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________________ समयसार-मंग ( ३१७ ) शास्त्र पाटी होकर भी अभव्य मिथ्यादृष्टि ही बना रहता है । चिर प्रज्ञान भाव संस्कारित रह कर सदा विकाराक्रांत - भली भांति कर शास्त्र अध्ययन भी अभव्य रहता दिग्नांत । दुग्धपान कर भी ज्यों निविष प्रकृति दोष वश हों न भुंजग । त्यों अभव्य प्रज्ञान भाव वश परिहरता नहिं प्रकृति कुसंग । ज्ञानी की कला निराली है ... ज्ञानी रह संसार, देह, भोगों से उदासीन स्वाधीन - सुख दुख केवल कर्मोदय कृत मधुर कटुक फल जान मलीन - ज्ञाता दृष्टा बन परिणमता, तन्मय हो लेता नहि स्वाद । स्वानुभतिगत निजानंद का पाकर सम्यक् महा प्रसाद । ( ३१६ ) ज्ञान चेतना का परिणाम कर्म-कर्मफल शन्य चेतना जिसकी हुई ज्ञान में लीन । वह न कर्म कर्ता या उनका फल भोक्ता-रहकर स्वाधीन । सुख-दुख मान कर्मफल ज्ञानी, उनसे कभी न करता प्यार। पुण्य-पाप द्वय कर्म बंध भी करता नहि वह समता धार । (३१७) प्रकृति-स्वभाव । (३१८) कृत-कर्म के मानावरगादि भेद ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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