________________
समयसार-वैभव
( २५०-२५१ )
मैं पर को जीवन दूं या पर मुझको देवे जीवन-दान । यों भम बुद्धि जिसे है, वह ही मिथ्या मति है मढ़ महान । उदय प्रायु का यतः जहाँ तक तावत् रहता जीवन, मित्र ! आयुदान तु नहि करता, तब जीवदान की बात विचित्र ।
( २५२-२५३ )
उपरोक्त कथन का पुन समर्थन । आयु उदय में ही जोते है जब कि जीव जिन वचन प्रमाण । आयदान कर सके न कोई, अतः न पर कृत जीवन दान । एवं निज को पर का, पर को निज का सुख-दुखदाता जानजो होता संमूढ भांति वश-वह ज्ञानी कैसा, प्रज्ञान ?
( २५३-२५४ ) ज्ञानी की श्रद्धा यथार्थ ही यूं रहती निर्धान्त नितांत । सुख दुख-पूर्व कर्म कृत फल हैं, नहिं पर दत्त उभय सम्मांत । जीवन-मरण, हानि लाभादिक जब स्वकर्म फल सिद्ध, निदानफिर क्यों कर्म फलों का दाता समवश बन, करता अभिमान ? (२५०/२५१) तावत्-तब तक । (२५३) निभात-भ्रम रहित ।