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करे, कर्मोदय का अवलंबन न करे तो कर्म निमित्त नहीं बन सकता और ऐसी स्थिति में यह बीच अपनी उस स्वपरणति का कर्ता भोक्ता होगा जो उसने अपने पुरुषार्थ से अपने में प्रकट की है। कर्म का न कर्ता होगा और न भोक्ता होगा। यही रत्नत्रय का रूप है। जो उसके मोल मार्ग का (संसार बंधन के तोड़ने का) हेतु है। बंधन को वह अनर्थ परंपरा इस प्रकार (बग्घबीजवत्) स्वयं समाप्त हो जाती है। इसे ही मोक्ष कहते हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिए व्यक्ति को शुभ और अशुभ दोनों पर निमित्त जन्य परणतियों का त्याग कर शुद्ध परणति का अवलंबन करना चाहिए, जो स्वाधीन है। शुभरूप परिणाम पुण्यबंध के कारण हैं और अशुभरूप परिणाम पाप बंध के कारण है । बंध को अपेक्षा दोनों समान है। इस बात के प्रतिपावन हेतु तृतीय अधिकार
पुण्य पापाधिकार को आचार्य श्री ने लिखा है । इस अधिकार में यह निर्देश किया है कि जीव के भाव तीन प्रकार है-शुब, शुभ और अशुभ । मोह राग-द्वेष रूप विकारों से रहित आत्मा के जो परिणाम हैं वे शुद्ध भाव हैं, इन भावों से जीव को कर्म बंध नहीं होता, ये मोल के लिए साधन भूत है । तथा दान-पूजा-प्रताविक शुभ कार्यों के निमित्त से जो आत्म परिणाम होते है ये शुभ भाव हैं, इनका फल पुष्पकर्मका बंध है । और मिथ्यात्व के परिणाम तथा विषय कषाय के कारण हिंसादि पापरूप व भोगादिरूप परिणाम है ये अशुभ भाव हैं, जिन का फल पाप कर्म का बंध है।
पुण्य कर्म के उदय से देव मनुष्यादि गति तथा तत् संबंधी सांसारिक इन्द्रिय अन्य सुख की प्राप्ति होती है, और पाप कर्म के उदय से जीव नरकतिर्यञ्चगति व तत् संबंधी विविध प्रकार के दुःख प्राप्त करता है।
सर्व संसारी जीवों की प्रवृत्ति अधिकतर पापमय होती है, जिसके फल स्वरूप उन्हें कुयोनियों में दुःख भोगना पड़ता है, अतः पाप को छोड़कर पुष्प करना उत्तम माना गया है। शास्त्रकारों ने प्रथमानुयोगादिप्रंथों में पुण्य की बहुत महिमा गाई है, तथापि मोक्ष मार्ग की दृष्टि से दोनों ही बाधक हैं। पुण्य पाप दोनों बंधन है, एवं बंधन मोक्ष का