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________________ ४३ समयसार-वैभव (८१) निश्चय से जीव और पुद्गल में कर्ता कर्म सबध नही । पुद्गल के गुण पर्यायों का कर्ता रंच नहीं चैतन्य । और न चेतन के गुण पर्यय है पुद्गल कर्मो से जन्य । किन्तु परस्पर उभय द्रव्य में है निमित्त नैमित्तिक भाव । जिसका यह परिणाम दिख रहा द्रव्य भावगत राग विभाव । (८२ ) जीव निश्चय से अपने ही भावो का कर्ता है । स्वाभाविक ही चेतन अपने भाव स्वयं करता निष्पन्न । सकल पौद्गलिक कर्म-भाव वह नहि कदापि करता उत्पन्न । शुद्ध भाव ज्ञानी करता है, अज्ञानी रागादि विकार । ज्ञानावरणादिक का का कहना है केवल उपचार । (८३/१ ) . जीव निश्चय से अपने भावो का ही कर्ता-भोक्ता है, किन्तु उसके विकारी भावो में कर्मोदय निमित्त होता है । इस प्रकार निश्चय से चेतन अपने ही करता परिणाम - शुद्ध अशुद्ध मिश्र परणतियाँ जो कुछ भी होती अविराम । भोक्ता भी वह अपने भावों का ही रहता है त्रय काल । किन्तु तहाँ पुद्गल कर्मोदय भी निमित्त रहता तत्काल । (81) द्रव्य भावगत-पुद्गल के परमाणुओं और आत्मा में उत्पन्न होने वाला। विभाव-विकार।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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