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कर्ता-कर्माधिकार
( ११२/३ ) देखें जब परमार्थ दृष्टि ये जीवरूप नहि दिखें नितांत ।
और न पुद्गल रूप बंधु ! वे शद्ध दृष्टि में रहें नितांत । किन्तु सूक्ष्म निश्चय कहता है एक बात गंभीर महान । अज्ञानोद्भव कल्पित ही है रागद्वेष परणतियाँ म्लान ।
( ११२/४ ) इसका यह तात्पर्य कि जो जन मन में धारण कर एकांत इन्हें जीव के ही कहता या कहता-पुद्गल के, वह भ्रान्त । ज्यों संयोगज पुत्र में नहीं, पति पत्नी का हो एकांत । त्यों रागादिक परणतियाँ भी संयोगज ही है निन्ति ।
भव्य ! जीव में ज्यों है दर्शन ज्ञान रूप उपयोग अनन्य । त्यों यदि जीवमयी ही होवें क्रोध मान रागादि अनन्य । तब फिर जीव और पुद्गल में हुई एकता ही सम्पन्न ।
यों अजीव एवं सजीव में अनन्यत्व होगा निष्यन्न । (11213) अज्ञानोभव-अशाम से उत्पन्न होने वाले। (11214) संयोगज-संयोग से
उत्पन्न । (113) अनन्य-अभिन्न, तादात्म्य संबंध वाला।