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समयसार-वैमव
( ६४ ) अज्ञान में कर्मों की उत्पत्ति किस प्रकार है ? भ्रमित जीव का होता जिसक्षण त्रिवधि विकृत उपयोग निनांत । कलुषित भावमयी वह करता आत्म विकल्प तभी मतिभ्रांत । क्रोधमग्न क्रोधी बन जाता, मान निरत मानी विभ्रांत । यों उपयोग विकृत कर चेतन तत्कर्ता बन रहे नितांत ।
(६५ ) परिणामत -अज्ञान भाव ही कर्मकता सिद्ध होता है । मिथ्यादर्शनज्ञानचरण-रत विविध भ्रांतिवश बन अनजान-- धर्मादिक परद्रव्य ज्ञान-जयों को रहता अपना मान । जब उपयोग ज्ञेय में होता तब रहता वह निज को भूल । पर मे रम तद्रूपज्ञान का कर्ता बन, चलता प्रतिकूल ।
(६६ ) भूत ग्रस्त जनवत् करता है मंदबुद्धि, संकल्प विकल्प । निज में पर, पर मे निज की कर भ्रांत कल्पना अन्तर्जल्प । कारण है अज्ञानभाव ही जिससे यह चिद्रूपअनूप । पर में होकर मुग्ध स्वयं का भूला परमानंद स्वरूप । (94) निरत-चूर मस्त । तत्कर्ता-उसका करने वाला। (95) रम-रति कर के ।
(96) अंतर्जल्प-मन में होने वाली कल्पनाएँ ।