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________________ अर्थात् जो शिभ्य व्यवहार और निश्चय के रहस्य एव स्वरूप को भलीभांति समझ कर तत्व के विषय मे निष्पक्ष भाव की शरण ले कर मध्यस्थ (न्यायाधीश-जज) बन जाता है (किसी एक नय का दुराग्रह नही करता) बही जैन शासन के रस्हय को भली भांति समझ कर उसके मधुर फल को परिपूर्ण तया प्राप्त होता (सम्यक्ज्ञानी बन कर कल्याण का पात्र बनता ) है। प्राचार्य श्री की उल्लिखित चेतावनी की और यदि हम तनिक भी ध्यान दे तो अपने सकुचित दृष्टिकोण से उत्पन्न व्यर्थ की खीच तान के समाप्त होने में तनिक भी देर न लगे, किन्तु मोही जीव के महामोह की महिमा ही निराली है ! वह यहां भी जिज्ञासुभाव का परित्याग कर मोह के कुचक्र मे फँस जाता है और तत्वज्ञान एवं उसके साधनो (नयो और प्रमाणो) के विषय में भी राग द्वेष की शरण लेकर अपने चिर कालीन अज्ञान भावकी ही किसी न किसी रूप मे पुष्टि करने लग जाता है । जब वह भ्रम वश निरानिश्चयकान्त, व्यवहारकान्त अथवा उभयकान्त का प्राश्रय लेकर एक अभिभाषक (वकील) की तरह वीतराग भगवान् की अनेकान्तमयी वाणी को निरपेक्ष एकान्त रूप में प्रतिपादन करता हुआ भी उसे अनेकान्त और अपनी वाणी को स्याहाद घोषित करने का दुसाहस करने लगता है, तब स्थिति और भी विचारणीय बन जाती है । * ऐसे मोही शिष्यो को दृष्टि में रखकर ही उन्हे चेतावनी देते हुए प्राचार्य श्री को अपने उक्त प्रथ पुरुषार्थसिद्धयुपाय के मध्य मे पुन सावधान करना पड़ा। वे लिखते हैं: "अत्यन्त निशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नय चक्रम् । खंडयति धार्यमानं मूर्षानं मटिति दुविदग्धानाम् ।" प्रर्थात श्री जिनेन्द्र का नय चक्र अत्यन्त तीक्ष्ण धारवाला होने के कारण बड़ी ही सावधानी से प्रयोग करने योग्य है, क्योकि जो मूर्ख बिना समझे बुझे प्रसावधानी से इसे धारण करते-प्रयोग करते या खींचतान करते हैं उनके मस्तक को यह तुरंत ही विदीर्ण कर डालता है।"
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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