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________________ पुण्य पापाधिकार ७२ ( १५१ ) वीतराग शुद्धात्मतत्व ही समयसार है ब्रह्म स्वरूप । मुनि, ज्ञानी, केवलि कहलाता वही शुद्ध चैतन्य अनूप । चित्स्वभाव संस्थित योगी जन स्वानुभूति का कर रसपान । नित्य निरंजन निर्विकार बन पाते पद निर्वाण महान । ( १५२ ) मुक्ति के लिये स्वानुभूति का कितना महत्व है ? दृढ़ प्रतिज्ञ बन, व्रत धारण कर पालन करता शील निदान । दुर्धर तप करता अरण्य में, सहे परीषह अतुल महान ! किंतु नहीं दुर्भाग्य वश हुवा जिन्हें प्राप्त परमार्थ प्रवीण । उन्हें कहाँ से मुक्ति मिलेगी, जो है स्वानुभूतिरसहीन ? है परमार्थ ज्ञान से जिनको शून्य, दृष्टियां राग मलीन । वे व्रत नियमशील पालन या तप धारण कर भी है दीन । उन्हें मुक्ति संप्राप्त न होती बाह्यवृत्ति में रहकर लीन । परमसमाधि-लीन मुनि पाते-त्वरित मुक्ति-सुस्थिर स्वाधीन । (१५१) संस्थित-स्थिर स्वानु ति-प्रात्मानुभव । (१५२) अरण्य-वन । (१५३) त्वरित-शीघ्र।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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