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भूमिका
इस गतिमान्, अस्थिर, विषम एवं दुःलमय संसार में आत्मा के उसार का एकमात्र उपाय आत्म स्वरूप का यथार्थ परिमान है । 'समयसार' उसका प्रतिपादक अधिकृत ग्रंथ है। 'समय' शम्ब शुद्ध द्रव्य का वाचक है। इस ग्रंथ में इसका विवेचन सार भूत द्रव्य 'शुद्धात्म द्रव्य के रूप में किया गया है । ग्रंथकार श्री भगवान् कुंदकुंव ने पंथ के प्रारंभ में ही इसका प्रतिपादन प्रतिज्ञा रूप में निम्न भांति किया है:
तं एयत्त विहतं दाएहं अप्पणो सविहवेण ॥
जदि दाएज्ज पमाणं, चुक्किज्ज छतं ण घेतव्वम् ।।५।। मैं "एकत्व-विभक्त" आत्मा का स्वरूप अपनी सम्पूर्ण शक्ति (आगम जान-युक्ति तथा अनुभव) से ग्रंथ में दिखाऊंगा। यदि बता सकं तो प्रमाण (स्वीकार करना) । किन्तु यदि बताने मैं चूक हो जाय, तो उसे छल रूप ग्रहण न करना। निरहंकारता पूर्वक यह ग्रंथकार को बढ़ प्रतिज्ञा है।
एकत्व-विभक्त का यह अर्थ है कि जो अपने निज स्वरूप में स्थित तथा पर द्रव्य से भिन्न हो, उसे ही शुद्ध द्रव्य कहते हैं । लोक में भी शुद्ध पदार्थ उसे कहते हैं जो किसी भिन्न पदार्थ से अमिश्रित हो, तथा विकृत न हो । उदाहरण के लिए 'घृत' को ले लीजिए । यदि उसमें तेल या वनस्पति तेल अथवा अन्य कोई पदार्थ मिला हो तो उसे "शुद्ध घी नहीं कह सकते । इसी प्रकार यदि वह अमिभित होकर भी पीतल आदि बर्तन के योग को पाकर नीलाया हरा हो गया है याबेस्वाद हो गया है, तब भी उसे शुद्ध घृत नहीं कहते। इसी प्रकार "आत्मा" चतन्य लक्षण है, वह कानावरणादि अष्ट कर्म, तथा शरीरादि नो कर्म, और कीपारि भाव कर्म हारा यदि मिश्रित-मलिन है, एवं स्वरूप विकृत हो गया है, तो उसे 'शुवामा' नहीं कह सकते हैं।