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जीवाजीवाधिकार
(४८ ) त्यों रागादि विकारी भावों-मय होते जो अध्यवसान । उन्हें जीव कह दर्शाया है श्री जिनने व्यवहार विधान । एक चेतना जो व्यापक है अध्यवसानों में अविराम । निश्चय नय से वही जीव है, यहाँ भेद पाता विश्राम ।
( ४६ ) शुद्धनय से आत्म तत्त्व का निरूपण (आत्मा क्या है) मरस, अरूप ,अगंध, स्पर्श विन, चिद्विशिष्ट, अव्यक्त, महान । शब्दहीन, जिसका न लिंग है, अनुपम, अनिर्दिष्ट संस्थान । जीव वही चेतन अविनाशो अन्तस्तत्व, स्वस्थ, अम्लान । सहजानंद स्वरूपी, सम्यक् दर्शन ज्ञान चरित्र निधान ।
( ५० )
आत्मा क्या नही है? रूप नहीं, रस नहीं, गंध नहि, और नहीं है स्पशमशेष । नहि नारक, नर, सुर, पशुमय है, जितने शारीरिक परिवेश । समचतुरस्र, स्वाति, कुब्जक या अन्य नहीं कोई संस्थान । बज्रवृषभनाराचादिक भी नहि संहनन चैतन्य सुजान । (48) अध्यवसान-जीव के विकारी भाव । (49) चिविशिष्ट-चैतन्यमयी। अनिविष्ट-जिसका निर्देशन न किया जा सके (अनिर्वचनीय) । संस्थान-आकार। अंतस्तत्वआम्यंतर सार वस्तु । (50) परिवेश-वेष्टन । संहनन-हाड़ियों का बंधन विशेष ।