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निर्जराधिकार
( २११)
जबकि परिग्रह इच्छा ही है, चाहे वह हो किसी प्रकार । यूं न पाप को बांछा करता संज्ञानी जो विरत-विकार । क्रोध मान माया लोभादिक राग द्वेष मिथ्यात्व निदान । सब संकल्प विकल्प व्याधितज निज,में रम रहता, मतिमान !
( २१२--२१३ )
असन पान की चाह अंततः इच्छा ही है एक प्रकार । अतः व ज्ञानी असन पान की इच्छा कर बनता सविकार । यद्यपि असन पान करता वह, किंतु निरच्छ रहे तत्काल । अनासक्त रहता ज्ञायक बन पात्म साधना लीन त्रिकाल ।
( २१४ )
इस प्रकार ज्ञानी के होता सर्व परिग्रह का परित्याग । इच्छात्रों का दास न बनकर, धारण करता पूर्ण विराग । बाह्य विषयचिता विमुक्त हो पावन परमानंद स्वरूपस्वानुभूति रस पान मगन बन ध्याता वह चिद्रूप अनूप ।