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________________ संक्राधिकार (१४) उदाहरण पावक का संयोग स्वर्ण पा होकर भी संतप्त निदान--- स्वर्ण पना नहि तजे तनिक भी; किन्तु निखर बनता अम्लान । त्यों ज्ञानी भी घोर असाता-उदय जन्य सह तीव्र प्रहार-- नहि स्वभाव से विचलित होता रंचमात्र भी किसी प्रकार। ( १८५ ) जीव की प्रति बुद्ध-अप्रतिबुद्ध दशा इस प्रकार नानी सुदृष्टि से प्रात्म तत्व अनुभव कर शुद्ध, पर को अपना मान, न रत हो, वही वस्तुतः है प्रतिबुद्ध । अज्ञानी प्रज्ञान तमावृत रह कर बनें विकाराक्रांत । नित पर द्रव्य भाव अपनाकर अप्रतिबद्ध रहता दिग्भांत । ( १८६ ) परमात्मा कौन बनता है ? अनुभव कर शुद्धात्म तत्व का जो बन रहता है तल्लीन । वह शुद्धात्म ध्यान से करता शुद्ध प्रात्म ही प्राप्त प्रवीण । किन्तु अशुद्ध अनुभवन करने वाला रागी जीव मलीन-- अपने को अशुद्ध ही पाता अप्रतिबुद्ध संज्ञान-विहीन । (१८५) प्रतिबुद्ध-जिसमें ज्ञान जाग्रत हुमा है, शानी। तमावृत्त-अंधकार से ढका हुमा । (१८६) संज्ञान-सम्यक्तान ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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