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समयसार-वैभव
( ३०७/३ )
इस संबंध में प्राति का निराकरण यह न समझना प्रतिक्रमणादिक सर्व दृष्टि है धर्म विरुद्ध । यतः विकल्प दशा में मुनि को वे प्रावश्यक हैं अविरुद्ध । हो जाने पर दोष न करता यदि मुनि प्रतिक्रमण कर शुद्धि । है सविकल्प दशा में यदि वह तब मुनि ही न रहा दुर्बुद्धि ।
( ३०७/४ ) परम समाधि दशा में होते सर्व शुभाशुभ भाव विलीन । व्यवहाराश्रित धर्म क्रिया सब हो जाती निश्चय में लीन । स्वानुभति में रमण करें या प्रतिक्रमण में देखें ध्यान ? स्वानुभति तज प्रतिक्रमण में चित्तवृत्ति ही पतन महान ।
इति मोक्षाधिकारः