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________________ लाधिकार १३६ ( २.) मानी को परिणति शानी का वर ज्ञान चक्ष सम केवल जाने तत्व विशेष । बंध-मोक्ष निर्जरा आदि या कर्म जन्य सुखदुःख अशेष । इन में रत हो कभी न भोक्ता और न कर्ता बनें प्रवीण । नश जाता है मान ज्योति से उसका तम प्रज्ञान मलीन । कों को आरम परिणाम का कर्ता मानने में दोष सुर, नर, असुर, चराचर सबकी सृष्टि विष्णु कर्ता यों मानचलते कर्त्तावादी, स्यों यदि श्रमणों का भी हो श्रद्धान । यह कि प्रात्म ही षट्कायों का-संसृति में कर्ता निर्माण । कर्तावादी बत् श्रमणों का ठहरा तब सिद्धांत समान । ( ३२२ ) पर कर्तृत्व स्वीकार करने में सैद्धांतिक हानि विष्णु वहां जीवों का स्रष्टा-श्रमण रच देहों के वेश । यों दोनों को लजन क्रिया कर सिद्ध हो रहा राग द्वेष । राग द्वेष बिन मूर्ख व्यक्ति भी करता नहिं किंचित् ज्यों काम । सृष्टि और देहों को रचना संभव हो कैसे निष्काम ? (३२१) भमणों व शिपया साधु । संमृति-संसार परिवार।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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