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समयसार-वैभव
ग्रंथकर्ता का संकल्प भव भ्रमणा में नानारूपों को धारण कर वर चिद्रूपभिन्न भिन्न प्रतिभासित होता, उसे एक अविभक्तस्वरूपदर्शाता हूँ-युक्त्यागम, गुरु-ज्ञान, स्वानुभव-विभव प्रमाण । दरशजाय--करले प्रमाण, पर चुकजन्य छल ग्रहें न जान।
(६/१ ) ___शुद्ध नय से आत्म स्वभाव प्रदर्शन स्वतः सिद्ध अनुपम अनादि से अंतहीन जो ज्ञायक भाव। वही शुद्ध नय को सुदृष्टि से कहा आत्म का शुद्ध स्वभाव । वह प्रमत्त-अप्रमत्त नहीं, ये है सब कर्मजन्य परिणाम। निर्विकल्प चिज्ज्योति स्वानुभव-गम्य, रम्य, वह वही ललाम ।
(६/२ ) यहाँ आत्मा को शुद्ध किस दृष्टि से कहा गया ? मात्म शुद्ध कहने का केवल अभिप्राय यह यहाँ प्रवीण ! अन्य सकल परद्रव्य भाव से चेतन को सत्ता स्वाधीन । वर्तमान में यह न समझना-हम पर्यायदृष्टि भी शुद्ध। जीवन में रागादि विकृति के रहते प्रात्म न शुद्ध, न बुद्ध । (5) चिप-आत्मा । प्रतिभासित-प्रतीत । अविभक्त-भेद रहित । युक्त्यागम-पक्तिमागम, तर्क एवं आप्त वचन । (6/1) प्रमत्त-कषायवान । विज्योति-पैतन्य ज्योति ।
रम्प-रमण करने योग्य (6/2) सत्ता-अस्तित्व ; बुद्ध-पानी ।