उनके यहां प्रकृति ही कर्ता, जीव अकर्ता ठहर, भांत ! ( ३४१-३४२ ) कुछ अन्य भ्रमों का निराकरण अथवा स्वयं प्रात्म ही अपने द्वार प्रात्म में करे विकार । ऐसा मान्य किये भी मिथ्या ठहरेगा तव उक्त विचार । यतः असंख्य प्रदेशी शास्वत नित्य मान्य है प्रात्म नितांत । उसमें कुछ भी होनाधिकता लाना शक्य किसे ? मतिभ्रांत !
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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