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________________ समयसार-वैभव ( २३०/१ ) सम्यक्दृष्टि की निष्कांक्षिता मक्ति साधना हेतु निरंतर धर्माराधन कर अभिराम । अनासक्त बन कर्मफलों की चाह न कर रहता निष्काम । पर में सुख भम से होती है विषयों की बाँछा उत्पन्न । अतः न पर विषयों का बांछक होता वह सुदृष्टि सम्पन्न । ( २३०/२ ) अनासक्त से ही होते है बन्द कर्म बन्धन के द्वार । कर्म निजर्रा भी उसके ही होसकती जो विरत विकार । विषयों में सुख मान हो रहा उनमें जो पासक्त निदान । सम्यक्दृष्टि व्यक्ति वह कैसा ग्रंथ पठन कर भी अनजान ? SP ( २३१/१ ) उच्च-नीच,निर्धन-समृद्ध या रुग्ण-स्वस्थ पर्याय विकारसमुत्पन्न होते है जितने भी जीवन में विविध प्रकार । तथा शुभाशभ स्पर्श गंध रस रूप पौद्गलिक परणति जान । इष्टानिष्ट कल्पनायें कर वह सुदृष्टि नहि बनता म्लान । (२३१/१) रुग्ण-रोगी। होते है जितप पौद्गलिक लता म्लान ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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