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पं. जयचन्द्रजी संस्कृत भाषा के निष्णात विद्वान थे। उनको टीका संस्कृत टीका का शुद्ध अनुवाद है साथ ही भावार्थ भी है। अभी तक को छपी हिंदी टीकाएं केवल. उनको टीका का ही भाषा की दृष्टि से परिमार्जन मात्र है। उससे सुन्दर कोई स्वतंत्र टीका नहीं लिखी गई।
भगवान् कुंदकुंद की वाणी कितनी लोकप्रिय एवं प्रामाणिक सिद्ध हुई है, इसका इतिहास साक्षी है। सदियों पूर्व पं. बनारसीदासजी ने स्वयं समयसार के कलशों पर "समयसार नाटक" छन्दबद्ध किया है, साथ ही अपने प्रात्म चरित में यह भी लिखा है कि हमारी एक शैली थी जिसमें अनेक विद्वान् इसका पारायण करते थे।
प्रारभ में इसका स्वाध्याय कर पंडितजी अपने को शुद्धबद्ध मानकर संपूर्ण धर्मकर्म से बहिर्मुख हो गए थे, उन्होंने अपनी दुर्दशा का स्वयं प्रात्मचरित में चित्रण किया है, तथापि जब वस्तु को ठीक समझा तो स्वयं मार्ग पर लगे और दूसरों को लगाया। पंडित प्रपर तोडरमलजी ने भी इस पंथ । गहन अध्ययन किया था जिसकी छाप "मोलमार्ग प्रकाश" नामक उनके ग्रंथराज पर स्पष्ट दिखाई देती है।
वर्तमान युग में 'समयसार' के प्रध्येता कारंजा (बरार) के मट्टारक मे, पर उनका अध्ययन ग्रंथ को पढकर वेदान्त को मोर झुका हुआ था। मेरे पिता गोकुलप्रसास्ती, ब. शीतलप्रसादजी, पूज्यवर्णी श्री गणेशप्रसादजी श्रीमंत सेठ गोपालसाजी सिल्ली, जिन्होने समयसार पर स्वतंत्र प्रवचन लिखा है, श्री पयुम्नसावजी कारंजी प्रादि अनेक अध्यात्मरस के रसिक मेरे परिचय में पाए हैं। ___ श्री शुल्लक कर्मानन्दजी ने भी समयसार की गापामों का अर्थ लिखा है। पूज्य श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णों द्वारा लिखित समयसार प्रवचन श्रीवर्णी ग्रंथमाला द्वारा अभी प्रकाशित हुआ है। पूज्यवर्णोजी इस युग की महान् विभूति थे सारा जीवन अध्यात्म के अध्ययन में ही व्यतीत हुआ है । हजारों व्यक्तियों ने उनके द्वारा धर्म लाभ लिया है। श्री १०८ दिगम्बर मुनिराज ज्ञानसागरजी ने भी समयसार की तात्पर्यवृत्ति पर सुन्दर टीका लिखी है, जो अभी अभी प्रकाश में पाई है।
श्री कानजी स्वामी सोनगढ़, श्री रामजी माई, श्री खेमजीभाई प्रावि उनकी शिष्यमंडली भी इस युग में समयसार के विशिष्ट अध्येता हैं। श्री कानजी स्वामी ने उक्त पंपराज के प्रभाव से ही अपनी पूर्व श्वेताम्बर तेहपंथी माम्नाय की साधुत्व अवस्था तथा