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________________ फिर्माधिकार ( ७३/२ ) शुद्धात्म भावना का परिणाम यों शुद्धात्म भावना रत हो जीव स्व-पर तत्वार्थ पिछान-- पर संकल्प विकल्प जाल से होकर मुक्त, स्वस्थ, अम्लानअंतरात्म बन करता जब वह अनुपम चिदानन्द रसपान स्वतः उसी क्षण नूतन प्रास्त्रव-बंधन का होता अवसान । (७४/१ ) ज्ञानी के आस्रव सम्बन्धी विचार जीव बद्ध प्रास्त्रव का होता अपस्मारवत् दुष्परिणाम । प्रास्लव प्रधा व-जीव ध व प्रास्रव ज्वरवत् दुखमय, चित् सुखधाम । जीवशरण ये अशरण-इकक्षण उदय काल रुक सकें न दीन । प्राकुलता उत्पादक प्रास्त्रव, प्रात्मस्वभाव विकलता-हीन । ( ७४/२ ) नरकवास ज्यों दारुण दुःखमय प्रास्त्रव का भीषण परिणाम । सुख-सत्तासम्पन्न चेतना अनाद्यंत अनुपम अभिराम । प्रात्मतत्त्व यों अनुभव करता जब प्रास्रव से भिन्न नितांत । तब ज्ञानी बंधन से होता-सहजनिवृत्त, निराकुल शांत । (74/1) दुष्परिणाम-परा मतोजा, खोटा फल। अपस्मारवत्-मिरगी रोग-जिसमें स्मरणशक्ति नष्ट हो जाती है। विकलता-आकुलता, दुल । अध्रुव-अस्थायी । (4/2) अभिराम-सुन्दर । मनाचत-आदि अन्त रहित ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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