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जीवाजीवाधिकार
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दृष्टात देशांतर प्रति किसी पथिक ने अमुक मार्ग से किया प्रयाण । उसे लुटेरों ने मिल लूटा, लोक कहें व्यवहार प्रमाण'अरे ! मार्ग यह महा लुटेरा' किन्तु मार्ग प्राकाश प्रदेश-- कभी किसी को लूटेंगे क्या ? यह केवल उपचार अशेष ।
व्यवहार से जीव मूर्तिक है त्यों नो कर्म कर्म में होते वर्ण प्रादि गुण धर्म अनंत । जीवों को तद्वंध दशा में मूर्तिमंत कहते भगवंत । यह व्यवहार कथन है केवल निश्चय का करने परिज्ञान । बद्धजीव मूर्तिक शरीर से हो जाता संज्ञात, निदान ।
व्यवहार से संयोगज भाव जीव के ही है वर्ण समान गंध, रस, स्पर्श, अरु संहनन वा नाना संस्थान, बंध, उदय, अध्यात्म-मार्गणा-योग-विशुद्धि-संक्लेश स्थान । जीवस्थान, गुणस्थानादिक जो जीवाश्रित है संल्श्रिष्ट ।
वे व्यवहार दृष्टि से सम्यक जैनागम द्वारा निर्दिष्ट । (58) देशांतर-दूसरा देश । प्रयाण-प्रस्थान । (59) नोकर्म-शरीर ।कर्म-ज्ञानावरणदि रूप कर्म परमाणु ।तबंध वशा-कर्म बंधन की हालत ।संज्ञात-ठीक ठीक जाना हुआ।
(60) संधिष्ट-मिले हुए । निर्दिष्ट-कहे गये।