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अपराधी जीव बँधता और निरपराध मुक्त होता है
चौर्य आदि अपराध शील जन कर कुकर्म पाता नहि शांति । कहीं न बाँधा मारा जाऊं ! यों रहती मन घोर अशांति । जहां कहीं जाता रहता है प्राशंकाओं से प्राक्रांत । पापी मन में परितापों से पीड़ित रहता निपट प्रशांत ।
( ३०२-३०३ ) जो धर्मी अपराध न करता वह रहता सर्वत्र निशंक । देश विदेश विचरता, उसको रोके-कौन जान निकलंक । त्यों चेतन बंधन में पड़ता जब भी करता वह अपराध । निरपराध रह वही मुक्ति पा करता पूर्व प्रमत्म की भाव।
(३०)
अपराध का स्वरूप व नामातर
राष, सिद्ध, साषित, पाराधित या संसिद्धि प्रादि सब नाम । एक अर्थ बाचक है, इनमें अर्थ भिन्नता सनिक न वाम । कर पर का परिहार स्वात्म की सिद्धि-साधना ही है राध । जो हो राध रहित बह निश्चित ही कहलाता है अपराध ।