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जीवाजीवाधिकार
समय का स्पष्टीकरण--लक्षण व भेद 'समय' जीव चैतन्यमयी है-सुख सत्ता सम्पन्न ललाम । इसके स्व-पर भेद इसकी ही परणतियों का है परिणाम । 'स्वसमय' जीव वही-जो सम्यक्वर्शन ज्ञान चरण में लीन । रागद्वेष मोहादि विकृति-रत जीववृन्द 'परसमय' मलीन ।
स्व-पर समय की वास्तविकता एक, शुद्ध, निश्चयगत, शाश्वत प्रात्मतत्व अनुपम अभिराम, पावन है सर्वत्र लोक में इसको स्वाधित कथा ललाम । जीव-कर्मबन्धन को गाथा, विसंवाद करती उत्पन्न । पर समयाश्रित भेद तत्वतः इससे ही होता निष्पन्न ।
ससारी जीव की दशा मोह पिशाच ग्रसित उलझे हैं, भवकुचक्र में जीव अनंत । काम भोग को बंध कथायें सुनें चाव से नित हा! हन्त !! तन्मय हो रम रहे उन्हीं में मत्त दन्तिवत् विसर स्वरूप । कभी शुद्ध चैतन्य न जाना, सुना न अनुभव किया अनूप । (2) संपन-पुक्त । ललाम-सुन्धर । परिणति-शुद्ध-अशुद्ध भाव रूप परिणमन । परिगाम-फल । विकृति-विकार । वृन्द-समूह। (3) शुख-पर से भिन्न । स्वामितमात्मा पर आधारित । निष्पन्न-सिद्ध। (4) असित-पीड़ित । हंत-अफसोस ।
मत्तवन्ति-मतवाला हापी । बिसर-भूलकर।