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सर्व विशुद्ध ज्ञानाधिकार
( ३२६ ) एवं ज्ञानी भी जब पर में करता अहंकार ममकार । निश्चित मिथ्या दृष्टि बन रहे वह परात्मवादी साकार । इससे यह भी जाना जाता उक्त सृष्टि कर्त्त त्व निदान । भांति मात्र है, यतः जगत का है शास्वत अस्तित्व महान ।
( ३२७ ) पर मे कर्ता कर्म का व्यवहार मात्र उपचार है ज्यों सुदृष्टि-संप्राप्त विज्ञजन तजता पर ममत्व परिणाम । वह तथव कर्तत्व अन्य का नहि धारण करता, निष्काम । पर मै कर्त-कर्म का चलता जो लौकिक जन गत व्यवहार । वह परमार्थ दृष्टि में दिखता केवल आरोपित उपचार ।
( ३२८ ) पौद्गलिक कर्म जीव को वास्तव मे विकारी नही बनाता यदि मिथ्यात्व प्रकृति जीवों को-मिथ्यादृष्टि बनाती म्लान । तब यह सिद्ध हुआ कि प्रकृति में ही रहता कर्त्त त्व, निदान । जीव नहीं अपराध करे तो उसे न होगा बंध नवीन । बंध-बिना संसार प्रक्रिया का हो जाये अंत, प्रवीण !