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________________ भोपते हुए भी नहीं भोगता । इसका कारण यह है कि सुल दुलादिका वेवन शान के आधार पर हो तो होता है, जब ज्ञानी अपना उपयोग कर्म के उदय जन्य सुख दुखादि पर न लगाकर अपने स्वरूप में ही लगाता है तब उसे 'उपभोग' संज्ञा ही नहीं दो सकती। इसी अभिप्राय से लिखा गया है कि "सम्यग्दृष्टि भोगते हुए भी नहीं भोगता" कर्म निर्जरा का यही एकमात्र उपाय है । इसीलिये इस प्रकाश में आचार्य उपवेश करते है कि "तुम अपने इसी शानभाव में प्रीति करो, इसी में सन्तुष्ट होओ, नित्य इसी में स्थिर होमो, और इसी में तुष्टि का अनुभव करो, तुम्हें उत्तम सुख की प्राप्ति अवश्य होगी। इसके पश्चात् सांतवां अधिकार है बन्ध-अधिकार बंध के कारण रागादि विकारी भाव है। उनके होने पर अवश्य-बंध होता है और रागादि के न होने पर कर्मबंध नहीं होता। मिथ्या दृष्ट जीव नाना प्रकार के कार्यों को करता हुआ अपने उपयोग को रागादिमय करता है, अतः बंधक होता है। रागादि अध्यवसान को ही अज्ञानभाव "बंधक-भाव" कहा गया है। उसके (कषायभाव के) सद्भावमें की गई क्रियाएँ बंधक कही जाती है और उसके अभाव में की गई क्रियाएँ अबंधक । जो क्रिया मात्र को बंधक कहते हैं उनका कथन युक्ति युक्त नहीं है । उदाहरण के लिए यहां बताया गया है कि__"जो व्यक्ति ऐसा मानते हैं कि मै दूसरों की हिंसा करता हूँ, या मैं दूसरों को प्राणदान बेकर दया करता हूँ। मै दूसरो को दुखी सुखी बनाता हूँ अथवा मेरो हिसा दूसरा कर सकता है, वह दया भी कर सकता है। मुझे दुखी सुखी कर सकता है"तो यह मान्यता मिथ्या है। कोई किसी को न मार सकता है, म जिला सकता है, न दुखी सुखी कर सकता है। प्रत्येक प्राणी अपनी आयु के उदय में जीते हैं, उसके क्षय से मरते हैं, अपने शुभाशुभ कर्मोवब से सुखी- दुखी होते हैं । ऐसी मान्यता ही सत्य है।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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