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अन्त में सकल कर्म सन्यास भावना का प्रतिपादन किया गया है। अपनी अचल शुद्ध चैतन्य स्वरूप प्रात्मा को प्रात्मा में ही सचेतन करना 'सकल कर्म सन्यास' भावना है। सकल पर द्रव्यों से भिन्न सकल विकृत भावों से रहित 'शुद्धात्मा' है, ऐसा दरसाया गया है। __मोम का मार्ग लिंग (भेष) में नही, रत्नत्रय में है । प्रात्मा को रत्नत्रय में स्थिर करो, उसका ही ध्यान करो, उसोमें विहार करो। अन्य द्रव्य और बातो की ओर ध्यान न दो। यही प्रात्मा के सर्व विशुद्ध होने का मार्ग है । अन्त में प्राचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने ग्रन्थ मे प्रतिपादित विषय की महत्ता का प्रदर्शन किया है ।
टीकाकार श्री अमृतचन्द्र स्वामी ने ग्रंथ के अन्त में "स्थाहादाधिकार" विशेष रूप में लिखा है। जिसमें अनेकान्त के प्रयोग की समस्त प्रक्रिया बताई गई है । सत्वप्रसत्व, नित्यत्व अनित्यत्व, एकत्व-अनेकत्व प्रादि परस्पर विरोधी धर्मों को अविरुद्धता अनेकान्त द्वारा प्रतिपादित है।
यह ग्रंथराज जिस विषय का प्रतिपादन करता है वह तत्व व्यवस्था का यथार्थ चित्रण है। इससे प्रात्मा को परम सन्तोष होता है। तत्त्वज्ञान ही शान्ति का प्रमोष उपाय है इसमें सन्देह नहीं । प्रतः प्रात्म शान्ति के लिए अध्यात्म शास्त्र का बहुत बड़ा उपयोग है।
ग्रन्थ की प्रामाणिकता एवं परम्परा
अंतिम तीर्थकर परमभट्टारक देवाधिदेव भगवान महावीर चतुर्य काल के अन्त में निर्वाण को प्राप्त हुए। वर्तमान काल में उनका ही तीर्थकाल चल रहा है। वे सर्वज्ञ सर्वदर्शी परसवीतराग थे, प्रतः उनका उपदेश अत्यन्त प्रामाणिक था। उनके उपदेशानुसार उनके मुक्ति गमन के पश्चात् क्रमशः गौतम, सुधर्माचार्य, जंबूस्वामी ये ३ केवली तथा उसी पट्ट पर ५ श्रुत केबली, ग्यारह एकादशांगधारी, पांच दशपूर्वधारी, पश्चात् बस, पाठ आदि अंगधारी ऐसे अनेक मनिराज भगवान् के उपदेश की परम्परा को प्रागे बड़ानेवाले हुए हैं।
यपि इस काल में केवली, श्रुतकेवनी, अंगपूर्णधारी अन्य अनेक प्राचार्य भी हुए हैं, तथापि भगवान् के पश्चात् जो सघ था, उसके अधिनायक पर पर ६८३ वर्ष में उक्त प्राचार्य हो उक्त पदों पर प्रतिष्ठित मानी हुए हैं। तिलोयणपण्णत्ती में निम्न पत्र है -