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समयसार-वैभव
(३६०-३६१) व्यवहार नय से आत्मा अन्य द्रव्यों का ज्ञाता दृष्टा है इसका
दृष्टांत पुरस्सर समर्थन यों निश्चय से प्रतिपादित है दर्शन ज्ञान चरण स्वाधीन । अब संक्षिप्त कथन सुनिये जो पर आश्रित व्यवहाराधीन । यथा भित्ति को निज स्वभाव से चना करता शुक्ल अशेष । त्यों ज्ञानी जायक स्वभाव कर अन्य द्रव्य शाता निःशेष ।
( ३६२-३६३ ) चूना करता निज स्वभाव से दीवारें ज्यों श्वेत अशेष । त्यों ज्ञानी दर्शन गुण द्वारा अवलोकन करता निःशेष । यथा भित्ति को निज स्वभाव से चूना कर देता है श्वेत । त्यों ज्ञानी वैराग्य भाव से बाह्य वस्तु त्यागी अभिप्रेत ।
( ३६४-३६५/१ ) चना निज स्वभाव से करता दीवारें ज्यों श्वेत अशेष । त्यों सुदृष्टि श्रद्धा करता है तत्यार्थों पर प्रिय ! सविशेष । एवं दर्शन ज्ञान चरण में अन्याश्रित होता व्यवहार । अन्याश्रित व्यवहार कथन सब होता रहता इसी प्रकार । (३६२) अभिप्रेत- मान्य ।