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समयसार का स्वाध्याय करते समय उसके कुछ ही प्रशों का अध्ययन करने पर मुझे स्वत ही कुछ प्रातरिक प्रेरणा उत्पन्न हुई कि मूलपथ एव टीकामो के भावो पर आधारित सरल राष्ट्र भाषा मे निष्पक्ष भाव से एक काव्य की रचना की जावे-जो स्वात सुखाय होते हुए, अध्यात्म प्रेमी अन्य धर्म बन्धुनो को भी नयो की सापेक्ष दृष्टियो से जिन प्रणीत तत्वो के स्वरूप का यथार्थ मे भान करा सके । फलत प्रयास प्रारभ किया गया और अनेक विघ्न बाधाओं को पारकर प्रथम जीवाजीवाधिकार का निर्माण कार्य सपन्न हो गया । इस बीच जब कुछ अध्यात्म रसिकवन्धुमो ने इसका अवलोकन किया तो उन्होने इस रचना को उपयोगी ममझकर किमी भी दशा में पूर्ण करने का आग्रह किया जिसके फलस्वरूप यह “ममयमार-वैभव" आप मब की मेवा में प्रस्तुत करते हुए प्राज मुझे बडे हर्ष का अनुभव हा रहा है।
परमागम का प्राण अनेकान्त है जो विभिन्न नयों की परस्पर विरुद्ध दृष्टियो का समन्वय कर वस्तु तत्व की यथार्थता को स्याद्वाद द्वारा प्रकटकर सम्यक्ज्ञान का आधार माना गया है । अन इस ग्रथ मे अनेकात पद्धति का अनुसरणकर ही वस्तु स्वरूप का विवेचन किया गया है । यद्यपि ग्रथ का परिपूर्ण विषय मूल अथ कर्ता तथा टीकाकारो के यथार्थ भावो एवं अभिप्रायो पर ही माधारित हैं, किन्तु "को न विमुह्यति शास्त्र समुद्रे" प्राचार्यों की इस उक्ति के अनुसार अत्यन्त सावधानी वर्तते हुए भी यदि त्रुटिया रह गई हो तो उनकी और सप्रमाण सकेत करने तथा प्रस्तुत ग्रन्थ के सबध में अपनी शुभ सम्मति एव सत्परामर्श शीघ्र ही भिजवाने के लिये विद्वज्जन एव पाठक गण विनम्रभाव से प्रामत्रित हैं-ताकि द्वितीय सस्करण में उनका सदुपयोग हो सके ।
अन्त मे मै पूज्य गुरुवर्य, अध्यात्म मर्मज्ञ, समाज के मूर्धन्य एवं प्रतिष्ठित विद्वान्, श्रीमान् प. जगन्मोहनलाल जी सिद्धातशास्त्री, प्रधान व्यवस्थापक शाति निकेतन कटनी (जिला जबलपुर) तथा प्रधान मत्री भारत दि जैन सघ, (चौरासी मथुरा)का अत्यन्त प्राभार मानता हूँ कि जिन्होने तत्परता के साथ इस रचना का प्रारभ मे परिशीलन कर त्रुटियो को निरस्त करने में अपना बहुमूल्य योगदान प्रदान कर मुझे अनुग्रहीत बनाया एव मेरे अनुरोध को स्वीकार कर इस प्रथ की सारगर्भित विद्वत्तापूर्ण विस्तृत भूमिका (प्राक्कथन) लिखने की भी कृपा की, जिसमे एक प्रकार से समयसार का सार ही निचोड कर रख दिया गया है। इसके लिये मेरे साथ समाज भी उनका चिर ऋणी रहेगा।