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ईश्वर-पर आत्मा या जड़-कर्म इसके परिणमन के कर्ता भोक्ता नहीं है। अपनी वर्तमान अशुद्ध परणति का कर्ता एवं उसके फलका भोक्ता स्वयं जीव है, और उसे परिवर्तित कर अपनी शुद्ध परणति रूप परिणमन का कर्ता और भोक्ता भी जीव ही होगा । अन्य पदार्थ नहीं।
यद्यपि प्रत्येक प्रकार्य के परिणमन में पर प्रव्य निमित्त होता है, तथापि निमित्त उस परणति का कर्ता नहीं होता । किसी पदार्थ को परणति किसी दूसरे पदार्थ को परणति में अनुकूल पड़े तो वह 'निमित्त' संज्ञा पाती है, उसे "निमित्त कारण" कहते हैं।
निमिस अपनी पर्याय रूप प्रवर्तता है । तथापि उसकी पर्याय अनुकूलता म से पर द्रव्य की परणति में सहायक (सह-ग्यते, साप साथ चलना) होती है। इसी से उसे निमित्त कहते है । वह पर का कार्य स्वयं नहीं करता।
यदि वह परका कार्य करे तो उसे उसकी स्वयं की परणति और परपरगति-नोनों का कर्ता होने से द्विकिया कर्तृत्व-प्रसंग आयगा, इसका निषेध पंथ में किया है। यदि ऐसा माना जाय कि निमित्त हो पर का कार्य करता है और उसकी परगति का कर्ता कोई अन्य निमित्त है, तो उस निमित्त की परमति का कर्ता भी कोई भम्ब निमित्त होगा, तब अनवस्था बोष आयगा। फलतः तर्क से भी यह सिड है कि किसी अन्य की परमति का कर्ता पर प्रब्य नहीं होता। प्रत्येक द्रव्य अपनी अपनी परणति का स्वयं का है। और यह परिणमन द्रव्य का स्वभाव है। स्वभाव उसे कहते हैं जिसके होने में पराभयता न हो।
इतना निर्णीत हो जाने पर भी प्रश्न अपनी जगह बड़ा है-कि जीव अशुद्धयोंहमा? और शुख कैसे होगा? उत्तर यह है कि जीव अपने पूर्व में बांधे हुए कर्मोदय के निमित से स्वयं रागी देषी बनता है, और अपने इन राग देवादि परिणामों के निमित से नवीन कर्म बंध करता है। पुनः कालान्तर में इन बड कर्मों के उदय के निमित्त से रागी वेषी होता है और फिर इन विकृत परिणामों से कर्मबंध करता है । ऐसी परंपरा बीज बुलवत या पिता पुत्र वत् अनादि से चली आ रही है।
यदि जीव गुरु के उपदेश और मागम के अभ्यास से स्वस्वरूप का मानकर, अपने में कर्मोदय की स्थिति वर्तमान रहते हुए भी उसे निमित्त नबनावे, अपने स्वरूप कामवचन