SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अतः प्राचार्य श्री की उल्लिखित चेतावनी को ध्यान में रखकर ही हमें जिनवाणी (समयसार) का निष्पक्ष भाव से अध्ययन कर उसके मर्म को समझने-समझाने का प्रयत्न करना चाहिये। वस्तुतः निश्चय व्यवहार प्रादि नय साध्य न होकर तत्वज्ञान के साधन है। हेय और उपादेय का निर्णय तत्वज्ञान का फल है । वस्तु स्वयं निश्चय व्यवहारात्मक (द्रव्य पर्यायात्मक) है । इसीलिये जब वह किसी एक नय की मुख्यता से प्रतिपादित होती है तब इतर नयप्रतिपाद्य विषय का गौण हो जाना भी उसके अनेकान्तात्मक स्वरूप के कारण म्वाभाविक ही है । ऐसी दशा में कोई भी नय, चाहे वह निश्चय हा या व्यवहार इतर नय सापेक्ष बना रह कर ही विवक्षावण अपनी बात को आशिक सत्य के रूप में प्रकट कर सत्याश का प्रतिपादक माना गया है, जब कि निरपेक्ष कोई भी नय एकान्त परक होने मे मिथ्यकान्त की कोटि मे चला जाता है । इस ग्रथ का प्रतिपाद्य विषय व्यवहार सापेक्ष निश्चय (शुद्ध) दृष्टि प्रधान है, जो कि ग्रंथ कर्ता के एकत्व विभक्त स्वरूप प्रात्म तत्व का दिग्दर्शन कराने के अपने प्रारभिक प्रतिज्ञात उद्देश्य के अनुरूप ही है । माथ ही यह भी कि प्रतिपाद्य विषय, अथकर्ता के अनुसार उन परमभावदर्शी महान मन्त पुरूषो को न केवल प्रयोजनीय, प्रत्युत आश्रयणीय भी है, जिन्हे वास्तव में भेद विज्ञान पूर्वक स्वानुभूति सप्राप्त है और जिनकी माधना अपनी सर्वोत्कृष्ट मीमा को पहुच चुकी या पहुँचने वाली हैं और जिनकी वृत्तिया राग द्वेष विहीन होकर परमवीतरागता की ओर उन्मुख है। किन्तु जो साधक अभी तक उस परम समरसी भाव या भावना से दूर प्राथमिक दशा मे ही विद्यमान है, उन्हें निश्चय सापेक्ष व्यवहार नय ही नितान्त प्रयोजनीय है । प्रत. इस सबंध में वक्ता की श्रोता की पात्रता अपात्रता पर ध्यान रखना भी परम आवश्यक है । अन्यथा प्राथमिक दशा में विद्यमान व्यक्तियों का समयसार की शुद्धनय प्रधान वाणी से प्रभावित होकर अपने आपको (रागी,द्वेषी, मोही होते हुए भी ) सर्व दृष्टि से ज्ञानी या शुद्ध, बुद्ध, निरजन, निर्विकार रूप मे अनुभव करने लगने से श्रीयुत, विद्वहर म्व. कविरत्न प. बनारसीदास जी के समान उन्ही के शब्दो मे 'ऊँट का पाद' ' बन जाने की सम्भावना को टालना कठिनहै । अस्तु, १. “करनी की रम मिट गयो, भयो न प्रातम स्वाद । भई 'बनारमि' की दशा-जथा ऊँट को पाद।।५९५॥" ---अर्द्ध कथानक (प. बनारसीदासजी की प्रात्मकथा)से साभार
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy