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________________ समयसार-वैभव ( ३४३-३४४ ) जीव लोक व्यापी बन सकता स्वीय य प्रदेश प्रसार । उन्हें हीन या अधिक कौन करने समर्थ तब किसी प्रकार ? यदि चिद्ज्ञायक ज्ञान स्वभावी कर लेते हो तुम स्वीकार । तदा न संभव आत्म मात्र में आत्म द्वार, रागादि विकार । ( ३४४२ ) जीव में कूटस्थ नित्यता संभव नहीं मिथ्यात्वादि मलिन भावों को करता किन्तु जीव अज्ञान ; अतः न उनका कर्ता कसे मानेगा फिर तु ? अनजान ! नहि कूटस्थ नित्य में संभव हो सकता नूतन परिणाम । अतः नित्य वत् वह अनित्य भी सिद्ध कथंचित् है चिद्धाम । ( ३४४१३ ) जीव की अनेकांतात्मकता ज्ञायक चित् सामान्य दृष्टि से प्रादि अंत विन ज्ञान स्वरूप । किंतु विशेष दृष्टि परिणामी सादि सांत है वही अनूप । अनेकांत सिद्धांत वस्तु को स्वयं सुरुचिकर है, मतिमान ! हम तुम क्या कर सकें, जब कि सत् अनेकांत मय है सप्रमाण । (३४) कूटस्थ-जिसमें कुछ परिवर्तन न हो। (३४/३) चित-मात्मा।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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