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समयसार-
समय
( १७७ ) सम्यक्दृष्टिजीव के होते राग द्वेष मोहादि न म्लान । मलिन भाव बिन केवल प्रत्यय प्रास्रव हेतु न हों, मतिमान ! जब तक अपने भाव विकारी करे न चेतन, तावत् लेश-- कर्म वर्गणाओं से किचित् बँधते नहि सर्वात्म प्रदेश ।
( १७८ )
आस्रव और बध के कारण ज्ञानावरणादिक वसु कर्मों के बंधन में कारण चार--- मिथ्या दृक् , कषाय, अविरति सह योग प्रात्म के प्रमुख विकार। इनका कारण पूर्वबद्ध कर्मों का उदय कहा भगवान् । इनकी अनुपस्थिति में होते कभी न प्रास्त्रव-बंधन म्लान ।
( १७६ ) यथा मनुज के उदर मध्य जो जाता अन्न-पान-माहारजठर अग्नि के माध्यम से वह परिणमता है विविध प्रकार। रस से रुधिर मांस मज्जा वा वसा अस्थि वीर्यादिक रूप। विविध भांति स्वयमेव परिणमित सप्त धातु मय हों तद्रूप। (१७७) सर्वात्मप्रदेश-मात्मा के सम्पूर्ण प्रदेश ।