________________
१२७
समयसार-वैभव
( २६४-२६५)
बधन हेय एवं आत्म स्वभाव उपादेय है। नियत स्वलक्षण से विभिन्नता प्रज्ञाकृत होती है सिद्ध : बद्ध कर्म जड़ भाव लिये है, ज्ञानमयो चैतन्य प्रसिद्ध बंधन निश्चित पारतन्त्र्य का ही प्रतीक है दुख की खान । अतः हेय है, किंतु स्वात्म है उपादेय सुख शांति निधान ।
( २६६ )
शुद्धात्म स्वरूप का ग्रहण कैसे हो? शुद्ध स्वात्म हम भगवन् ! कैसे ग्रहण करें सम्यक् निर्धार ? भव्य ! सदा प्रज्ञा द्वारा ही प्रात्म ग्राह्य होता साकार । भिन्नज्ञात ज्यों हुआ बंध से पाल तत्व अनुपम अभिराम । प्रज्ञा से ही ग्रहण करो त्यों तव विशुद्ध चिद्रूप ललाम ।
( २६७ )
मै कौन और कैसा हू ? प्रज्ञा से जो ग्रहण किया है सच्चिद्रप स्वस्थ अम्लान । मैं ही हूँ वह तत्व वस्तुतः परंज्योति विज्ञान निधान । मम स्वभाव से सर्व भिन्न है वैभाविक परिणाम मलीन । में निज में निजकर निज के ही लिये ग्रहण के योग्य प्रवीण । (२६४) प्रशाहत-जाम से संपन ।
-
-