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समयसारमा
( १४८ ) दृष्टांत द्वारा पुण्य पाप कर्मों का निषेध बुद्धिमान जब अनुभव करता-अपना सहयोगी मक्कारया चरित्र से हीन व्यक्ति है, उसे छोड़ते लगे न वार । वह ठुकरा कर उसे न करता फिर उससे संसर्ग नवीन । भाषण भी करना न चाहता, उदासीन बन रहे प्रवीण ।
( १४६ ) कर्म प्रकृति टगिनी अनुभव कर त्यों ही ज्ञानी साधु महान । प्रकृति मात्र को हेय जान कर करता है परित्याग समान । यथा चतुर वनहस्ति हस्तिनी को लख कामातुर भरपूर । निज बंधन का हेतु समझकर उससे रहता दूर हि दूर ।
( १५० )
बध-मुक्ति कब और किस प्रकार ? जीव कर्म बंधन से बंधता बन रागादि विकाराक्रांत । वर विराग वंभव प्रसाद पा-पाता मुक्ति वही निर्धान्त । सार भूत भगवज्जिनेन्द्र का यही दिव्य संदेश महान । प्रतः न किंचित् कर्मजाल में कभी उलझना ए मतिमान !