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समयसार-वैनन
( १६७ )
आस्रव का उदाहरण चुम्बक सँग स्वयमेव सुई में चञ्चलता होती उत्पन्न । त्यों रागादिविभाव परिणमन से द्रमास्त्रब हो निष्पन्न । ज्यों संतप्त लोह जल में पड़ उसे खींचता अपनी प्रोर । त्यों कषाय संतप्त चेतना कर्मास्त्रब करती है घोर ।
( १६८ )
उदय में आ चुकने पर कर्म की दशा फल पकने पर यथा वृक्ष से भू पर आ पड़ता तत्काल । पुनः वृन्त में नहि जुड़ता वह लाख यत्न भी किये विशाल । त्यों हो बद्ध कर्म उदयालि में प्रा फल देता है इक बार। कर्म भाव च्युत हो रहता, फिर उस से जीव न हो सविकार।
( १६६ ) कर्म की सत्ता मात्र आस्रव का कारण नही पूर्व बद्ध जो कर्म बच रहे सत्ता में ज्ञानी के शेषपृथ्वी पिंड समान न उसमें द्रव्यास्रव कर सकें प्रशेष । मुष्टि बद्ध विषवत् रहते वे, अतः न करते रंच विकार । कार्माण देहोपबद्ध रह ज्ञानी पर कर सकें न वार। (167) संतप्त-अत्यंत उष्ण, गर्म । वृन्त-गल्छा । कर्मभावच्युत-कर्मदशा रहित ।
(169) मुष्टिबढ-मुठ्ठी में बंधा हुमा । बेहोपबद्ध-वारीर से बा हुआ।