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प्रतिष्ठा का परित्याग कर न केवल स्वयं को, किन्तु अपने अनुयायी अन्य हजारों बंधुनों को शुद्ध दिगम्बर जैन धर्म का प्रसाद देकर प्रात्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया है। इन्होंने समयसार पर अपने स्वतंत्र प्रवचन भी लिखे हैं एवं यत्र-तत्र भ्रमण कर समयसार पर ही प्रचवनकर उसका प्रचार-प्रसार भी किया है। दिगम्बर जैन समाज में जो जगह २ स्वाध्याय की (प्रायः बद सी) प्रवृत्ति एव जागृति दिख रही है वह इसीका परिणाम है।
उक्त स्वामीजी संभवतः प्राज भी समयसार का १७ वीं या अठारहवीं बार स्वाध्याय कर रहे है। वर्तमान युग के अधिकांश विद्वानों ने उनके उदयकाल के बाद ही अध्यात्म का अध्ययन प्रारंभ किया है। प्राज साधारण व्यक्ति भी स्वाध्याय में समयसार' ही उठाता है। ग्रंथ का यह सब प्रचार देखकर प्रसन्नता होती है। तथापि यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि प्रध्यात्म को पचाने की शक्ति हर स्तर के व्यक्ति में नही हुमा करती। उसके लिये स्यावाद नीति के नय विवेचन का परिमान होना नितांत आवश्यक है। इसके बिना मार्ग बिगड़ सकता है। इस परिपुष्ट पाहार को पचाने वाला सामर्थ्यवान होना चाहिए।
इस तथ्य का अनुभव कर ही इन्दौर नगरी के प्रख्यात विद्वान् (पूर्व में मंगावली (ग्वालियर निवासी) श्री पं. माथूरामजी न्यायतीर्थ ने (जो अपने पूर्वजो के मध्यप्रदेश के डोंगरा ग्राम के वासी होने से "डोंगरोय" उपनाम से समाज में प्रसिद्ध हैं और जिन्होंने पूर्व में जैनधर्म, प्रावि कई पुस्तके लिखी है ) समयसार का यह प्राधुनिक राष्ट्रीय भाषा हिन्दी के पयों में निर्माण प्रयास कर इसे "समयसार वैभव" के नाम से प्रस्तुत किया है। इस प्रथ में उन्होंने 'जनी नीति' (स्याबाब) को ध्यान में रखकर ही बरतु विवेचन किया है। अनेक स्थलो पर, जहां प्रायः यह संभावना विसी कि इसे पढ़कर पाठकों की कुछ गलत धारणा हो सकती है, ग्रंथ के हार्द को खोलने का पूर्ण प्रयास किया है। रचना सुन्दर है और पंडितजी का यह प्रयास स्तुत्य है। अथ पाठको के सामने है। प्राशा है वे इससे लाभान्वित होंगे।
कटनी, २१-१-१९७०
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